नन्हा शिक्षक

नन्हा शिक्षक

लिजिए आंटी जी मुँह मीठा किजिए राज्यस्तरीय हॉकी टीम में सिलेक्ट हो गया आपका छोटू चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान और हाथ में पेड़ा का डिब्बा लिए तेज खड़ा था।

गले लगाकर शाबासी देना चाहती थी, माथा चूमने का भी मन हुआ था पर पता नहीं कौन सी अदृश्य शक्ति मुझे ऐसा करने से रोक रही थी।
याद हो आया पांच साल पहले की एक सुबह—–
ओए’ छोटू रुक ज़रा!
मैं दौड़ कर मुख्य द्वार के पास आकर आवाज लगाई।
वो डरते हुए मेरी तरफ़ मुड़ा।
बारह साल का बच्चा अपनी पैरों के नाप से बड़ा चप्पल और इस ठिठुरते ठंड में बिना स्वेटर के…. मौसम के मुँह पर तमाचा जड़ते हुए रोज सुबह पेपर के बंडल के साथ आता था….

जी आंटी,… झिझकते हुए मेरे पास आया साईकिल के पीछे न्यूज पेपर के बंडल को सम्हालते हुए क्या हुआ आंटी? वो संकुचित आवाज़ में बोला.. …
कुछ नहीं तुझसे कुछ पूछना था? साइकिल की पायडल तक तेरे पैर तो पहुंचते नहीं तो….. या तो तुम छोटी साइकिल ले लो! या थोड़े और बड़े हो जाओ तब काम कर लेना। मैं सहानुभूति जताते हुए बोली।
अरे आंटी! ये आप क्या बोल रहे हो, घर में यही एक साइकिल है। मेरे बापू की साइकिल है।
छोटी सायकिल लेने के लिए पैसा नहीं है और मैं बड़ा होने का इंतजार नहीं कर सकता वो जल्दी में बोला, मुझे अपने बेवकूफी भरे सवाल पर खीझ हो रही थी….
तुम्हें काम करने की इतनी जल्दी क्यूँ है? तेरे माँ बापू तो काम करते ही होंगे ना! क्या इतना नहीं कमा सकते कि तुम्हें थोड़ा बड़ा होने तक पाल सके?
उसके चेहरे के भाव बता रहे थे मेरा ये सवाल भी उसको अच्छा नहीं लगा।
माँ – बापू बहुत काम करते हैं आंटी,… मुझे और मेरी बहन को बहुत अच्छे से रखते हैं….. पर!थोड़ा रुक कर बोला — बापू कहते हैं कि हम तुम लोंगो को तो पाल सकते हैं तुम्हारे शौक को नहीं पाल सकते, इसलिए मैं अपने शौक पालने के लिए खुद ही काम करता हूँ….
इतनी सी उम्र में ऐसे कौन से शौक पाल रखे हैं तुमने? कि इतनी सर्द हवाओं में सुबह सुबह निकल पड़ता है?
“हॉकी” आत्मविश्वास से भरा ज़वाब दिया उसने मुझे हॉकी खेलना बहुत अच्छा लगता है और इसलिए मैं सुबह पेपर बाँटता हूँ और शाम को हमारे बाजू वाले अंकल के सब्जी दुकान में जाता हूँ।
और स्कूल?
जाता हूँ ना दोपहर की कक्षा होती है हमारी.. …..

हमारे झोपड़पट्टी के नजदीक एक बहुत बड़ा मैदान है। आपके कॉलोनी के कुछ बच्चों को, एक सर वहीं पर हॉकी सिखाते हैं मै भी उन्हीं के पास जाता हूँ सीखने के लिए ……..निःशब्द हो गई थी उनकी बात सुनकर,… कहना चाहती थी जिस महीने तेरे पास हॉकी सिखाने वाले सर को देने के लिए पैसे नहीं होंगे बताना, मुझे मै दे दूँगी पर, जब तक मेरी मन की बात जुबां तक आती, तब तक छोटू मुझे विपरित परिस्थितियों का सीढ़ी बनाकर कैसे मंज़िल तक पहुंचा जा सकता है, की पाठ पढ़ा कर आँखों से ओझल हो चुका था। उस दिन के बाद दोबारा मिला ही नहीं…

अनिता वर्मा
साहित्यकार
भिलाई छत्तीसगढ़

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