चिट्ठिया हो तो

चिट्ठिया हो तो ……..

सुजाता ने कमरे की इकलौती खिड़की खोली। पिछले तीन दिनों से सुजाता इसी कमरे में ही पड़ी रहती है। इस पीली तीन मंजिली इमारत में खिड़कियाँ और दरवाजे बहुत कम हैं। सुजाता जब यहाँ तीन रात पहले आई थी, तो रात आठ बजे का समय था। टेबल के पीछे एक दुरूस्त महिला बैठी थी। मोटी, जिंदगी से शायद थकी हुई, उबासी लेती हुई | सुजाता ने ज्यादा जिंदगी नहीं देखी थी तो भी उसे थोड़ा अटपटा लगा था। पीली बल्ब की रोशनी में एक लम्बा कोरिडोर, कुछ दरवाजे नजर आ रहे थे। साथ लाई हुई महिला ने उनको कहा कि स्टेशन पर घूमती मिली थी। रजिस्टर खोलने के पहले पूछा – कहाँ से हो। सुजाता ने धीरे से कहा – यहाँ से तीस कोस पर गाँव है हमारा । बस से आए थे। गिरिजा भैया ने कहा था, यहीं स्टेशन पर मिलना चार बजे। घर से एक छोटा थैला लेकर निकली थी। दो जोड़ी कपड़े और तीस रुपया। गिरिजा भैया गाँव का ही था। शहर में अच्छी नौकरी दिला देंगे। नए कपड़े और रोशनी होगी शहर में। अब चार घंटे इंतजार करने पर भी नहीं आया तो हम डर गए थे। सुजाता की आवाज रुआंसी हो गई | वापस घर क्‍यों नहीं गई | जवाब में सुजाता ने सिर झुका लिया। पुष्पा दीदी – हाँ यही नाम था टेबल के पीछे वाली दीदी का – समझ गईं कि वहीं पुरानी कहानी होगी। शराब पीता बाप, झगड़ालू सौतेली माँ, चार-पाँच छोटे भाई-बहन, पड़ोसी की नजर और घर में पैसों की कमी। क्यों इतने सालों में भी गाँवों में खुशहाली नहीं आई है? इस तरह से क्‍यों घरों की सुजाता को निकलना पड़ता है? ये तो अच्छा ही हुआ कि उसका वो गिरिजा भैया नहीं आया। पता नहीं कहाँ-कहाँ बिकती हुई, वो कहाँ पहुंच जाती। पुष्पा ने एक लम्बी सांस ली।
पुष्पा दीदी ने रजिस्टर निकाला और नाम और पता लिख लिया। सुजाता रंग गोरा, काले बाल, बस ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। नाम, हस्ताक्षर कर सकती है। स्टेशन के पास पाई गई, गाँव का नाम बसंतपुर। पिता का नाम – अवधूत, माँ का नाम – लछमी। कल तुम्हें एक चिट्ठी देंगे। तुम उनको लिखो कि वो तुम्हें यहाँ आकर ले जाएं। ऊपर एक मंजिली कमरे में भेज दिया सरोज के साथ। सरोज सांवली थी लेकिन आँखें बटन के जैसे चमक रही थी। मैं चार महीनों से यहाँ हूँ। पोस्टकार्ड घर लिख दिया था। थाने से चिट्ठी गई लेकिन अभी तक लेने कोई नहीं आया | अब शायद कोई नहीं आएगा। चिट्ठी तो गाँव में मिलती ही नहीं। दो हफ्ते में एक बार डाक चाचा आते हैं – मरियल-सी साईकल पर। पता नहीं उनके थेले में हमारा पोस्टकार्ड था भी या नहीं। सुजाता उसकी कोई बात नहीं सुन पा रही थी। उसे जोरों की भूख लग आई थी। थोड़ा खाना लाकर दे दिया सरोज ने। दाल, भात और कद्दू की बिना मसालेवाली सब्जी |

