हिन्दी-दिवस

हिन्दी-दिवस

तुम प्राण देश की हो “हिन्दी “पर हो तुम किस तरह उजड़ी?
किसने उजाड़ा है तुमको?
किसने संहारा है तुमको?
विलुप्त सी हो चली हो तुम
भारत धरा से विस्मृत हो कर
तुमही तो भारत मनु की सतरूपा थीं
जिसने किया था समर्पण एक दिन
भारत मनु को अपना सर्वस्य देकर
पर परतंत्रता के अमोध बाणों ने
भेदा हो तुम्हें जैसे रिस रिस कर
ओ! हिन्दी क्या फिर तुम सतरूपा
नहीं बन सकतीं? तम में भटके,
कुंठा विजड़ित, चिन्ता-क्रान्त
आजके एकाकी भारत-मनु की
जो अंग्रेज़ी बाणों से लहुलुहान हुआ
अपने सौभाग्यसूर्य साहित्य से
प्रभाहीन हुआ
पहले कभी अपनी विभूति से जगतगुरू बन विश्व का सिरमौर्य रहा
आज हिन्दुस्तान की उपाधि से विभूषित हो कर भी खोखला दिख रहा है यह भारत “मनु”शायद हिन्दीरूपी सतरूपा की घायल
साँसों से नीरस, हताश तो नहीं वो? यदि हाँ ऐ हिन्दी धात्री क्या तुम पुनःसतरूपा नहीं बन सकतीं? क्योंकि
क्रान्ति, शान्ति का योग तुम्हीं हो
मनमोहक तेरी माया है
मृदुल कठोर की भ्रान्ति भरी
तेरे रहस्य की काया है
जग का कौन विवेकी जो
गुणगीत न तेरे गाता हो
नीरस हृदय वह है जिसका
रहा न तुझसे नाता हो

सुधा अग्रवाल
साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

0