“रामधारी सिंह “दिनकर”की काव्यगत विशेषताएँ”
स्वतंत्रता से पहले एक विद्रोही कवि और स्वतंत्रता के उपरांत एक राष्ट्रकवि के रूप में स्थापित माने जाने वाले
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि, लेखक और निबंधकार हैं।जहाँ उनकी कविताएँ वीर रस, ओज, क्रांति और विद्रोह के स्वरों से भरी हैं, वहीं उनके काव्य में श्रृंगार,सौंदर्य और कोमलता की भी भरमार है। एक तरफ उन्होंने देश के सामाजिक, आर्थिक मुद्दों पर रचनाएँ कीं तो दूसरी तरफ एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को प्रखर और ओजपूर्ण शब्दों का जामा भी पहनाया। उनकी कृतियों में “कुरुक्षेत्र”जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की कृति है,”रश्मिरथी”और “हुंकार”जैसी रचनाएँ ओज और वीरता से भरपूर हैं,लेकिन ज्ञानपीठ से सम्मानित “उर्वशी” मानवीय प्रेम, वासना और संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती है।दो भिन्न
धुरियों के बीच शब्दों की अद्भुत रेखा खींचती उनकी रचनाओं की काव्यगत विशेषताएँ अतुलनीय और अद्वितीय हैं।
दिनकर जी का नाम आते ही उनकी जो कृतियाँ नजर के सामने उभर कर आती हैं,वे हैं- “रश्मिरथी”,”कुरुक्षेत्र” जैसी रचनाएँ या “जनतंत्र का जन्म” “रोटी और स्वाधीनता”, “गांधी”जैसी कविताएँ।दिनकर जी राष्ट्रकवि के रूप में जाने जाते हैं और अपनी ओजपूर्ण कविताओं में राष्ट्रीयता के स्वरों को पिरोते हुए नजर आते हैं। इसका मुख्य कारण है कि जब उन्होंने लेखन आरंभ किया, तब समस्त भारत आजादी के आंदोलन से उद्वेलित था। उसी भावना में अपने स्वर मिलाते हुए दिनकर जी ने अपनी कविताओं द्वारा लोगों को जागरूक और जागृत करने का प्रयत्न किया। परंतु, दिनकर जी महज राष्ट्रवादी कवि ही नहीं थे। अपनी बनी हुई छवि से हटकर भी उन्होंने कई ऐसी कविताएँ लिखीं,जो प्रेम,कोमलता, सौंदर्य आदि कोमल भावनाएँ दर्शाती हैं।उन दिनों हिंदी साहित्य का ‘छायावाद’ लगभग अंतिम चरण में था और भगवती शर्मा, हरिवंश राय बच्चन जैसे कवि मस्ती, प्रेम, उन्माद की एक अद्भुत तरंग अपनी कविताओं में उभार रहे थे। दिनकर जी ने भी ऐसी कई कविताएँ लिखीं, जिनकी पंक्तियों में राधा और कृष्ण की छवि अनायास दिख जाती है–
“दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े सांझ अआल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छुपकर सुनती है,
‘हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिंधना’,यों मन में गुनती है
वह गाता, पर किस वेग से
फूल रहा इसका अंतर है
गीत,अगीत कौन सुंदर है?” (“गीत-अगीत” कविता)
या फिर “बालिका से वधु” कविता के श्रृंगार की छोटी-छोटी वस्तुओं भरी ये पँक्तियाँ–
“माथे में सिंदूर पर छोटी
दो बिंदी चमचम सी
पपनी पर आँसू की बूँदें
मोती-सी,शबनम-सी
लदी हुई कलियों में मादक
टहनी एक नरम सी
यौवन की विनती सी भोली,
गुमसुम खड़ी शरम सी…”
दिनकर जी पंक्तियों में रहस्यवाद भी देखने को मिलता है। वैसे जहां छायावाद हो,रहस्य का होना स्वाभाविक ही है क्योंकि कवि का प्रेमी-मन कभी खुलकर प्रकट नहीं होता, एक रहस्यमय मन जैसा प्रतीत होने लगता है। उनकी कविता “रहस्य”की या “प्रतीक्षा” की ये पँक्तियाँ इसकी सहज अभिव्यक्ति हैं–
“तुम समझोगे बात हमारी ?
