मेरे दृष्टिकोण मेंः मेरे जीवन का एक अध्याय

मेरे दृष्टिकोण मेंः मेरे जीवन का एक अध्याय

हममें से हर किसी का जीवन अनुभवों और संस्मरणों की एक किताब है,खजाना है बीते पलों का।जीवन की किताब में जिंदगानी के अलग-अलग पड़ावों से जुड़े अध्याय- कुछ पारिवारिक तो कुछ व्यवसायिक; कुछ संवेदनात्मक तो कुछ व्यवहारिकता के विषय से संबंधित।पर मैं जब अपने जीवन रूपी पुस्तक के पृष्ठों को पलटती हूंँ तो एक ऐसा अध्याय भी पाती हूँ,जिसमें अगर व्यवसायिकता है तो परिवारिकता भी; अगर व्यवहारिकता है तो संवेदनात्मकता भी। अर्थात् व्यवसायिकता, परिवारिकता, संवेदनात्मकता, व्यवहारिकता – जैसे विपरीत तत्व आपस में घुल- मिलकर मेरे जीवन के इस विशिष्ट अध्याय में रंग भरते हैं-मेरे अध्यापन से जुड़े अध्याय में, शिक्षिका की मेरी भूमिका में।

अबतक मैंने अपने जीवन के बहुमूल्य सत्रह- अट्ठारह वर्षो को विभिन्न विद्यालयों के कर्मक्षेत्र को समर्पित किया है, जिसमें निजी,अर्द्धसरकारी और सरकारी- तीनों प्रारूप के विद्यालय हैं। अलग-अलग परिवेश, अमूल्य सीखें और अनेक उतार-चढ़ाव और इन सबने मिलकर मेरे व्यक्तित्व को मांजा है,परिष्कृत किया है। वहीं दूसरी ओर मैं, मैं क्या कोई भी शिक्षक, अपनी भूमिका अदा करते -करते कब बच्चों के अंतर्मन को छू जाता है, उनके व्यक्तित्व पर एक छाप छोड़ जाता है, उनके आत्मविश्वास को एक नया रूप प्रदान कर देता है, हमेशा के लिए उनके मन -मंदिर में अपना स्थान बना लेता है- यह कई बार स्वयं मैं या दूसरा कोई शिक्षक नहीं जान पाता और मेरी दृष्टि में यही सच्चा और सार्थक मोल है- शिक्षक के दिन -प्रतिदिन से जुड़े क्रियाकलाप का , जिसे वह विद्यालय में संपादित करता है। सही अर्थों में तो यह अनमोल है।

अपने अनुभवों को बांँटना शुरू करती हूंँ,अपने पहले विद्यालय से, जो कि एक निजी विद्यालय है। दो-तीन महीने पहले जब अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर मैंने पहली बार अपनी तस्वीर डाली, तो कुछ वैसे नवयुवक-नवयुवतियों ने मुझसे संपर्क साधा,जिन्हें मैं पहचान नहीं पा रही थी। बाद में स्पष्ट हुआ कि ये तो वो बच्चे हैं, जिन्हें निजी विद्यालय में मैंने पढ़ाया था। उम्र के साथ बच्चों का रंग -रूप बदल जाता है,पर हृदय का वह स्थान नहीं ,जहांँ उसकी भावनाओं में एक शिक्षक का विशिष्ट स्थान होता है। इन बच्चों ने अपनी पहचान कराने के क्रम में अनेक वैसी बातें मुझसे बाँटी, जिसमें मेरे लिए उनकी भावनाएंँ थी, उनके व्यक्तित्व निर्माण में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेरा योगदान था। उनकी भावाभिव्यक्ति को पढ़कर मैं खुद हैरान, हर्षमिश्रित प्रसन्नता से युक्त और खुद को अपने छात्रों के लिए और अधिक समर्पित करने की भावना से प्रेरित। शब्दों में छिपे अपने छात्रों के उन अनमोल भावों को, जो मेरे लिए अप्रतिम हैं, उनकी निजता का सम्मान करते हुए हुबहू आलेख में लिख नहीं पाऊंँगी।

