भाषा किसकी है?
14 सितम्बर यानी ‘हिंदी दिवस’ फिर आने वाला है। इस कोरोना महामारी में कहाँ नया बैनर बनेगा? पिछले साल के बैनर में 2019 में केवल 19 को 20 करके काम चलाया जा सकता है, पर्यावरण की दृष्टि से संसाधन भी बचेगा, दफ्तर के बड़े बाबू ने सोचा। हर साल की गिनी-चुनी प्रतियोगिताएं और करीब-करीब वही प्रतिभागी। कंप्यूटर में भी पिछले वर्ष के प्रेस नोट में ही थोड़ा सा बदलाव कर उपयोग किया जा सकता है। हाँ, इस बार पुरस्कार में नई वस्तुएं दी जा सकती हैं, चेहरे के लिए प्लास्टिक शील्ड, मास्क दस्तानों का सेट और सैनिटाइजर।
हाईस्कूल व इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। यह इसलिए विशिष्ट था क्योंकि ‘हिंदी का गढ़’ कहलाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में करीब आठ लाख विद्यार्थी हिंदी में फेल हो गये थे और करीब ढाई लाख ने हिंदी विषय की परीक्षा ही नहीं दी। फेल होने वाले छात्र हाईस्कूल में इंटरमीडिएट की तुलना में दुगुने हैं। उत्तर पुस्तिका में कई विद्यार्थियों ने आत्मविश्वास की जगह ‘कॉन्फिडेंस’ लिखा था और यात्रा की जगह अंग्रेजी का शब्द ‘सफर’ यानी भुगतना लिखा था। मैं सोचने को मजबूर हो गईं कि क्या सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, दिनकर, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद्र, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन आदि की मिट्टी की आबोहवा में इतना परिवर्तन आ गया कि आज हिंदी के साधारण शब्द भी बच्चे नहीं लिख पा रहे हैं।
आज कौन हिंदी बोलता है? अब तो गांव के स्कूलों में भी अभिवादन गुड मॉर्निंग हो गया है। यह केवल अभिवादन नहीं बल्कि गहरे सामाजिक परिवर्तन का द्योतक है। जिज्ञासा हुई कि क्या यह स्थिति केवल हिंदी की ही है या अन्य भाषाओं की भी? लेकिन इससे पहले भाषा क्या है? भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है, दिलों को जोड़ने का, ज्ञान अर्जित करने का । हजारों वर्षों में विश्व के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में मनुष्य ने अनेक भाषाएं सृजित कीं।
प्रजातियों की तरह भाषाएं भी जीवित, विलुप्त होने की कगार पर और मृत की श्रेणी में विभाजित की जाती हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि भाषाओं के विलुप्तीकरण की गति प्रजातियों के विलुप्तीकरण से भी अधिक है। प्रोफेसर डेविड हैरीसन, पेन्सिलवेनिया कॉलेज के अनुसार यह अनुमान है कि विश्व की 50 से अधिक भाषाएं इस शताब्दी के अन्त तक पूर्णतया विलुप्त हो जायेंगी। वर्तमान में कुछ भाषाएं जानने वाले केवल एक व्यक्ति ही शेष रह गये हैं। भाषाओं के विलुप्तीकरण के साथ उनमें निहित ज्ञान व संस्कृति का असीमित भण्डार भी सदैव के लिए समाप्त हो जायेगा। वर्ष 2013 में श्री गंगेश देवी के सर्वेक्षण के अनुसार गत 50 वर्षों में 220 भारतीय भाषाएं विलुप्त हो गई हैं और यह अनुमान है कि अगले 50 वर्षों में 150 भाषाएं और विलुप्त हो जायेंगी।
यथार्थ तो यह है कि हिंदी भाषा बोलने वाले, सही उच्चारण वाले, हिंदी में लिखने वाले, हिंदी के प्रकाशन पत्रिकाओं आदि और हिंदी की पुस्तकों और पत्रिकाओं को पढ़ने वालों की संख्या में भी तेजी से गिरावट हुई हैं यह भी कहा जा सकता है कि यदि पाठक होंगे तभी पुस्तकों की आवश्यकता होगी, लेकिन यह भी सही है कि जब तक उस भाषा में पुस्तक या पत्रिकाएं नहीं होंगी तो फिर पाठक कैसे होंगे? इसलिए यह आवश्यक है कि पाठक और पत्रिकाएं एक दूसरे का हाथ पकड़कर ही हिंदी भाषा को जीवित रख सकते हैं। जैसे जीवन में ऋतु, मनुष्य वातावरण, आदि सब कुछ परिवर्तनशील है वैसे ही भाषा। भाषा वस्तु नहीं है बल्कि जीवित है, जिसका स्वरूप बोलने, लिखने वालों और पढ़ने वालों के द्वारा नया रूप लेता है अच्छा या बुरा।