उडु-पुंजों के कुंज सघन में
भूल गया मैं पंथ गगन में
जगे-जगे आकुल पलकों में
बीत गई कल रात हमारी..” (‘रहस्य’)
अयि संगिनी सुनसान की?
मन में मिलन की आस है
दृग में दरस की प्यास है
पर, ढूंढता फिरता जिसे
उसका पता मिलता नहीं
झूठे बनी धरती बड़ी
झूठे वृहद आकाश है,
मिलती नहीं जग में कहीं
प्रतिमा ह्रदय के गान की
अयि संगिनी सुनसान की”(‘ प्रतीक्षा’)
इसके अतिरिक्त,उनकी कृति “उर्वशी” में भी पुरुरवा पूछता है–
“रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं,तो और क्या है?
स्नेह का सौंदर्य को उपहार
रस-चुंबन नहीं,तो और क्या है?”
दिनकर जी की कविताओं की ये पँक्तियाँ बताती हैं कि कवि-हृदय में राष्ट्रीयता के अतिरिक्त एक प्रेमी व्यक्ति भी विद्यमान था,जिसने समय-समय पर अपनी कविताओं में मधुर और श्रृंगार रस उड़ेला।देखा जाए तो, दिनकर जी सुकुमार कल्पनाओं से भरी पँक्तियाँ खूब लिखते थे। उनके काव्य-ग्रंथ “रसवंती” की कविताएँ और “उर्वशी” का काव्य तो प्रेम,सौंदर्य और श्रृंगार का खजाना हैं।
दिनकर जी की कृतियों में प्रगतिवादी विचारों की झलक भी भरपूर मिलती है। “हिमालय”, “तांडव”, “बोधिसत्व”, “पाटलिपुत्र की गंगा” आदि उनकी रचनाएँ प्रगतिवादी विचारधारा को ही उजागर करती हैं। हिंदी साहित्य में छायावाद के बाद प्रगतिवाद का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण रहा।शोषित मजदूर,जर्जर होती कृषि व्यवस्था,उजड़ते खलिहानों का अत्यंत मार्मिक चित्रण दिनकर जी की रचनाओं में दिखता है। वह अपनी कविताओं के जरिए एक क्रांति का आवाहन करते हैं–
“सूखी रोटी खाएगा जब खेत में धर कर हल
तब दूँगी मैं तृप्ति उसे बनकर लोटे का गंगाजल”
दिनकर जी की कृतियों में राष्ट्रीय चेतना उनके समय के अन्य राष्ट्रवादी कवियों,जैसे मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि से भिन्न है। उस समय क्रांतिकारी गतिविधियाँ उग्र रूप ले रही थीं, देश के विभिन्न हिस्सों में किसान आंदोलन छेड़ रहे थे और भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी देश की पीढ़ियों में घर बना रहे थे।ऐसे में, दिनकर जी की कृतियों में उग्र राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति का प्रबल होना स्वाभाविक ही था। उनका उग्र राष्ट्रवाद कविता में उत्तेजक भावों और आवेगों के साथ उत्तेजनापूर्ण भाषा में व्यक्त हुआ है–
“पूछेगा बूढ़ा विधाता तो मैं कहूँगा
हाँ, तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया”
सृष्टि को मिटाने की बात तो वह कहते तो हैं, लेकिन, उनकी कविताओं में विकल्प की रचना नहीं मिलती। उनकी कविताओं में शोषण और उत्पीड़न का दुख मिलता है, परंतु,अन्याय के खिलाफ संघर्ष में जनता की भूमिका पंक्तियों में नहीं दिखाई देती–
“रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन, भीम वीर”(‘हिमालय’)
उनका “प्यारा स्वदेश” गुलाम तो है ही, साथ में शोषित भी है–
“कितनी मणियाँ लुट गयीं!मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष
