‘मिट्टी की मूरतों में देवी की खोज’
इंसान की विनम्रता है कि पंचतत्त्वों से निर्मित अपने शरीर को वह मिट्टी मानता है,अपने आराध्यों की कल्पना भी वह मिट्टी से ही साकार करता है,किंतु इन मूर्तियों के लिए मिट्टी एकत्रित करना खासा मुश्किल भरा काम है। नवरात्र में जगतजननी मां दुर्गा की मूर्ति के लिए दस जगह की मिट्टियां इकट्ठा की जाती हैं। नदी के किनारों, बैल के सींग, पहाड़ की चोटी, हाथी के दांत, सूअर की एड़ी, कोई चौराहा, बलि भूमि की मिट्टी, दीमक का ढेर, और किसी महल के मुख्य द्वार समेत चयनित होने वाली दस मृतिकाओं में से सबसे जरूरी और सहज सुलभ है वेश्या के आंगन की मिट्टी। सोचने वाली बात है कि वर्ष के अन्य दिनों में चोरी- छुपे, हीनभावना के साथ इन गलियों में घुसते लोग नवरात्र में याचक स्वर में वेश्या से विनती करते हैं – देवी ! तुम्हारे द्वार की मिट्टी मिल सकेगी ?
मां,पत्नी, बेटी,बहू, दोस्त,प्रेमिका के रूप में घर-परिवार की देखभाल का दायित्व सौंपने के बाद रोगी,बीमार और मनोविकारों से ग्रसित लोगों की शारीरिक आवश्यकताऐं पूरी करने वेश्या हो जाने की अप्रिय जिम्मेदारी निभाने को भी बाध्य किया है समाज ने नारी को। छेड़-छाड़ और बलात्कार रुपी यौन दमित कुंठाओं को शांत करने का सबसे सस्ता और अमानवीय तरीका है स्त्री का क्रय-विक्रय कर उसे वेश्यावृत्ति में धकेल देना।
फिर भी हर ग्राहक को अतिथि मानकर प्रेम का कुशल अभिनय और व्यापार निभाना, सोचकर देखिए तो ! कौन स्त्री के समक्ष ठहरता है ?
गंदे संबोधन, गालियां, बदन पर सिगरेट के जले निशान, जगह-जगह दांतों से काटा जाना, मारपीट के अलावा हर प्रकार के मनचाहे अप्राकृतिक व्यवहार की अग्नि में होम होती रहना ही जीवन की नियति मानकर स्वाहा हो रही हैं जो प्रतिदिन, क्यों नहीं कभी खयाल आता है उनके बारे में सोचने का।
तरह-तरह के प्रलोभन या मजबूरियां लादकर स्त्री को वेश्या बनाने का खेल सदियों से जारी रहा है देश,दुनिया में । वैशाली को दुनिया का सबसे पहला गणतंत्र होने का अधिकार प्राप्त है, किंतु उसके गौरव को कलंकित करती है आम्रपाली को जबरन नगरवधू बना दिया जाना। अपराध बस इतना ही कि वो राज्य की सबसे सुंदर युवती थी। उसके वैभव की देखा-देखी जाने कितनी गणिकाओं के उल्लेख से इतिहास भरा पड़ा है। उनके साथ इतना भर न्याय हुआ कि उनके रुप-यौवन को भरपूर सम्मान और नाम भी मिला। लेकिन उनका क्या जो पेट भरने की मजबूरी में अपनी सारी पहचान मिटाकर शीला,जूली, मुन्नी, रोजी जैसे नये और सस्ते नामों के साथ ग्राहक निपटाते हुए अनेक रोगों का शिकार होकर नाली के कीड़े की तरह एक दिन गुमनाम मौत मर जाती हैं ।
‘बदन तोड़ कर हमारी तरह कमाना पड़े ना बाबू !, तब पता चले पैसे की कीमत’ !
मौसम फिल्म का यह संवाद सबसे सच्ची कसौटी है इस बेशर्म,दर्दनाक धंधे की। आह ! मजदूर के पसीने में कम से कम अपने लिए इज़्ज़त तो है। इस धंधे में तो वह भी नहीं।
बहुत अच्छा है कि पिछले चार सालों से कोलकाता के रेडलाइट इलाके सोनागाछी की महिलाओं ने दुर्गापूजा की मूर्तियों के लिए मिट्टी देने से इनकार कर दिया है। अब गवारा नहीं कि दुनिया हेय दृष्टि से देखे उन्हें। वह भी चाहने लगी हैं अपने लिए एक इज़्ज़त भरी जिंदगी।
मत कसो स्त्री के सपनों पर लगाम। लेने दो उनके तन-मन को खुली हवा में सांस। मिट्टी में कुछ नहीं रखा है, यह सब प्रतीकात्मक है प्रकृति में नारी की सहभागिता को सम्मान देने का।
समझ जाइए कि दुर्गा और कन्यापूजन के ढोंग,दिखावे से कोई देवी प्रसन्न होने वाली नहीं,जबतक स्त्री विवश है देह व्यापार के घृणित और ग़लीज किरदार निभाने को, निर्भया, हैदराबाद की डॉक्टर और हाथरस जैसी बलात्कार की शिकार हजारों लड़कियों की तरह तिल- तिल जलकर मरने को।
प्रतिभा नैथानी
साहित्यकार
देहरादून