निजी विद्यालय के बाद जब सरकारी विद्यालयों के साथ सम्पर्क हुआ,तो व्यवस्था बिल्कुल भिन्न, निजी विद्यालय से बहुत अलग चुनौतियांँ। यहाँ किसी भी शिक्षक को वैसे बच्चों को पढ़ाना है, जिनमें से अधिकतर न तो स्वयं और न ही उनके अभिभावक शिक्षा को लेकर जागरूक होते हैं। वर्तमान समय में मैं ग्रामीण अंचल में अवस्थित एक ऐसे विद्यालय में पदस्थापित हूंँ, जो जमशेदपुर शहर से लगभग27 -28 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ की गोद में बसा मूलरूप से एक आदिवासी बहुल गांँव में अवस्थित है और जहांँ के बहुसंख्यक लोगों का जीवन- यापन चावल एवं सब्जी की खेती या पशुपालन है।बच्चें और उनके अभिभावक ग्रामीण जीवन के संस्कारों से परिपूर्ण- यथा,निश्चलता ,सादगी ईमानदारी, अनुशासन।लेकिन उनकी जीवन- शैली और शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव विद्यालय के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन कर खड़ा हो जाता है।अगर धान की बुवाई होनी है,अगर धान की कटाई होनी है -तो बच्चे कई -कई दिन विद्यालय में अनुपस्थित होना शुरू कर देते हैं।यह अनुपस्थिति महीनों में भी हो सकती है और प्रशासनिक व्यवस्था ऐसी कि छात्रों की अनुपस्थिति के लिए शिक्षकों को ही जिम्मेदार होना पड़ता है।ऐसे में एक शिक्षक के तौर पर मैं कैसी विवशता महसूस करती हूँ,इसे शब्दों में बाँध पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि एक ओर मैं बच्चों की जीवन- शैली से परिचित हो गई हूंँ, तो दूसरी ओर विद्यालय न आने से उन्हें जो क्षति होगी,उसका भी अनुमान है। खेतों में अपने परिवार के साथ काम करना उनकी मजबूरी है, विद्यालय आकर अपनी पढ़ाई करना उनकी जरूरत। इन दोनों में तालमेल बिठाने के लिए मुझे कई बार उनसे बातचीत करनी पड़ती है-हर एक से व्यक्तिगत रूप से और रास्ता निकालना पड़ता है कि कैसे वे खेती के काम के बीच विद्यालय में अपनी उपस्थिति को अधिकतम कर सकें। कई बार बातचीत के क्रम में यह भी पता चला कि वे इसलिए अनुपस्थित थे क्योंकि उन्हें अपने पशुओं को चराने के लिए ले जाना था। कई बार इसलिए भी अनुपस्थित कि घर में कोई नहीं और या तो उन्हें अपने पशुओं की देखभाल करनी थी या अपने छोटे भाई -बहन की। ऐसी परिस्थिति में मैंने यह भी सुझाव दिया कि अपने पशुओं को अच्छे से बांँध दो और पड़ोस में उनकी निगरानी के लिए बोल दो । परंतु मेरी सलाह से उलट कई बार उनकी व्यवहारिक समस्याएंँ थीं-” नहीं मैम जी, मुर्गी को कुत्ता खा जाएगा।” उनकी परेशानी सुन मैं निरुत्तर। कभी- कभी यह भी सलाह दिया, स्कूल के प्रांगण में ही लाकर अपने पशुओं को बांँध दो, परंतु ऐसा कभी हुआ नहीं। इसके पीछे बच्चों का संकोच है या कुछ और- मैं समझ नहीं पाई। छोटे भाई -बहनों की देखरेख की समस्या पर मैंने अपनी कक्षा में इतनी छूट दे रखी है कि तुम अपने अनुजों के साथ ही विद्यालय आ जाओ और उन्हें अपने बेंच में बगल में बिठा लो। यदा-कदा इस सलाह पर किसी ने अमल भी किया, परंतु व्यवहार में ज्यादा उतर नहीं पाया यह।और भी कुछ समस्याएंँ हैं। परंतु अनुपस्थिति के पीछे केवल समस्याएंँ ही नहीं है, वरन माता- पिता और छात्रों में जागरूकता का अभाव तथा बच्चों का पढ़ाई में रुझान का न होना भी प्रमुख कारणों में शामिल है। यहांँ भी मेरी कोशिश होती है कभी सहपाठियों से तो कभी पड़ोस के बच्चों से, जो मेरे ही विद्यालय में पढ़ते हैं,माता-पिता और बच्चों को संदेश भिजवा कर विद्यालय बुलवाना, काउंसलिंग कर बच्चों को विद्यालय आने के लिए प्रेरित करना। कई बार शिक्षकों का दल या विद्यालय प्रबंधन समिति के अध्यक्ष भी बच्चों के घर जाकर इनसे संपर्क साध कर नियमित रूप से विद्यालय आने का आग्रह करते हैं। हर प्रयास की सिर्फ एक ही मंजिल-छात्रों की नियमित उपस्थिति।

प्रार्थना- सभा विद्यालय में बच्चों से संपर्क साधने का सर्वोत्तम मंच है, बच्चों के बीच किसी विशिष्ट संदेश को प्रसारित करने का भी। मेरी कोशिश होती है कि मैं यहांँ भी बच्चों को नित्य दिन विद्यालय आने के लिए प्रेरित करती रहूँ। विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रतिदिन मैं समाचार वाचन का कार्य करती हूंँ ताकि बच्चे नित -दिन की खबरों से अवगत होते रहें। समाचारों का चयन करते समय मेरा लक्ष्य यह भी होता है कि यह जरिया बने बच्चों में राष्ट्र प्रेम की भावना के विकास में, सदाचार के प्रश्रय में। यूँ समाचार वाचन का कार्य तो शिक्षा विभाग के निर्देशों में शामिल है, परंतु इस कार्य को करते समय मेरा उद्देश्य होता है- औपचारिकता के बंधन से ऊपर उठ कर बच्चों के जीवन में सही मूल्यों का विकास । यथा, 19 जुलाई 2019 को उत्तर प्रदेश विधानसभा परिसर में जल संरक्षण को लेकर एक अनोखी पहल की गई थी। आदेश पारित हुआ था वहांँ के सचिवालय और विधानसभा परिसर में हर किसी को अब आधा गिलास पानी दिया जाएगा। अगर प्यास न बुझेगी तो और आधा गिलास पानी दिया जाएगा ।मैंने यह समाचार प्रार्थना सभा में बच्चों को सुनाया और साथ में उनसे यह अनुरोध किया कि हर बच्चा अपने घर में इस परंपरा को अपनाएँ। मेरा विद्यालय एक ग्रामीण समाज है,जहांँ जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है और जल स्रोत पर्याप्त, पर मेरी कोशिश थी बच्चों में सही आदत के विकास की, समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव पैदा करने की। भविष्य के ये कर्णधार, पर्यावरण और पृथ्वी के महत्वपूर्ण संकटों के प्रति संजीदा हों, इसके लिए मैंने उन्हें अफ्रीका के केपटाउन के जलसंकट की न केवल घटना सुनाई, अपितु बरामदे के श्यामपट्ट पर उस पूरी समस्या का वृतांत भी लिखा। जब चेन्नई में उत्पन्न हुए जल संकट के कारण रेलगाड़ी से जल वितरण किया गया,इस घटना को भी बच्चों के समक्ष विशिष्ट रूप से रखा। उन्हें यह बताया कि हमारा जमशेदपुर भी ड्राई जोन में है और हम इतना तो कर ही सकते हैं अपनी खाली पड़ी जमीन पर अधिक से अधिक संख्या में पेड़- पौधे लगाएंँ। कोशिश बस इतनी, यह भावी पीढ़ी पर्यावरण के संरक्षक के रूप में तैयार हो। जल- संकट की इस विश्वव्यापी समस्या को मेरे छात्र कितना ग्रहण कर पाएँ, इसको जांँचने का मेरे पास तो कोई पैमाना नहीं। परंतु इतना अवश्य हुआ एक दिन कक्षा दो में पढ़ने वाली एक छात्रा दौड़ती हुई मेरे पास आई और उसने मुझे बताया कि अमुक बच्ची ने नल को खुला छोड़ दिया है। बस यही चेतना,यही व्यवहार -परिवर्तन पारिश्रमिक है मेरे या अन्य किसी भी शिक्षक के प्रयासों का।
एक अन्य उदाहरण,भारत में प्रति वर्ष 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है, महान हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद के जन्मदिन पर। उस दिन मैं खेल दिवस और ध्यानचंद की हॉकी में महारथ का ही वर्णन नहीं करती,अपितु हिटलर के साथ जुड़े उनके जीवन के संदर्भ पर विशेष प्रकाश डालती हूंँ ताकि बच्चें “राष्ट्र से बड़ा कोई देवता नहीं”- का भाव ग्रहण कर आत्मसात कर सकें। चांँद की रोशनी में ध्यानचंद का अपने खेल का अभ्यास करना भी बताती हूंँ, ताकि लगन और एकाग्रचित्ता का प्रतिफल क्या होता है ,बच्चे समझ सकें।

