दिनकर जी की जयंती पर विशेष

दिनकर जी की जयंती पर विशेष

हिंदी में दिनकर-काव्य की राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रीय चेतना पर विद्वानों और शोधकर्ताओं ने विविध कोणों से प्रकाश डाला है। लेकिन इस राष्ट्रीय चेतना की आधारभूमि उनकी युग चेतना का मूल्यांकन कभी भी गंभीर विवेचना का विषय नहीं बनाया गया।इस युग चेतना की व्याख्या, परिज्ञान और मूल्यांकन के बिना राष्ट्रीय चेतना का विवेचन केवल पुनरूत्थानवादी विवेचन बनकर रह जाता है। आज के परिवेश में यह पुनरूत्थान कितना घातक हो रहा है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

दिनकर ने रामायण, महाभारत, राम, कृष्ण पर गहराई और विस्तार से लिखा है। गौतम बुद्ध और गांधी पर लिखा है। इकबाल, रवींद्रनाथ टैगोर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद पर भी लिखा है। अपने समकालीन नेताओं में जवाहरलाल नेहरू पर’लोकदेव नेहरू’ नामक एक पूरी पुस्तक ही लिखी है। जयप्रकाश नारायण और लोहिया पर भी लिखा है। अपने अन्य समकालीन साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के संस्मरण भी लिखें है।

कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि यह ध्यान से देखने और विवेचित करने की आवश्यकता है कि इन सारे प्रकरणों और तथ्यों को अपने काव्य में वर्णित और विवेचित करने के पीछे उनकी दृष्टि क्या थी? किस वैचारिक दृष्टिकोण से वह उनका मूल्यांकन कर रहे थे? इस दृष्टिकोण को उनकी युग चेतना किस हद तक प्रभावित कर रही है? प्राचीन युग की घटनाओं के मूल्यांकन को उनका समकालीन स्वाधीनता आंदोलन कैसे और किस आधार पर प्रभावित कर रहा था? इन प्रश्नों का उत्तर देकर दिनकर काव्य की राष्ट्रीय चेतना को शुद्ध और प्रमाणित किया गया है। यही कारण है कि आज राष्ट्रीयता और युगचेतना के संदर्भ में दिनकर काव्य का मूल्यांकन आवश्यक हो गया था।

आज जीवन और समाज;साहित्य के विस्तृत क्षेत्र में पुनरूत्थानवादी, साम्प्रदायिक एवं अलगाववादी शक्तियां अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए नये ढंग से सिर उठा रही है। वे इस समय दिनकर जैसे आच्छादक और जनप्रिय कवि के काव्य में संनिहित विचारों और भावों को अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति का साधन बनाने के प्रयत्न में सन्नद्ध दिख रहे है। इसलिए दिनकर काव्य का मूल्यांकन इस समय और भी अपरिहार्य हो उठा है।
इस समय तमाम ऐसे विवेचक और विचारक सामने आ रहे है जो जोर देकर यह कह रहे है कि भारत एक राष्ट्र है ही नहीं, यह एक उपमहाद्वीप है। इसमें बहुत सी भाषाएँ बोलने वाली विविध प्रकार की राष्ट्रीयतायें है, तमाम धर्म और मजहब है। अंग्रेजों ने थोड़े समय के लिए यहाँ आकर ‘एकराष्ट्र’ की भावना पैदा की थी लेकिन उनके जाते ही पुनः इस राष्ट्रीयता की भावना का लोप हो गया। दिनकर की राष्ट्रीयता का विवेचन- विश्लेषण करते समय कूटनीतिक कारणों से फैलायी जा रही इन भ्रान्त धारणाओं का निरास और खण्डन आवश्यक हो गया है।

इतिहास, समाज, संस्कृति, साहित्य किस प्रकार आंतरिक धरातल पर परस्पर अनुस्यूत रहते है। दिनकर काव्य के यथार्थ मूल्यांकन के प्रयत्न में इन समस्याओं का भी विविध प्रकार से विवेचन किया गया है। रचना का युग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रचना को प्रभावित ही नहीं करता अपितु मार्गदर्शन भी करता है। दिनकर काव्य की प्रमुख प्रवृतियों पर उनकी युगीन पृष्ठभूमि का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है जिसे’चक्रवाल’की भूमिका में दिनकर ने स्वयं सकारा भी है।

राष्ट्रीयता एक समष्टिगत चेतना है जो मनुष्य को इसकी व्यक्तिक सत्ता से आगे और उपर ले जाकर व्यापक जनसमुदाय और राष्ट्र से जोड़ के देती है। ‘हिमालय’ में दिनकर की राष्ट्रीय चेतना सहज मुखर है। दिनकर की दृष्टि यथार्थवादी है। ततकालीन समाज के यथार्थ से कवि हृदय स्वयं को पृथक नहीं कर पाता’ कहीं दूध में श्वान नहा रहे है और कहीं बच्चे दूध को तड़प रहे हैं’जैसे यथार्थ ने दिनकर की रचना को विचारप्रधान भी बना दिया। दिनकर की राष्ट्रीयता की मूल आत्मा धार्मिक एकता तथा कोरी सांस्कृतिक एकता न होकर शोषण मुक्त, न्याय समतामूलक सामाजिक व्यवस्था में निहित है, जहाँ स्वतंत्रता और सम्मान सुलभ हो। दिनकर ने स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय, आर्थिक स्वतंत्रता एवं पूंजीवाद या सत्तावादी शोषकों से मुक्ति को राष्ट्रीयता का आधारशिला स्वीकार किया है। “रेणुका” और “हुंकार” इसके ज्वलंत उदाहरण है। दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में वर्तमान समस्याओं पर दृष्टि है। राष्ट्र प्रेम और आजादी की आकांक्षा उनकी कविताओं की आधारशिला है। अपने समय में राष्ट्र कवि के नाम से प्रख्यात रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का बहुप्रतिष्ठित काव्य “कुरुक्षेत्र” युद्ध और अनीति की सार्वजनीन समस्याओं का मानवीय विवेचन है।

दिनकर की रचनाओं में दासता की पीड़ा, हृदय की ज्वाला, दासता के विरुद्ध विद्रोह की भावना सहित क्रांति का उद्घोष भी है। पीड़ित मानवता और दलित समाज के प्रति सहानुभूति दिनकर की युगचेतना के महत्वपूर्ण आधार स्तम्भों में से है। दिनकर की राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीयता पर मानवतावाद में परिणत होने का प्रयास करती है।

प्रत्येक स्वाधीन एवं स्वाभिमानी राष्ट्र अपने अतीत गौरव का सर्वेक्षण करता रहा है। दिनकर जी ने अतीत के उदात्त मूल्यों एवं दृष्टिकोणों को नवयुग के अनुरूप प्रगतिशील आभा प्रदान करने का प्रयास किया है। दिनकर की राष्ट्रीय चेतना, संस्कृति एवं इतिहास के संदर्भों से संपृक्त तथा अतीत गौरव से अनुस्यूत होकर वर्तमान राष्ट्र जीवन की समस्याओं के समाधान का अभूतपूर्व प्रयास है।

दिनकर की युगचेतना का एक सबल पक्ष यह भी है कि अपने समकालीन युग जीवन के अनेक सत्यों सहित अनेक प्रश्नों के समाधान का दिनकर ने “कुरुक्षेत्र” में अभूतपूर्व प्रयास किया है।

( उपर्युक्त आलेख लेखक के शोधग्रंथ ” राष्ट्रीयता और युग चेतना के विशेष संदर्भ में दिनकर काव्य का मूल्यांकन “से उद्धृत है)

डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन
उत्तर प्रदेश

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