सच में ‘दुर्गा’ थी इंदिरा !!
वो पर्वत राजा की बेटी ऊंची हो गयी हिमालय से
जिसने भारत ऊंचा माना सब धर्मों के देवालय से
भूगोल बदलने वाली इतिहास बदलकर चली गई
जिससे हर दुश्मन हार गया अपनों के हाथों वो
‘इंदिरा’ छली गई…
-हरिओम पंवार
इंदिरा गांधी दृष्टिसम्पन्न, ऊजार्वान,तेजस्वी, आत्मविश्वासी और प्रगतिगामी नेता थीं। जिन्होंने भारत को अंतरराष्ट्रीय नक्शे में एक मजबूत, सक्षम और निर्णय लेने के राष्ट्र के रूप में प्रसारित किया और कामयाब हुईं। भारत की वह अजीम शख्सियत जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी प्यार से ‘इंदु’ कहते थे, जिसे उसके पिता जवाहरलाल नेहरू और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर दुलार से ‘प्रियदर्शिनी’ बुलाते थे और जिसका उसके बाबा (दादा) मोतीलाल नेहरू ने अपनी मां के नाम के याद में ‘”इंदिर’ नामकरण किया जिसका शाब्दिक अर्थ लक्ष्मी या दुर्गा होता है, ने अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा और दृढ़ इच्छाशक्ति से अपने नाम को चरितार्थ किया। और वह क्षण भी आया जब 17 दिसंबर,1971 को भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास और भूगोल एक साथ बदलकर एक नये देश बांग्लादेश को जन्म देकर भारत की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारतवासियों से ‘दुर्गा’ और ‘भारत की लौह महिला’ की उपाधि हासिल कर लीं। इंदु से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनने का उनका सफर बड़े उतार चढ़ाव एवं संघर्ष का रहा।
11 वर्ष की अल्पायु में महात्मा गांधी से प्रभावित होकर बर्तानिया सरकार के विरुद्ध जंग लड़ने वाली बानरी सेना की मुखिया, जो बाद में अपने पिता तथा देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु से राजनीति का ककहरा सीखी थी।1938 में वे औपचारिक तौर पर इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल हुईं और 1947 से 1964 तक अपने प्रधानमंत्री पिता नेहरू के साथ उन्होंने काम करना शुरू कर दिया।
नेहरु जी के देहांत के बाद प्रधानमंत्री शास्त्री जी के मंत्रिमंडल में बतौर सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनीं और शास्त्रीजी के रहस्यमयी देहांत के बाद 1966 में वह ‘प्रधानमंत्री’ पद पर आसीन हुईं। उन्होंने सत्ता में आने के पश्चात प्रिवीपर्स समाप्त कराने, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कोयला खदानों का सरकारीकरण करने जैसा साहसिक कदम उठाया।
1971 के युद्ध में विश्व शक्तियों के सामने न झुकने के नीतिगत और समयानुकूल निर्णय क्षमता से पाकिस्तान को परास्त किया और बांग्लादेश को मुक्ति दिलाकर उन्होंने विश्व के भूगोल को ही बदल, विश्व के परिदृश्य में भारत का परचम लहराया। इसका इतना प्रभाव भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर पडा, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति एक ध्रुवीय-सी हो गई थी और चारों तरफ इंदिरा ही इंदिरा नजर आने लगीं। इंदिरा की ऐतिहासिक कामयाबियों के चलते उस समय देश में ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ का नारा जोर-शोर से गूंजने लगा।
सन् 1971 के इंदिरा जी के साहसिक कुटनीतिक चाल से मिली सफलता से प्रभावित होकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साहस की सराहना करते हुए उन्हें ‘दुर्गा’ कहा था, तो उनके ही दल के लोगों ने इसकी कड़ी आलोचना की थी।
मगर यह कम लोगों को पता होगा कि इंदिरा गांधी को तो यह उपमा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ-चालक गुरु गोलवलकर ने दी थी, अटल ने तो उसे सिर्फ दोहराया था। हालाँकि प्रधान मंत्री अटल जी ने इसका कई बार जोरदार शब्दों में सार्वजनिक रूप से खंडन किया था। वह बराबर दुहराते रहे कि उन्होंने बार-बार प्रेस को कहा है कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा है, पर प्रेस वाले लोग मानते ही नहीं थे। उन्होंने यह भी खुद स्वीकारोक्ति कई बार सार्वजनिक मंच से दिया था कि दूसरे दिन प्रेस ने मेरे इस सुनी सुनाई बात का खंडन पेपर के एक कोने में छोटे से खबर में छापी थी। इस प्रकरण की चर्चा अटल जी के मित्र और पत्रकार विजय त्रिवेदी ने अपनी किताब ‘हार नहीं मानूंगा’ में विस्तृत रूप से किया है। अटल जी के बारे में इस पुस्तक में दावा किया गया है कि शाम को बैठक सजी थी जिसमें वाजपेयी ने त्रिवेदी से कहा, ‘इंदिरा ने अपने बाप नेहरू से कुछ नहीं सीखा, मुझे दुख है कि मैंने उन्हें दुर्गा कहा।
पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल गौर अपने और अटल जी के बीच हुए संवाद को याद करते हुए संवाददाताओं के बीच साझा करते हुए कहा था कि जब भारत ने पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग किया था तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अटल जी की मदद ली थी। गौर बताते हैं कि अटल जी को रात 12 बजे प्रधानमंत्री आवास से फोन आता है। इंदिरा गांधी बात करती है और सुबह सेना की गाड़ी से वाजपेयी प्रधानमंत्री आवास पहुंचते हैं। वहां इंदिरा गांधी से हुई चर्चा के बाद वाजपेयी को विशेष विमान से नागपुर भेजा जाता है, ताकि वे वहां पहुंचकर सरसंघचालक गोलवलकर से बात करा सकें। जयपुर के शिवकुमार पारीक गौर बताते हैं कि उन्हें अटल जी ने स्वयं बताया था, “उन्होंने (वाजपेयी) गोलवलकर और इंदिरा गांधी की फोन पर बात कराई, इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़ने की बात कही और उनका सहयोग चाहा। इस पर गोलवलकर ने हामी भरी और इंदिरा को दुर्गा कहा।” गौर का कहना है कि गोलवलकर के जीवित रहते वाजपेयी ने यह बात किसी को नहीं बताई, मगर उसके बाद वाजपेयी ने भी गोलवलकर की बात को दोहराया, जिस पर उनकी खूब आलोचना हुई, सवाल उठे, मगर वाजपेयी पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
16 मई 1974 में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने पोखरण विश्व के अन्य देशों के विरोध को दरकिनार करते हुए पहली बार परमाणु विस्फोट कराया और दुनिया की नाराजगी भी को भी झेला। सफलता पूर्वक परमाणु परीक्षण के तुरंत बाद 1975 में परमाणु परीक्षण परियोजना से जुड़े हुए तीनो वैज्ञानिकों होमी सेठना, राजा रमन्ना और बसंती नाग चौधरी को पद्दम विभूषण से सम्मानित भी किया एक इत्तेफाक की ही बात है कि जब इंदिरा गाँधी परमाणु विस्फोट कारने में जुडी हुई थी तब देश में उनके विरूद्ध जेपी की अगुआई में छात्र आन्दोलन अपने चरम पर थी।
पूर्व मुख्यमंत्री गौर ने कई बार सार्वजनिक स्थलों/गोष्ठियों में कहा हैं नरसिम्हाा राव के कहने पर ही वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि के तौर पर गए थे, जिस पर कांग्रेस ने भी नरसिम्हाा राव की आलोचना की थी। इतना ही नहीं, राव के अधूरे काम पोखरण-दो का विस्फोट भी उन्होंने राव की इच्छा के मुताबिक किया था।
श्रीमती इंदिरा गांधी को दुनिया कड़े फैसले लेने के लिए जानती है। इसमें अनेक ऐसे बड़े फैसले थे जिसने भारत को मजबूत किया और दुनिया में भारत का कद बढ़ा। उन्होंने कुछ ऐसे फैसले भी लिए, जिनके कारण उनकी बहुत आलोचना हुई। इसमें 1975 में लगायी गयी इमरजेंसी जिसमें शामिल है।
पाकिस्तान समेत दुनिया के कई देश के विरोध एवं आग्रह के बाद भी श्रीमती गाँधी ने 11 फरवरी 1984 को मकबूल भट्ट जैसे आतंकी को तिहाड़ जेल में फांसी दिलावाया। अमृतसर स्थित स्वर्ण-मंदिर गुरुद्वारा में ऑपरेशन ब्लू-स्टार अभियान श्रीमती इंदिरा गाँधी की एक ऐसी भूल थी, जिसे उन्हें 31अक्टूबर 1984 को अपनी जान की कीमत देकर चुकानी पड़ी।
प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी एक अन्तराष्ट्रीय शिखर-सम्मलेन में शामिल हो रही थीं और उन्हें कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करना था। रात्रि के लगभग 11 बज रहे थे, अचानक श्रीमती गाँधी का चश्मा गिर कर टूट गया। वह काफी परेशान हो रहीं थीं कि कैसे वह हस्ताक्षर करेंगी, तभी उनके निजी सचिव श्री आर के धवन जी हाजिर हुए और तत्क्षण हुबहू वही फ्रेम, वही रंग और उसी पवार के दूसरे चश्मे को उन्होंने उन्हें सौंप दिया। तब श्रीमती गाँधी उस चश्मे को देखकर चोंकते हुए आर के धवन की तरफ देखा, तब श्री धवन ने उत्तर दिया …..मेरे पास उन सभी चीजों की छह सेट बराबर साथ होती है जो आपके प्रयोग में अभी आ रही है। ऐसी थी श्रीमती गाँधी और उनके सचिव।
डॉ. नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार