अतीत के साये
कहानियों के कितने पात्र सदियों से हमारे आसपास इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और न जाने कितनी कहानियां, लघुकथाएं, कितने उपन्यास लिखे पढ़ें गए, सराहे गए। कुछ धूल धूसरित हुए पड़े रहे हैं, शेल्फों में। ऐसी ही असंख्य पुस्तकें उस लाइब्रेरी में मौजूद थीं, जिन्हें बरसों से झाड़ा तक नहीं गया था, खोलकर देखना तो दूर की बात थी। आज मन नहीं माना, तो शैलेश के बंद कमरे में घुसने की हिम्मत कर ही डाली। पिछले तीन सालों से शैलेश का साथ छूट चुका था और अब मेरी अंतरात्मा इस बात की गवाही नहीं दे रही थी कि मैं उस कमरे के सुनसान पड़े माहोल में घुस उसे अशांत करूं। आखिर मेरा उस कमरे से रिश्ता ही क्या था, जब शैलेश से ही सब रिश्ते तोड़ दिए थे आज से तीन वर्ष पहले। वह तो हालात कुछ ऐसे बन गए थे कि शैलेश की मौत के बाद अस्पताल वालों ने फोन कर मुझे ही सूचित किया, जबकि मैं तो उसका नंबर कब का डिलीट कर चुकी थी, बिल्कुल उसी तरह जैसे कि उसके साथ जुड़ी हुई यादों को अपने मन मस्तिष्क से। वैसे यहां मैं शायद गलत हूं क्योंकि किसी भी इंसान को भुला पाना इतना सरल नहीं होता, मन के किसी कोने में चाहे अनचाहे उन यादों की घुसपैठ लगी ही रहती है। फिर शैलेश के साथ तो मैंने जीवन के खुशनुमा दस साल बिताएं थे।
बेमन से उस कमरे का दरवाजा खोला, जिसे शैलेश हमेशा साफ-सुथरा, सजा संवरा रखते थे। अपने कॉलेज के विद्यार्थियों की थीसिस में मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते। किताबी कीड़ा तो नहीं थे, फिर भी जिस किसी शहर में जाते टूर के लिए, एक दो पुस्तकें रास्ते में पढ़ने के लिए अवश्य खरीद कर लाते, और फिर वो पुस्तकें शोभायमान होती उस लाइब्रेरी में। हमारे बेडरूम से भी एक दरवाजा खुलता था उस लाइब्रेरी के लिए, पर ज्यादातर शैलेश बाहर के रास्ते से ही उसमें आते जाते थे और बेडरूम वाली साइड से खुलने वाली तरफ अक्सर कुंडी लगी रहती थी। कई बार तो मुझे शक होने लगता कि इस लाइब्रेरी में शैलेश घंटों अपने को बंद कर आखिर करते क्या थे। पूछने पर हंसकर टाल दिया करते कि तुम्हारी सौतन से बातें किया करता हूं और मैं बस मुस्कराकर रह जाती।
कमरे की झाड़ पोंछ करते हुए अचानक नजर बुक रेक पर पड़ी एक लाल रंग के फूलों वाली डायरी पर पड़ी। “उफ्फ कितनी गन्दी हो रही है।” याद है मुझे शादी की रात को मैंने शैलेश को उपहार के रूप में दी थी, जिसमें कुछ खूबसूरत एहसास संजोए थे मैंने अपनी कलम से। शादी के बाद मायके को छोड़ आने की पीड़ा को दबाते हुए वो एहसास, जो एक खुशहाल जिंदगी के सपनों में मुस्कुराते हुए पी गई थी। सब कुछ तो लिखा था इस डायरी में, वह समर्पण, वह प्यार, वह अनुभूति, जो एक पत्नी अपने पति से चाहती है, की आकांक्षा लिए उस रात सब कुछ इस डायरी के साथ ही तो सौंप दिया था शैलेश को। वह सांसों की खुशबू, वह स्पर्श का रोमांच, वह मधुर गंध जो दो जिस्मों को एक होने पर मजबूर करती चली गई एक सुखद अनूठे अनुभव के साथ। उसके बाद सब कुछ तो ठीक चलता रहा शादी के बाद दस साल तक। अपनी नौकरी करने की महत्त्वाकांक्षा को मैंने कभी जाहिर ही नहीं होने दिया क्योंकि शैलेश को अपने घर परिवार और बूढ़ी मां की देखभाल के लिए नौकरों पर भरोसा नहीं था बिल्कुल भी। बच्चे की मेरी ख्वाहिश को भी शैलेश पहले तीन चार साल टालते रहे कि इतनी क्या जल्दी है, फिर बाद में बहुत कोशिशों और इलाज के बाद दस साल बाद शिवि हमारे जीवन में आई।
