शब्द सुमन : राष्ट्रकवि के चरणों में
“मुझे क्या गर्व हो ,अपनी विभा का,
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं।
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी,
समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं।”
कौन है ऐसा स्वपरिचय देता हुआ?
अरे वह तो ,सरस्वती का वरद पुत्र,
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ नाम जिसका हुआ।
‘राम’ को धारण करने वाला पुरुष अर्थात्
आदर्शों को शब्दों में गहने वाला,
‘सिंह’ की गर्जना करता वह निर्भीक, शूरवीर अर्थात् वाणी को अंगारों पर धरने वाला,
‘दिनकर’ के ताप का प्रतिमान वह अर्थात् शब्दरश्मियों से जड़ताओं को भस्म करने वाला।
जेठ के मध्याह्न का प्रखर सूर्य वह, जो गौरव के चक्रपाद पर सवार ,
तुणीर वह साहित्य का, माँ हिंदी का उन्नत भाल।
हम सामान्य जन धन्यभाग मनाते इस माटी में जन्म लेकर,
पर कभी-कभी माटी भी धन्यभाग्य मनाती सुविज्ञ पुत्रों को जनकर।
परम तेज ,परम ओज से परिपूर्ण , माँ भारती की संतान वह,
पाकर धन्य बेगूसराय की धरती, गौतम की भूमि का अभिमान वह।
विद्यालय से संसद तक के पथ पर जो दायित्व ओढ़े चलता रहा ,
अपनी प्रखर वाणी से उद्घोष करता, जो सियासत से भी नहीं डरा।
सिंहासन डोलता, जिसके ‘कुरुक्षेत्र’ के ‘हुंकार’ से,
रसधार प्रवाहित करता ,’रसवंती’ – ‘उर्वशी’ के शीतल फुहार से।
‘रश्मिरथी’ राधेय और पुरुषार्थी परशुराम को सुनाम -मान देता जो,
स्वलेखनी से ‘संस्कृति के चार अध्याय ‘ साधता – रचता जो।
जिसने मंच पर लड़खड़ाये नेहरू को संभाल, साहित्य को सत्ता का संभालक बताया,
जिसने अपने भावों की दुल्हन को कभी शौर्य ,कभी माधुर्य से सजाया।
समुद्र किनारे गर्जना कर, जिसने जीवन को ललकार दिया,
विस्मित करते हुए सबको, महाप्रयाण के रथ पर सवार हुआ।
जिसके शब्दों की दहक, आज भी वही आँच समेटे
क्रांतिवाहिका बनी खड़ी है,
जिसके विचारों की गरिमा, आज भी प्रासंगिक बनी पड़ी है।
ज्ञानपीठ ,पद्मभूषण जैसे अलंकार क्या उस ओजस्वी को सुशोभित कर पाएँगे?
उसकी तो अक्षय शोभा तब तक है, जब तक जन -जन के कंठ उसकी कविता गाएँगे।
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड।