सौगात

सौगात

पिछले बत्तीस सालों में यहाँ बहुत कुछ बदल गया है। अपनी सेकेंड हैंड गाड़ी का दरवाजा बंद करते हुए डॉ. शुक्ला ने सोचा और फिर साँसे भरकर गाड़ी से सामान निकालने लगे। ऑफिस का बैग, जो अक्सर ही खाली होता है, टिफिन रखने वाला जूट का थैला, जो अब मटमैला हो चुका है और पानी की एक बोतल। कभी-कभी गरम पानी ले आते हैं डॉ. शुक्ला, थर्मस में। अपनी धीमी रफ्तार से चल पड़ते हैं स्टाफ रूम की तरफ। आगे से कुछ विद्यार्थी आ रहे हैं। अभिवादन करते हैं-नमस्ते हिन्दी सर। हॉ, पिछले बत्तीस साल से उनकी वही पहचान है-हिन्दी सर। जब वह इस स्कूल में नए आए थे तो मात्र बत्तीस साल के थे। गोरा रंग, लम्बा कद, आँखों पर काले रंग का चश्मा और बाएँ कलाई पर चमड़े की पट्टी वाली घड़ी। इन बत्तीस सालों में डॉ. शुक्ला में कोई परिवर्तन नहीं आया। बस इतना कि चश्मे का नंबर बढ़ गया और बाल थोडे छितरे हो गए।

पहले दिन के स्टाफ रूम की घटना बहुत अच्छे से याद है। पहुँचते ही मिल गई थीं मिसेज टिर्की। तब उनका नाम नहीं मालूम था। लंबे कद की मिसेज टिर्की ने कहा था- आप हिंदी टीचर हो, लगते नहीं हो? तो क्‍या भई हिन्दी टीचर को धोती कार्तते में आना चाहिए? पूछना चाहा था लेकिन बस मुस्कूरा भर गए थे। शायद हिन्दी की कमजोरी उन पर भी हावी हो गई थी। हिन्दी देश की आन-बान-शान है, पगड़ी की कलगी की तरह- जिसे कोई नहीं देखता, जिसका कोई अस्तित्व नहीं लेकिन वो कलगी अपनी रंग बिरंगी छटा बिखेरती ही रहती है।

स्कूल पहले हिन्दी माध्यम से चलता था — सभी विषयों की पढ़ाई हिन्दी में। फिर करीब सोलह, नहीं, अठारह साल पहले इसको बदल दिया एक अंग्रेजी मीडियम में। बच्चे फिर से आने लगे। स्कूल में अब केवल एक क्लास हिन्दी की होती है। हिन्दी पढ़ना-पढ़ाना अनिवार्यता ही समझो। अमीर घर के नकचढ़े बच्चे, मध्यम वर्ग के पढ़ाकू बच्चे, गरीब घरों के सकुचाए मेधावी बच्चे — इन सबों में एक ही बात कॉमन है – वो थी हिन्दी के प्रति उदासीनता। हिन्दी क्लास में शरारतें, झगड़े, कानाफूसी आम बात थी। एक दिन डॉ. शुक्ला को एक तरकीब सूझी। क्लास आठ की हिन्दी की क्लास थी। उन्होंने बच्चों को कहा कि आज वो नहीं पढ़ेंगे लेकिन हर बच्चा दो पंक्तियाँ पढ़ेगा और फिर उसके आगे की पंक्ति उसके बगल का साथी। बच्चों ने नानुकर की लेकिन फिर उन्हें मजा आने लगा। नवीं और दसवीं के बच्चे इतने सरल नहीं थे। उनको बोर्ड की पढ़ाई करनी थी और हिन्दी में केवल पास मार्क लाना था। फिर शुक्ला जी के उन गहन शब्दों को वो कभी इस्तेमाल भी नहीं करते थे। घर की बोली पंजाबी, तमिल, मलयालम और दोस्ती की बोली अंग्रेजी । हिन्दी बेचारी को तो घर में प्रवेश ही नहीं था। शुक्ला जी ने एक तरकीब निकाली। क्लास में जो भी पाठ्यक्रम होगा- उस पर वाद-विवाद तथा अंताक्षरी। हिन्दी में अंताक्षरी? शैतान बच्चों की तो मानों लॉटरी निकल आई।शुक्ला जी ने भी हार नहीं मानी। जब जिले में वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई तो शलभ और यामिनी को चुना उन्होंने, इस में भाग लेने के लिए और जब दोनों स्कूल के लिए कप लेकर आए तो बच्चों के जोश में कोई कमी नहीं थी। हिप-हिप हुर्रे, “हिन्दी हमारी शान” के नारों से स्कूल और क्लास रूम गूंज उठा। डॉ. शुक्ला का भी कद स्टाफ रूम में एक इंच ऊँचा हो गया। उनके इस नए तरीकों की स्टाफ मीटिंग में भी तारीफ हुई | शुक्ला जी के इस हौसले ने एक नई दृष्टि दी उनको कि अगर हिन्दी को सम्मानित होना है तो उसको घर का एक अभिन्‍न सदस्य बनना होगा। अगर सफलता पानी है तो पूरे मनोयोग से उस काम में जुटना होगा। अपने विश्वास को कभी कमजोर ना पड़ने दो।

शाम को बरसों पुरानी रूटीन का पालन करते हुए शुक्ला जी वापस जा रहे थे। ऑफिस का खाली बैग, टिफिन का झोला, पानी की खाली बोतल। स्कूल लगभग खाली था। अपनी धुन में चलते हुए अचानक एक तेज आवाज से उनकी तंद्रा टूटी। स्टाफ रूम का चपरासी भागता हुआ आ रहा था- ईमेल आया है, प्रिसिंपल सर बुला रहे हैं। प्रिंसिपल से हाथ मिलाते हुए शुक्ला जी झेंप रहे थे।
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षकों में उनका नाम आया था। देश ने उनको हिन्दी प्रेम की बड़ी सौगात दी थी।

-डॉ. अमिता प्रसाद

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