शिवि के जन्म के बाद तो वैसे भी वक्त कहां बचता था कुछ सोचने के लिए, ऐसे में शैलेश भी अपने आप को उपेक्षित सा महसूस करने लगे थे, हालांकि इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी। संतान के जन्म की नौ महीने की प्रक्रिया और उसकी पैदायश के बाद व्यस्तता तो बड़ी ही थी, मेरा स्वास्थ्य भी कुछ सुस्त सा रहने लगा था। रात को शिवि के बार बार जागने की वजह से शैलेश तो अक्सर खीझ जाते थे और उठकर अपनी लाइब्रेरी की ओर रुख कर लेते थे। सास से भी सहयोग की अपेक्षा रखना बेकार था। ऐसे में अक्सर देर रात को शैलेश का बिस्तर पर साथ मांगना मुझे और भी परेशान कर देता था।
“अरे भाई, हमारी भी कुछ जरूरतें हैं, तुम कभी उस पर भी ध्यान दिया करो।”नींद में अक्सर शैलेश जिस्म से खेलते हुए यह डायलॉग इस्तेमाल करते, तो कसमसा कर रह जाती थी मैं। अब वह स्पर्श, वह छुअन रोमांचित नहीं करती थी मुझे, पर अनमने मन से ही सही, खुद को शैलेश के हवाले कर देती थी, जबकि हर बार चरम पर पहुंच कर भी मुझे अपमानित करते हुए शैलेश ठंडी औरत का खिताब देने से नहीं चूकते थे। शायद शादी के बाद बहुत सालों बाद बहुत इलाज और कोशिशों के बाद मातृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जो मेरे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर छोड़ गया था। पता नहीं फिर शैलेश किस मिट्टी के बने थे, जो शिवि के आने के बाद उसकी मासूम किलकारियों में नहीं डूब पाए थे या फिर उनके संस्कार ही कुछ ऐसे थे, जहां बेटियों को लाड प्यार करना ज्यादा जरूरी नहीं समझा जाता था। पता नहीं समझ ही नहीं सकी कभी। सास भी दिल का दौरा पड़ने से शिवि के तीन महीने का होने पर ही स्वर्ग सिधार गई थी।
शैलेश अब बहुत बदले बदले नजर आते। कोई न कोई बहाना लगा देर रात को घर आने लगे। शिवि को संभालने के साथ साथ घर की छोटी बड़ी जिम्मेदारियों ने मुझे इतना व्यस्त कर दिया था कि मैं थक टूट कर सो जाती और शैलेश डुप्लीकेट चाबी से अंदर आकर खुद ही खाना गर्म कर खा दूसरे कमरे में ही सो जाते। दूरियां बढ़ती जा रही थी और एक मौन की दीवार खड़ी होती जा रही थी हम दोनों के बीच। जिंदगी यूं ही निकल जाती, तो भी सही था। पर उस दिन शिवि का कुछ जरूरी सामान लेने के लिए उसे लेकर कैब से माॅल में चली गई। बहुत दिनों बाद घर से बाहर निकली थी। वहीं पर कालेज के जमाने की एक सहेली अर्चिता मिल गई। आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। बस बातों बातों में काॅफी पीने के लिए एक रेस्तरां में बैठ गई उसके साथ। यहीं वह मनहूस घड़ी थी जिसने मेरा सारा सुख चैन छीन लिया।
“शैलेश सर ! यूं आर टू मच! कैसे मैनेज कर लेते हैं आप ऐसी बोरिंग वाइफ को। लाइफ में कुछ भी रोमांच नहीं, कमाल है..!”पीछे वाली टेबल से किसी लड़की की मदमस्त आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। पीछे मुड़कर देखा, तो आंखें फटी की फटी रह गई। शैलेश एक लड़की के हाथों में हाथ लिए जोर जोर से हंस रहे थे, जो एक दो बार नोट्स लेने के लिए घर पर भी आई थी । कांटों तो खून नहीं, वाली स्थिति थी मेरी। यह तो शुक्र था कि अर्चिता कभी शैलेश से मिली नहीं थी। शैलेश ने मुझे देखा या नहीं, पता नहीं, पर मैं अपमानित सी वहां से चली आई चुपचाप कॉफी निपटाकर।
“शैलेश! अब मैं बोरिंग हो गई, जो बाहर मन बहलाने लगे तुम!”
