राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर जिन्हें हम ‘जनकवि’ और ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से भी जानतें हैं और जो बिहार ही नहीं वरन् पूरे भारत के साहित्यिक आकाश में सूर्य के समान दैदिप्यमान नक्षत्र थें, हैं और रहेंगे… यथा नाम तथा गुण…. ।
यूं तो दिनकर की ख्याति एक वीर रस के कवि के रूप में ही है जैसा कि 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भारत की हुई हार के बाद अपनी काव्य रचना ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में उन्होंने कहा :
‘कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिए प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित हैं क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
परंतु वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। काव्य के साथ उन्होंने अत्यंत सार्थक गद्य और निबंध की भी रचना की। कहा जाता है कि दिनकर का गद्य उनके दिमाग को और उनकी कविताएँ उनके दिल को प्रतिबिंबित करते हैं।
अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में उनका उत्कर्ष एक दार्शनिक के रूप में हुआ है जिसमें उन्होंने धर्म को सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र बताया है और साथ में यह भी कि संस्कृति, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है।
दिनकर जी एक बात जो सबसे ज्यादा चकित करती है वह है कि, वह कभी सीमाओं में नहीं बधें या दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वे कभी भी एक ध्रुव को पकड़ कर नहीं रहे। समय और परिस्थितियों के अनुसार कभी वह लोगों की भावनाओं को ‘क्रोध नहीं छोड़ेंगे’ जैसे बीज मंत्र से भड़काने की कोशिश करते हैं, तो कभी ‘कुरुक्षेत्र’ में वे मानवता के धर्म का उल्लेख करते दिखाई देतें हैं,
‘दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ श्रेय नहीं जीवन का,
है सद्धर्म दीप्त रख उसको हरना तिमिर भुवन का।’
साहित्य अकादमी, पद्म विभूषण, ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित इस वीर रस के कवि /दार्शनिक ने अपने खंड काव्य ‘उर्वशी’ (1961) में अपने श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति से सारी दुनिया को चौंका दिया जब पुरुरवा के माध्यम से रूपसी के आगे प्रणय निवेदन करते हुए कहलवाया,
‘मैं तुम्हारे वाण का बींधा हुआ खग,
वक्ष पर धर शीष मरना चाहता हूं।’
और जिसके लिए उन्हें 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उस क्रांतिकारी, ओजस्वी और राष्ट्रवादी कवि जिनके विषय में नामवर सिंह ने कहा कि दिनकर जी अपने समय के सचमुच सूर्य थे, जिनकी कालजयी रचनाएं अपने युग और काल की सीमाएं लांघ कर आज भी उतनी ही सार्थक और सामयिक हैं कि वे कविताओं से आगे बढ़कर लोगों की जुबान पर लोकोक्तियों की भांति चढ़ गईं हैं और गाहे बगाहे हर कविता प्रेमी उसे दुहराता ही दुहराता है, उदाहरण के तौर पर :
‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल ब्याध्
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’
या फिर
‘जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल।’
दिनकर रचित पंक्तियाँ :
‘सदियों से ठंढ़ी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज
पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’
तो बिहार के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में क्रांति गीत बन गई थी।आजादी के पहले और आजाद भारत में जनता के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ दिनकर की लेखनी आजादी के बाद लगभग एक चौथाई सदी तक हिंदी साहित्य को समृद्ध करती रहीं।
ऋचा वर्मा
पटना,बिहार