तू ध्यानमग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश”–
उनकी रचनाओं में स्वदेश को युवा पीढ़ी भी अपनी कुर्बानी से मुक्त करवा सकती है।कुछ ऐसी ही भावना इन पँक्तियों में दिखाई देती है—
“नए सुरों थिंजनी बजा रही जवानियाँ
लहू में तैर-तैर के नहा रही जवानियाँ”
दिनकर स्वच्छंदतावाद के कवि कहे जाते हैं और बंधनों, रूढ़ियों को तोड़ना उनकी कविताओं की विशेषता है। लेकिन, व्यक्ति स्वातंत्र्य उनके चिंतन में नहीं दिखाई देता। कवि की स्वच्छंदता की भावना और चेतना अद्भुत कल्पना प्रवण,अव्यावहारिक तथा मिथकीय बिम्बों, प्रतीकों,ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के माध्यम से व्यक्त होती हैं। दिनकर की काव्य चेतना में विविधता और विषय वस्तु की दृष्टि से बहुलता दिखाई देती है।उसमें देशभक्ति से परिपूर्ण राष्ट्रीय चेतना है और विषमता को मिटाकर सामाजिक समानता स्थापित करने की भावना है। ईश्वर को चुनौती देने वाले वाला कवि जब भीष्म जैसे महारथी को केंद्र में रखकर रचे काव्य “कुरुक्षेत्र” में पूछता है–
“धर्म का दीपक, दया का दीप
कब जलेगा,कब जलेगा
विश्व में भगवान” तो कवि की अशक्तता और अधीरता का बोध होता है।
दिनकर की पँक्तियों में धरती के प्रति आकर्षण दिखता है, स्वर्ग के प्रति नहीं। दिनकर जी वस्तुओं पर कम, अपने मन पर पड़े प्रभाव को कविता के रूप में अदम्य भाषा शैली में बहुत प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करते हैं–
“व्योम कुंजो की परी अभिकल्प ने
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं
पा न सकती मृत्ति उड़कर स्वप्न को
युक्ति हो तो आ बसा अलका यहीं” (‘ रेणुका’)
दिनकर जी पर दो प्रमुख कवियों का गहरा प्रभाव रहा है और ये वह स्वयं स्वीकारते हैं। एक तो, श्री रविंद्रनाथ ठाकुर, जिनके नाम की सारे संसार में धूम थी और दूसरे थे, सर मोहम्मद इकबाल,जिन्हें नोबेल पुरस्कार तो नहीं मिला पर जिनकी कविताएँ पाठकों के रुधिर में आग की तरंगे उठाती थीं और मन के भीतर चिंतन का द्वार खोलती थीं। हालांकि रविंद्रनाथ ठाकुर जी एवं इकबाल- दोनों दो भिन्न ध्रुवों के कवि थे। दिनकर जी कविताओं में जो द्वंद्व के भाव दिखते हैं, वे शायद इन्हीं विरोधी विचारधाराओं की वजह से रहे होंगे। लक्ष्मीशंकर जैन जी दिनकर जी के विषय में लिखते हैं -“दिनकर जी की कविता का विकास आदि से अंत तक द्वन्द्वों से जूझने की कथा है–द्वन्द्व, जो प्रबुद्ध-चेता कवि को चिंतन और भावना के क्षेत्रों में प्रत्येक स्तर पर घेरते हैं, फरमाते हैं,विकल करते हैं और चुनौती देकर उसे साधना एवं समाधान के प्रगति-पथ पर ले चलते हैं।”