और फिर सरोज की मदद से ही उसने एक चिट्ठी लिखी। बापू के नाम। हमें आकर ले जाओ। नारी निकेतन में हैं हम। टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखी चिट्ठी क्या बापू पढ़ लेगा? क्‍या अम्मा उसे लाने भेजेगी? हमेशा कहती थी कि जी का जंजाल है वो। शादी ब्याह का खर्च कौन उठाए? अच्छा एक बात बताओ कि क्‍या हम गरीबों को सपने देखने का भी हक नहीं है? हमेशा एक किल्लत ही रहती है – हम ये नहीं कर सकते, वो नहीं कर सकते। सुजाता ने एक लम्बी सांस ली। बस यही बचा था – केवल सांस ही अपनी थी।

नारी निकेतन में करीब चालीस लड़कियाँ थी। सबकी कहानी एक-सी मिलती जुलती। कोई मार के डर से, कोई सपनों के डर से, कोई बड़ी उम्र की और कोई उसके जैसी। सुबह उठो, कमरा साफ करो, प्रार्थना करो। एक आदत सी बनती जा रही थी। सुजाता पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन सोचती रहती थी। बिल्डिंग के चारों तरफ तार लगे थे। अपने कमरे की खिड़की से दिखते थे। कुछ घास और बेतरतीब जंगली फूल। खुशहाली के नाम पर इतना ही था इस नारी निकेतन में। कुछ लोगों का अच्छा रोब था यहाँ | ऊंची आवाज में गपियाती, बतियाती ऐसा लगता था कि उन्हें दुनियां का कोई गम ही नहीं है। जैसे सब कुछ उनके इशारे पर ही चलता है। उन्होंने शायद अपने सपनों से समझौता कर लिया हो। जब नरक में ही रहना है तो खुशी से रहो।

कल पुष्पा दीदी ने सबको एक कमरे में बुलाया था। सुनते हैं हर शुक्रवार को वो बातें करती थीं सबसे। बाकी लोगों को पता ही था। केवल सुजाता ही नई थी और एक गंगा भी। गंगा गुमसुम रहती थी। सुजाता भी सकुचाहट में कुछ पूछ नहीं पाती थी उससे। क्‍या हुआ होगा उसके साथ।

आज सुबह से ही नारी निकेतन में हलचल थी। पुष्पा दीदी ने कहा था कि कोई बड़ी मैडम आ रही हैं। उनसे ठीक से बात करना। ठीक से जवाब देना। सुबह के बारह बजे आईं मैडम | थोड़ी भारी भरकम, लेकिन सुंदर गोल चेहरा । कमरे में सभी दरी बिछाकर बैठी थी। सुजाता, गंगा, सुषमा और भी न जाने कौन-कौन। धीरे-धीरे बातचीत शुरू हुई। चिट्ठी भेजी है। कोई लेने नहीं आया तो किसी के साथ बाद में भेजेंगे। दो-तीन महीने तो लग ही जाते हैं। बाकी आप लोग क्‍या कर सकते हो। कुछ काम? सिलाई? मसाला बनाना? हाँ मैं पापड़ बना सकती हूँ। मैं गरम मोजे। मैं कढ़ाई की चादर | मैं फूलों की माला। पेपर कटिंग के सामान और मिली-जुली आवाजें आने लगी। कमरे में गहमा-गहमी फैल गई छोटी-छोटी मुस्कुराहटों के साथ।

सुजाता इतने दिनों में पहली बार मुस्कुराई। मेरे जीवन का भी शायद कोई छोटा-सा मतलब है। उसका गुस्सा न जाने कहाँ छूमंतर हो रहा था। बापू से चिट्ठी की बात मन के कोने में जमा हो रही थी। दादी से कहानियों में सुनती आई थी कि भगवान कहीं न कहीं न्याय करता है। कंस को मारा था न कृष्ण ने और रावण को राम ने। मन अगर हार न माने तो कहीं भी इंद्रधनुष बन सकता है। ये भी दादी कहती थी। वो अब यहीं रहेगी, मैडम ने एक रास्ता बताया है। अपने हाथ में कमाई है। कुछ कर लेगी। हाँ, अब वो किसी चिट्ठी का भी इंतजार नहीं करेगी।

डॉ. अमिता प्रसाद

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