“ओह! तो मैडम जासूसी पर उतर आई। किसी मित्र के साथ बाहर जाना गुनाह हो गया क्या?”
“अपनी पत्नी के लिए एक मिनट का समय नहीं आपके पास और थीसिस के लिए अपनी स्टूडेंटस की मदद करने के नाम पर माॅल में अय्याशी कर रहे आप गर्लफ्रेंड के साथ..।”शायद कुछ ज्यादा कड़वा बोल गई थी, इसका एहसास मुंह पर पड़े उस थप्पड़ की गूंज से हुआ। वह दिन निकला और मैं शिवि को लेकर सीधा पास के उसी शहर में अकेली रहने वाली अपनी विधवा मासी के घर आ गई। मम्मी पापा के चले जाने की वजह से और कोई सहारा नहीं दिख रहा था मुझे। मौसा जी की पेंशन और विदेश में बसे बेटे द्वारा भेजे पैसे से उनका गुज़ारा अच्छा चल रहा था, पर मैं उन पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। शिवि को उनकी देखभाल में छोड़ एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी थी मैं। शैलेश ने एक दो बार फोन पर साॅरी बोला भी, पर मैं माफ नहीं कर पाई। उन्होंने भी ज्यादा कोशिश ही नहीं की। शिवि अब तोतली जुबान में बोलने लगी थी। उसका “पापा” कहना चुभता सा था कानों में।
एक दिन जब शिवि को प्लेस्कूल छोड़ अपने स्कूल जाने लगी, तो एक फोन कॉल ने चौंका दिया एकदम से। दूसरी तरफ से आवाज़ आई,”वनिता मल्होत्रा जी?”
“जी, मैं अम्बेडकर पुलिस स्टेशन का इंचार्ज मिस्टर गोखले बोल रहा हूं। आपके पति अपने घर पर नींद की गोलियां ज्यादा खाने की वजह से मृत पाए गए हैं।क्या आप शिनाख्त के लिए आ सकती हैं सिटी अस्पताल में?” दिल धक्क से बैठ गया। उसी वक्त मासी जी और शिवि को लेकर रवाना हो गई टेक्सी लेकर। पर सब कुछ खत्म हो चुका था। शैलेश छोड़कर जा चुके थे। काम वाली बाई शीला ने बताया कि उस दिन सुबह जब खाना बनाने के लिए आई, तो साहब लाइब्रेरी में बेहोश पड़े थे। पड़ोसियों की मदद से अस्पताल ले जाया गया, तो डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था उन्हें। पास से मिली एक चिट्ठी में उन्होंने अपने एकाकी जीवन से तंग आकर नींद की गोलियां खाने की बात कबूली थी और इसके लिए खुद को ही जिम्मेदार बताया था, इसलिए थाने से भी केस रफा दफा हो गया था।
दरवाजे की घंटी बजती, तो मैं अतीत की गमगीन परछाइयों से बाहर निकली। शायद शिवि आ गई स्कूल से। डायरी हाथ में लेकर वैसे ही बाहर आ गई। मासी जी, जो अब मेरे साथ यहीं रहती थी, रसोईघर में खाना गर्म करने चली गई। शिवि का मुंह हाथ धुलवाकर कपड़े बदले और खाना खिलाकर कुछ देर के लिए सुला दिया। मासी जी भी आराम करने दूसरे कमरे में चली गई। पर मन स्थिर नहीं हो रहा था अभी भी। जितना दूर भागना चाहा था अपने अतीत से, उतना ही कचोट रहा था वह मुझे। पिछले एक महीने से दोबारा इस घर में हूं, पर नितांत अकेली जूझती हुई अपनी परिस्थितियों से। शिवि के मासूमियत से भरे सवाल कभी कभी उद्वेलित कर देते मन को,”मम्मा! अब हम यहां क्यों आ गए? पहले आप पापा के साथ नहीं रहती थी?कुट्टी थी क्या आप पापा से, तभी वो नाराज़ हो कर चले गए बड़ी दूर?” और मैं एकदम मौन उसको देखती रह जाती। अभी वो निश्चिन्त होकर सो रही थी, पर मेरी आंखों में नींद कहां थी। पास रखी डायरी उठाकर बेमन से पन्ने पलटने लगी कि उसमें से एक चिट्ठी नीचे गिर पड़ी। कांपते हाथो से उसको खोल कर पढ़ने लगी।
“प्रिय वनिता!