सरकारी विद्यालयों में कक्षा 8 तक के बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन की व्यवस्था होती है। कई बार बच्चे भोजन लेकर अच्छी मात्रा में जूठा भी छोड़ देते हैं। इस समस्या के समाधान हेतु शिक्षक समय – समय पर बच्चों को समझाते रहते हैं। मैंने इससे ऊपर एक और उपाय सोचा। भूखमरी की समस्या और उसके आंँकड़ों के संदर्भ में न केवल प्रार्थना सभा में बात की, अपितु विद्यालय के बरामदे में लगे 2 औसत आकार के श्यामपट्ट पर मैंने भूखमरी की समस्या और उससे जुड़े आंँकड़ों को विस्तार से लिख दिया। मैं जानती हूंँ कि इसे पढ़ने वाले हर छात्र के व्यवहार में परिवर्तन आ ही गया होगा, यह निश्चित नहीं। परंतु उनकी सोच में भोजन की बर्बादी पर चिंता का बीज जो मैंने बोया, वह कभी- न- कभी अंकुरित अवश्य होगा। विद्यालय के बरामदे में लगे दोनों श्यामपट्ट का उपयोग मैं हमेशा किसी दिवस विशेष का संदेश देने हेतु, किसी महापुरुष के जन्मदिन पर उनके जीवन की मुख्य घटनाओं को लिखने के लिए या किसी प्रेरक कविता की पंक्तियों को लिखने के लिए करती हूंँ।अगर ये बातें 5 से 10 बच्चों के जीवन में भी प्रभाव छोड़ पाती हैं, तो मैं अपने इस प्रयास को सार्थक समझूंँगी ।

शिक्षक तो राष्ट्रनिर्माता होता है, इसलिए अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय करना चाहती हूँ। देश के एक महानतम शिक्षक चाणक्य भी कहकर गए हैं-” जो शिक्षा ये नहीं सिखाती कि राष्ट्र सर्वोपरि है, राष्ट्र की रक्षा सर्वोपरि है, वह शिक्षा व्यर्थ है, उसे तुरंत रोक देना चाहिए।” यहांँ इस बात का उल्लेख करके भी मुझे अपार हर्ष होगा कि वैसे गांँव में जहाँ समाचार पत्र नहीं पहुंँचता , वहांँ मेरे द्वारा या अन्य किसी शिक्षक के द्वारा ले जाए गए समाचार पत्र को बच्चें मांँग- मांँग कर ले जाते हैं , पढ़ने के लिए। कई बार तो प्रार्थना सभा से मैं अपनी कक्षा में पहुंँची तक नहीं होती हूंँ, लेकिन मेरा समाचार- पत्र कक्षा में बच्चों की डेस्क पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा होता है। खुशी होती है, चलिए एक अच्छी आदत की शुरुआत तो हुई।

मेरे विद्यालय में एक विशाल प्रांगण है, बिना चहारदीवारी के। यूंँ तो छिटपुट रूप से पेड़- पौधों का रोपण करवाती रही हूंँ मैं।परंतु पिछले वर्ष अक्टूबर-नवंबर में मैंने एक बाल उद्यान बनाने की योजना बनाई। बच्चों का भी पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। आम, अमरूद, नींबू, पपीता, कटहल के कितने ही पौधे बच्चों द्वारा रोपे गए। अनेक फूलों के पौधे भी और फिर पूरी जगह की घेराबंदी बांँस और झाड़ियों से बच्चों ने खुद की। उन ग्रामीण बच्चों के द्वारा बांँस से घेराबंदी करना और उसकी गेट बना देना- उनकी तकनीक और श्रम को देख कर मैं हतप्रभ थी। बहुत उल्लासित भी कि मेरे विद्यालय प्रांगण में भी एक विशाल हरा -भरा क्षेत्र होगा। पूरे समय बच्चों के साथ खड़ी मैं, कल्पना की ऊँची उड़ान पर थी कि कुछ सालों में मेरे बच्चों को खाने के लिए विद्यालय में तरह-तरह के फल उपलब्ध होंगे। बच्चें समय-समय पर घेराबंदी की मरम्मत करते, प्रतिदिन पौधों में पानी डालते और वनस्पति प्रेमी मैं भी कितनी बार उन्हें जा -जाकर देखती, जैसे मेरे देखने मात्र से ही वे जल्दी बड़े हो जाएंँगे। परंतु कोरोना महामारी के प्रसार के कारण मार्च के महीने में विद्यालय पूर्णरूपेण बंद हो गया और इसका दुष्प्रभाव मेरे इस हरे- भरे सपने पर भी पड़ गया। परंतु मैं कहांँ हार मारने वाली हूंँ, सामान्य परिस्थितियांँ होंगी, फिर से एक नए उद्यान का स्वप्न पूरा होगा। बच्चें पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह तो करेंगे ही, मैं भी सहायिका रहूंँगी।

