अतिथि एक दिन का
अच्छी भली सो रही थी और सपनों में ,पर्वतों के पार दूर कहीं क्षितिज पर सैर कर रही थी कि अचानक ही धीमे से तेज … और भी तेज होती “खट – खट” की आवाज़ ने आराम करती हुई पलकों को जबरदस्ती खोल ही दिया ।
मैं भी किसी प्रकार उनींदी पलकों को खुला रखने का प्रयास करती सी दरवाज़े की तरफ बढ़ चली ,”कौन है भई ? इतनी सुबह – सुबह किसी के घर कोई आता है क्या ? ”
दरवाज़े को खोलती मैं वहीं पड़ी कुरसी पर बैठ गयी ,”आ जा भई ,अब बैठ भी जा और अपना नाम ,काम सब बता ही दे ।”
सामने बड़ी ही आकर्षक परन्तु प्रौढ़ छवि खड़ी दिखाई दे रही थी । अरे हाँ ! बड़ी ही मनमोहिनी मुस्कान भी छाई थी उस प्रभावित करते चेहरे पर ,”बैठती हूँ बेटे परन्तु तुम अपनी आँखें तो खोलो … बन्द होती पलकों से तो तुम कुछ स्पष्ट देख भी नहीं पाओगी और न जाने कितने विचार आ कर मेरी छवि धूमिल कर ओझिल कर देंगे “, अब उसकी हँसी थोड़ी और मुखर हो गयी ।
अब मैंने सप्रयास स्वयं को और भी चैतन्य किया और उस को और भी ध्यान से देखने लगी । उसके केशों की प्रत्येक लट अपने स्थान पर एकदम दुरुस्त थी , जैसे किसी ने उनको किसी क्रीम से व्यस्थित कर रखा हो । केशों को विभक्त करती माँग भी कितनी सीधी सी थी जैसे आप ,तुम ,तुम्हारा ,तू किसको क्या बोलना है पहले से ही पता हो । उन्नत मस्तक गर्व से चमक रहा था परन्तु कहीं भी गुमान की झलक भी नहीं थी । आहा ! आँखें कितनी ममता से भरी … जैसे पलकों की बाँहें फैला सबको अपने आँचल में ही समेट लेंगी । उसके अधर भी कितने सहज भाव से प्रत्येक भाषा ,ज़ुबान ,बोली ,लैंग्वेज सब बरसती फुहारों से अविरल स्रवित कर रहे थे ।
उसके व्यक्तित्व की गरिमा से प्रभावित हो कर स्वयं को संयत करती सी मैं अपने इस एक दिन के गरिमामयी अतिथि के स्वागत को ततपर हो उठी ,”आइये पहले आप यहाँ बैठिए तो … चाय – कॉफी क्या पसंद करेंगी … या फिर कुछ ठंडा लेंगी … नाश्ता साथ में ही करते हैं … ”
वह विहँस पड़ीं,”अरे वाह ! एक दिन के अतिथि ,वह भी बिना बुलाया … इतना सत्कार कर रही हो ! तुम सब तो कल खूब ठहाके लगा रहे थे कि पूरे साल जिसको भुलाये रखा ,सिर्फ एक दिन के लिये उसको याद क्या करना … या जो ढ़ंग से बोल भी नहीं पाते ,वो क्यों कोई दिवस मना कर पर्व जैसी महत्ता दें … फिर मेरी पसंद – नापसंद को इतना महत्व देना ,कुछ विचित्र नहीं लग रहा क्या ? ”
मैं उनकी मित्र की तरह छेड़ने वाली बातों में उलझ कर फिर से उनके पास ही बैठ गयी ,”आप ऐसा क्यों कह रही हैं … मैं तो आपसे आज पहली बार मिली हूँ ,आपका नाम तक नहीं जानती ,फिर मैं आपको कुछ भी गलत्त कैसे बोल सकती हूँ … कल आप कब मिली थीं मुझसे ,मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा ।”
“यही तो विद्रूप है कि मैं सदैव तुम्हारे साथ रहती हूँ, परन्तु तुम पहचानती ही नहीं हो । मैं हिंदी हूँ … कल ही तो तुमने मेरा दिवस – हिंदी दिवस मनाया था और मजाक बनाया था कि जो साल भर कभी हिंदी नहीं बोलते उनको मुबारक … जो उनहत्तर ,उन्यासी ,नवासी में अंतर नहीं समझते उनको हिंदी दिवस मुबारक … । मेरी आज की स्थिति एक ही दिन में तो आयी नहीं है । जैसे एक – एक दिन कर के मेरा चलन कम हुआ है वैसे ही एक – एक दिन कर के ही मुझको मेरी पूर्वस्थिति वापस मिलेगी “,वह स्नेह से मेरे हाथों को सहलाती हुई उठ खड़ी हुई ।
अपने विचारों में उलझी मैंने जब सामने देखा ,तब वहाँ जाते हुए कदमों का एक धुंधला साया भर था । सम्भवतः मुझे उलझनों में घिरा देख मेरी पहचान मुझ से हाथ छुड़ा कर कहीं दूर जाने लगी थी ।
मैं एक दृढनिश्चय के साथ उठ खड़ी हुई और चल दी अपनी मातृभाषा के आँचल में हिंदी दिवस ,हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़े के सितारे टाँकने !
निवेदिता श्रीवास्तव ‘निवी’