यह सही है कि भाषा को जीवित रखने के लिए समय-समय पर अपना स्वरूप बदलना पड़ता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण कदाचित अंग्रेजी है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में प्रत्येक वर्ष विभिन्न भाषाओं से अनेक शब्दों का समावेश किया जाता है। जनवरी 2020 तक उसमें 1000 शब्द भारतीय मूल की विभिन्न भाषाओं के भी हैं। उदाहरण स्वरूप सूर्य नमस्कार, मिर्च मसाला, नमकीन, पापड, फंडा, जुगाड़, चक्का जाम, गुलाब जामुन, वडा, चड्डी आदि। स्पष्ट है कि आम रूप से प्रयोग होने वाले शब्दों का समावेश अंग्रेजी में भी कर लिया गया है लेकिन अंग्रेजी अपना मूल स्वरूप बरकरार रखे हुए हैं, जबकि हिंदी के बारे में कदाचित यह कहना मुश्किल होगा। धीरे-धीरे चाहे टीवी हो या घर, विद्यालय हो या इंटरव्यू सब जगह ‘खिचड़ी’ भाषा चलने लगी है।
फाइलों, ब्लैकबोर्ड, सार्वजनिक पोस्टरों, होर्डिंग या भवन पर जब त्रुटिपूर्ण शब्द लिखा होता है तो यह हास्य का विषय नहीं है, वरन् चिन्ता का और गलत को शीघ्रता से सही करने के दायित्व का है। अनेक लोग गलत शब्दों को सही समझकर उपयोग करेंगे। उदाहरणस्वरूप-एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल के पास बने सार्वजनिक शौचालय पर ‘शुलभ’ शौचालय था, जबकि सही शब्द ‘सुलभ’ है। कल्पना कीजिए कि वहाँ से गुजरने वाले हजारों यात्रियों के मन में ‘शुलभ’ ही बैठ जायेगा। इसके दुष्प्रभाव का न तो आंकलन किया जा सकता है और न ही कल्पना।
भाषा तो तभी जीवित रहेगी जब लोग स्वयं उसे बोलेंगे, सीखेंगे और अपने बच्चों को भी उसे सिखायेंगे। जब लोग अपनी भाषा का उपयोग करने में हीन भावना नहीं महसूस करेंगे, वरन गर्व महसूस करेंगे क्योंकि भाषा का संबंध तो सीधे उनकी अपनी पहचान, अपने वजूद व अपनी विशिष्टता से है। यह बात तो निर्विवादित है कि मनुष्य अपना अस्तित्व, अपना एक मुट्ठी आसमान चाहता है। यदि रोजगार के लिए वह आवश्यक है तो अन्य भाषाएं भी सीखनी पड़ती हैं परन्तु अपनी मिट्टी, अपनी भाषा से जुड़े रहें, उसका उपयोग अपने घरों में, अपने परिवार में करें और उसे अपनी विरासत का अभिन्न अंग समझें।
याद रखें, हम केवल ग्लोबल ट्रस्टी हैं और हमें ऐसी पृथ्वी छोड़नी है जिससे कि भविष्य की पीढियाँ अपने अधिकार का प्रयोग कर सकें। यह अधिकार केवल भौतिक वस्तुओं, संसाधनों तक सीमित नहीं है बल्कि संस्कृति और भाषा का भी है। विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भाषा विषय दे देने से, राजभाषा बना देने से भाषाएं जीवित नहीं रह पायेंगी। हम इस बात का उत्तर दें कि भाषा किसकी है? सरकार की? माता-पिता की? विद्यालयों और शिक्षकों की? विद्यार्थियों की? नागरिकों की? या हम सबकी?
हममें से हर एक व्यक्ति को चाहे हम सरकार में हों, पत्रकारिता में हों, टीवी में हों, विद्यालय में हो या घर में हों, कामकाज के क्षेत्र में सामाजिक क्षेत्र में और व्यक्तिगत क्षेत्र में, यह उत्तर देना है कि भाषा किसकी है?
-डॉ0 अनिता भटनागर जैन
दिल्ली