बच्चों में डायन प्रथा के विरुद्ध जागृति पैदा करना, किशोरवय की लड़कियों में माहवारी से संबंधित विषयों पर चर्चा करना और बाल -विवाह के विरुद्ध उनको जगाना, घर में पढ़ाई के लिए नियमित अभ्यास करने की आदत डालना, पाठ्येत्तर क्रियाकलापों के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करना- जैसे अनेक कार्य से मेरा संबंध जुड़ जाता है। इसी क्रम में मैंने पिछले दो वर्षों से लगातार स्व -प्रयास से अखिल विश्व गायत्री परिवार, शांति कुंज, हरिद्वार के निर्देशन में आयोजित होने वाली “भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा” के आयोजकों से संपर्क साध उस दूरस्थ विद्यालय में इस परीक्षा का आयोजन करवाया।अन्य शिक्षकों ने जहांँ इसमें सहयोग तो किया ही, परीक्षा के स्थानीय आयोजकों का भी महती योगदान रहा।बच्चों की आर्थिक स्थिति के बारे में निवेदन करने पर उन्होंने अपनी पुस्तक का शुल्क घटा कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप अधिकाधिक संख्या में बच्चों ने भाग लिया और पुरस्कृत भी हुए। प्रसन्नता तो और भी तब हुई, जब पिछले वर्ष जमशेदपुर के जिला शिक्षा अधीक्षक की चिट्ठी निकली, जिसमें उन्होंने बच्चों के चरित्र निर्माण में इसके महत्व को बताते हुए सभी विद्यालयों से इस परीक्षा को आयोजित करवाने का आग्रह किया था। मेरी प्रथम नियुक्ति जिस सरकारी विद्यालय में हुई थी, वहांँ भी एक वरिष्ठ शिक्षक के प्रयास से इस परीक्षा को प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता था। कहने का तात्पर्य है कि कई ऐसे क्षेत्र होते हैं ,जहांँ सरकारी आदेश तो बाद में आता है परंतु शिक्षक अपनी रचनात्मकता से उसे सींच रहा होता है। ” सोचिए कैसी विषम परिस्थितियांँ, परंतु इसमें भी कार्य करने का जज्बा कितना ऊंँचा”- यह पंक्ति मैं अपने सभी शिक्षक -बंधुओं को समर्पित करती हूंँ, जो कठिनाइयों और नकारात्मकता का सामना करते हुए भी भावी पीढ़ी के नवनिर्माण में अनवरत लगे हुए हैं, कई बार समाज और समय से विपरीत मूल्यांकन पाकर भी।

वास्तव में किसी भी शिक्षक के कार्य को शब्दों में बांँधकर समेट देना असंभव है और अगर असंभव नहीं, तो दुसाध्य अवश्य है क्योंकि शिक्षक की सृजनात्मकता का संबंध किसी भौतिक स्वरूप से नहीं है,वरन वह तो आत्मिक तत्वों का निर्माता है। जब कक्षा में पढ़ाता शिक्षक किसी बच्चे की तबीयत जानने के लिए उसके ललाट पर अपने हाथ रख देता है, जब बच्चे द्वारा टिफिन या मध्याह्न भोजन न खाए जाने पर कारण जानना चाहता है,जब उसे प्रोत्साहित करने के लिए उसकी पीठ थपथपाता है, जब उसकी गलतियों पर फटकार लगाता है, जब उसे हतोत्साहित देख अपने वात्सल्य से उसके अंदर ऊर्जा का संचार करता है, जब उसके जीवन से जुड़े सुख -दुख को उसके जूते में ही अपने पांँव डाल कर महसूस करता है, जब अपनी मुस्कुराहट और स्नेह के रूप में अपनी सारी ऊर्जा उसे सौंप देता है- तो भला इस दुनिया का कौन सा ऐसा द्रव्य है, जो इसकी कीमत लगा सके। एक व्यक्ति,एक समाज, एक राष्ट्र के निर्माण में किसी शिक्षक की भूमिका अतुलनीय है ,अमूल्य है। मुझे गर्व है कि राष्ट्र निर्माण के पथ की राहगीर हूंँ मैं। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण के विशाल चाक के एक कोने में बैठी हुई एक कुम्हारिन- यही है मेरा विशिष्ट परिचय।

रीता रानी
शिक्षिका और साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

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