शायद प्रिय कहने का अधिकार कब का खो चुका हूं। अपने पौरुष के दंभ में तुम्हें कभी एक पत्नी से ज्यादा जगह दे ही नहीं पाया। तुम्हें जीतने की कोशिश में तुम्हारे जिस्म को तो पा लिया, पर तुम्हें खो बैठा। हां! समाज में एक औरत की अलग अलग भूमिकाओं को निभाने में एक पति के जिस सहयोग की अपेक्षा तुम्हें मुझसे थी, मैं उसमें कभी खरा नहीं उतरा। दौलत तो बहुत कमाई, पर तुम्हें इग्नोर करता गया। यह भी नहीं सोचा कि मां बनने के बाद तुम्हें की भूमिकाएं एक साथ निभानी हैं।
तुम्हारे व्यस्त होने पर तुम्हें सहयोग देने की बजाय बाहर साथ ढूंढने लगा, जो कि शारीरिक संतुष्टि तो देता था मुझे, पर अंतर्मन की शांति खत्म होती गई धीरे धीरे। तुम घर छोड़ कर न जाती, तो शायद संभाल लेती मुझे, पर तुम भी कहां ग़लत थी? मैंने अपनी हदें पार कर दी थी, तो सजा तो मिलनी ही थी। घर आकर अब अकेलापन काटने को दौड़ता है। शिवि का मासूम चेहरा आंखों के सामने आता है बार बार। तुम्हें फोन किया दो बार..पर नहीं उससे क्या होता है? जो मानसिक पीड़ा मैंने तुम्हें दी है, उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती। आज अपने मन का गुबार निकाल रहा हूं। तुम्हारी मीठी यादों से लबरेज हर शब्द को पढ़ा आज इस डायरी में। कितना बदनसीब हूं, जो इतना प्यार करने वाली पत्नी को समझ नहीं पाया कभी।
शायद आज भी होश में नहीं आता, अगर पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ चलने की वजह से डाक्टर के पास चेकअप के लिए न गया होता। बहुत ही चौंकाने वाली थी मेरी रिपोर्ट्स। बाहर असुरक्षित सेक्स करने की वजह से ही शायद मेरे रक्त में ह्युमन इम्युनोडेफिशिएंसी वायरस के संकेत मिले हैं। डाक्टर द्वारा सांत्वना देने के बावजूद भी कि यह बीमारी अभी शुरुआती दौर में ही है, मैं खुद को समझा नहीं पा रहा हूं। बहुत थक गया हूं। पिछले कुछ दिनों से अच्छे से सो नहीं पा रहा। यह पत्र तुम्हें पोस्ट नहीं करूंगा, बस डायरी में रख रहा हूं कि शायद कभी तुम इस घर में अपनी यादों को समेटने के लिए चली आओ। अच्छा रखता हूं अभी। फिर लिखूंगा कभी..माफ तो करोगी नहीं?
शिवि को प्यार, उसे अपने जैसी ही बनाना ..एक संपूर्ण नारी..
शैलेश”
पत्र हाथ में लेकर किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति कितनी देर तक एकटक कमरे में लगी शैलेश और अपनी तस्वीर को निहारती रही, जबकि मासूम शिवि मुझसे चिपक कर आश्वस्त हो कर सो रही थी।
सीमा भाटिया
साहित्यकार
लुधियाना,पंजाब