दिवाली का घरौंदा
मान्यताओं के अनुसार दीपावली प्रभु राम के चौदह वर्ष के वनवास के बाद पुनः अयोध्या नगरी लौटने पर मनाया जाता है। घर घर मिट्टी के दिए, वंदनवार ,रंगोली की सजावट से उनके आगमन की खुशी का इजहार करना ही उद्देश्य होता है।
उस वक़्त को आज भी कुछ नए तौर तरीकों से मनाया जाने लगा है।पर वो पुरानी मान्यताएं काफी कुछ लुप्त होती जा रही है ।
सदियों पुरानी रीत चली आ रही थी। दीवाली के साथ एक मान्यता घरौंदा बनाने की भी जुड़ी है जो अक्सर बचपन का “आंगन” याद दिला देती है।
चिकनी मिट्टी ,कुछ सरकंडे, लकड़ी के तख्तें, खपरैल की खोज दीवाली से कुछ दिन पूर्व ही शुरू हो जाती थी । मां के साथ हम सब उत्साह से घर की सफाई और घरौंदा बनाने के लिए उत्साहित रहते थे।
“मिट्टी का गारा ” (मिट्टी ,पानी से सना घोल) जिससे सुंदर दोमंजिला, बंगला ,फ्लैट अपनी पसंदानुसार तैयार करते थे।हर बेटी के उस घरौंदे में साज – सजावट , मिट्टी के चुल्हा चक्की चौके का समान, गुड़िया के बिस्तर, अलमारी ,सोफ़ा सब सुसज्जित होता था। मां का कर्तव्य इसके पीछे अपनी बेटी को घर के प्रति रुझान और खेल खेल में उसको रख रखाव की ओर अग्रसर करना था।
फुल ,अबीर , चावल , हल्दी , चूने की रंगोली घर के अग्र भाग में किसी के आगमन , सत्कार के साथ साथ, बुरी बलाओं व महामारी को बाधित करने की सूचक होती थी। जिसको आज भी अधिकत्तर स्त्रियां अपनी परंपरा को कायम रखते हुए अग्रिम पीढ़ी को संदेश देती है। मिट्टी के बर्तन की दुकानें और कुम्हारों के यहां से घर घर पहुंचानें की प्रथा आज भी पुराने घरों में कायम है। जिसमे चौघड़ा भी अपनी अहमियत बताता है , उसमे लक्ष्मी पूजन के वक़्त खील-बताशों से भर कर रखने का तात्पर्य होता है कि घर के भंडार सदैव भरे रहे।
दीवारों पर सदैव से गेरू, चूने , एयपन ( कच्चे चावल और हल्दी सिल पर पीस कर बनाते है) । आज भी यह प्रथा मायके और ससुराल में निभाई जा रही है ।
किंतु आज हाईटेक जमाने में इसके मायने बदले से नजर आते है, जो बेटी के हाथ में शास्त्र के साथ शस्त्र की ओर अग्रसर होने की स्थिति को दर्शाता है। समय का बदलाव आवश्यक है और कुरीतियों का बहिष्कार व संस्कारो को स्वीकार करना अति आवश्यक है।
अपनी संस्कृति में गोबर ,चूने से ‘आला’ बना कर ‘ लीपा ‘ जाता है उस पर रूई या ब्रश की सहायता से कहानी चित्रित करने की प्रथा आज भी है,शाम को परिवार के बड़ें ,छोटे ,बच्चें सभी एकत्रित होकर कथा सुनते हैं, जिसमे अक्सर सास, बहू ,देवरानी ,जेठानी ,ननद ,बेटे , बेटी ,बुआ का ही वर्णन होता है, प्रसाद रूपी भोजन भी बैठ कर परोसा जाता है। इसका मकसद मात्र परिवार को एकत्रित करके घर को बांधने का होता है,साथ में अपनी परंपरा व भारत की ऋतुओं के बदलाव और उस मौसम के भोजन के सेवन की अहमियत को भी प्रदर्शित करता है।
कुछ ऐसा होता है ,होई अष्टमी, दीपावली का त्योहार।
भारतीयता और सात्विकता का अनूठा संगम है हमारी संस्कृति।
विनी भटनागर
नई दिल्ली