सच ही दिनकर जी की कृतियों के अध्ययन से लगता है कि द्वन्द्व दिनकर जी के जीवन के स्वास-प्रश्वास रहे हैं। “रेणुका”(1935) में सहज रचना शिल्प और जन सुबोध, सामयिक कथ्य का छायावाद की अआभिजात्य शैली और रहस्यात्मक कथ्य से द्वन्द्व, “हुंकार” (1938) से “कुरुक्षेत्र” के क्रांतिकारी आवाहन का द्वंद, स्वयं “कुरुक्षेत्र” में द्वंद्व है- युद्ध और शांति का, हिंसा और अहिंसा का, प्रवृत्ति और निवृत्ति का,विज्ञान और अभिज्ञान का। “द्वंदगीत”(1940) द्वन्द्व की अभिधा अभिव्यक्ति तो है ही, “रश्मिरथी”( 1952) के प्रतिपक्ष में खड़ी होती है “उर्वशी” (1961)। स्वयं दिनकर जी कहते हैं, “मुझे राष्ट्रीयता, क्रांति और गर्जन तर्जन की कविताएँ लिखते देखकर मेरे भीतर बैठे हुए रविंद्रनाथ दुखी होते थे और संकेतों में कहते थे कि तू जिस भूमि पर काम कर रहा है,वह काव्य के असली स्रोतों के ठीक समीप नहीं है,तब मैं “असमय आह्वान” में “हाहाकार” में तथा अन्य कई कविताओं में अपनी किस्मत पर रोता था कि हाय,काल ने इतना कसकर मुझे ही क्यों पकड़ लिया? मेरे अंदर जो कोमल स्वप्न हैं, वे क्या भीतर मुरझाकर मर जाएँगे? उन्हें क्या शब्द बिल्कुल नहीं मिलेंगे? लेकिन शब्द इन कोमल स्वप्नों को भी मिले।”
कहते हैं, कविता कई भावनाओं को साथ लेकर चलती है। दिनकर जी के हृदय-सरोवर को रविंद्रनाथ और इकबाल ने बहुत हिलकोरा,परंतु जब वह तरंग शांत होने लगी तब उनकी कविताओं की पँक्तियाँ इलियट और उनके समकालीन कवियों से प्रभावित होने लगीं और वह नई कविता की ओर मुड़ गए। उन्होंने मुक्त छंद की कविताएँ भी खूब रचीं। वह कहते हैं, “जब मैंने देखा कि चित्रकारी बालू और कोलतार से तथा मूर्तिकारी लोहे के तारों से की जा रही है,तब मैंने भी यह मान लिया कि कविता का गद्य में लिखा जाना कोई अनुचित बात नहीं–” (आत्मकथन, संचयिता) उनकी कविता “उपदेशक” की पँक्तियाँ इस बात का उदाहरण देती हैं–
“मुजरिम होकर
मुजरिमों को सुधारने का काम,
यह भी एक स्वाँग है
और यह स्वाँग हम सभी लोग
भरते हैं..”(संचयिता)
दिनकर की कृतियों में कलापक्ष की विशेषताएँ कूट-कूट कर भरी हुई हैं। एक तरफ विविध छंदों का प्रयोग है तो दूसरी ओर छंदमुक्त कविताएँ भी उतनी ही प्रभावशाली हैं। उनकी भाषा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित लगती है। उनकी भाषा बोलचाल की भाषा से अलग परिष्कृत खड़ी बोली है। रहस्यवादी पँक्तियों में भी उनके शब्द बिल्कुल स्पष्ट हैं और उनमें मनोहारिता, ध्वन्यात्मकता और चित्रात्मकता स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं। उनकी कृतियों में अलंकार बड़े स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हुए हैं।मुख्य रूप से उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत आदि अलंकारों के प्रयोग किए हैं। वैसे तो दिनकर जी की कविताओं में वीर रस की प्रचुरता है परंतु श्रृंगार,करुणा आदि रस भी महत्व रूप से विद्यमान हैं।
कुल मिलाकर देखें, तो रामधारी सिंह दिनकर जी की कृतियों में न केवल भावनात्मक विशेषताएँ हैं बल्कि कलात्मक पक्ष भी बहुत सुदृढ़ है।हिंदी काव्य जगत में क्रांति,ओज और प्रेम के सृजक के रूप में उनका योगदान अविस्मरणीय है और उनकी काव्यगत विशेषताएँ अद्वितीय हैं। दिनकर अपने युग के प्रतिनिधि कवि और भारतीय जनजीवन के निर्भीक रचनाकार के रूप में हमेशा हिंदी साहित्य के जगत में मूर्धन्य रहेंगे।
✍️ अर्चना अनुप्रिया
दिल्ली