शिक्षा का उद्देश्य और नई शिक्षा नीति

शिक्षा का उद्देश्य और नई शिक्षा नीति

अच्छी पढ़ाई, अच्छा जीवन’ – ये नारा शायद सदियों से बच्चों को, उनके माता-पिता को जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा है। शिक्षा से अनेक द्वारा खुल जाते हैं; ज्ञान के, अच्छे समाज के, अच्छी नौकरी के। मानव जाति में एक जिज्ञासु प्रवृत्ति है और शायद कंद-मूल खाते हुए, गुफाओं से निकलकर गुरुकुल की सीमाएं लाँघते हुए, आधुनिक स्कूल और यूनिवर्सिटी और फिर अनेक विधाओं से शिक्षा – मानव ने हर लक्ष्मण रेखा तोड़ी है अपनी इसी जिज्ञासु प्रवृत्ति से।
कुछ लोग यह समझते हैं कि शिक्षा का मतलब है – स्कूल, कॉलेज की अच्छी डिग्री और फिर एक अच्छी नौकरी। इस “अच्छी” नौकरी से जीवन की आर्थिक स्थिति में सुधार और समाज में मान-सम्मान। लेकिन क्या शिक्षा इतनी ही सीमा में सीमित है? बहुत विशेषज्ञों का मानना है शिक्षा का मतलब समाज में शुद्ध ज्ञान को बढ़ाना, आदमी का सर्वागीण विकास करना, उसकी खोजी प्रवृत्ति को बढ़ावा देना, मानवीय मूल्यों में सुधार लाना। शिक्षा के क्षेत्र में बड़े-बड़े अनुसंधान हुए हैं – शिक्षा कब, कैसे, कितनी देनी है? क्‍या शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाना है? क्‍या केवल अच्छी शिक्षा ही मनुष्य को खुशियाँ और तरक्की दे सकती है? क्या शिक्षा और ज्ञान एक ही धरातल पर खड़े हैं?
बहुत शिक्षाविदों का मानना है कि अभी जो शिक्षा प्रणाली पूरे विश्व में लागू है वह हमारे इस दौर के औद्योगिक और नौकरीजनित समाज के लिए उपयोगी है। बच्चे स्कूल, कॉलेज जाते हैं, उनको हरेक स्तर पर टेस्ट किया जाता है और फिर उसी परीक्षा/टेस्ट के आधार पर वो डॉक्टर इंजीनीयर, प्राध्यापक, अध्यापक, अफसर, क्लर्क, फोरमैन, इत्यादि बनते हैं। एक माने में यह परीक्षाएं जरूरी हैं – चयन करने के लिए नहीं, अभ्यर्थियों को छांटने के लिए भी। कितने सपने, कितनी खुशियाँ इस ‘चयन’ की भेंट चढ़ गए हैं और लोग अनचाही जिंदगियों में बंध गए हैं। लेकिन बिना इस पद्धति के नौकरियों में चुनाव असंभव है।

तो फिर शिक्षा का उद्देश्य हुआ केवल एक अच्छी नौकरी पाना? इसी परिप्रेक्ष्य में हम भारत की नई शिक्षा नीति का विश्लेषण करते हैं। मैकाले ने सर्वप्रथम 1836 में भारत की शिक्षा नीति बनाई थी। उसका उद्देश्य सीमित था – अंग्रेजी जानने वाली एक कौम का निर्माण जो कि उनके शासन-प्रशासन में साथ दे सके। लेकिन इसी अंग्रेजी शिक्षा ने गुलाम भारत के अनेकों युवाओं के ज्ञान चक्षु खोल दिए और उन्हें पाश्चात्य दर्शन से वाकिफ कराया। 1921 में यूपी में पहला शिक्षा बोर्ड स्थापित किया गया था। भारत की आजादी के बाद हमारे संविधान में ‘शिक्षा’ को राज्य का विषय बनाया गया था। इसका मतलब था कि केंद्र का रोल सीमित रखा गया था। लेकिन 1976 में संविधान के संशोधन में इसे “समवर्ती” सूची में रख दिया गया। अभी हाल में उद्घोषित नई शिक्षा नीति एक स्वागत योग्य कदम है। 1986 की शिक्षा नीति को करीब तीन दशकों के बाद बदलते हुए इसमें मूलभूत परिवर्तन किए गए हैं। शिक्षा के ढांचे में अनेक परिवर्तन हुए हैं। शिक्षकों को नवीनतम तकनीक और शिक्षा पद्धति के लिए प्रशिक्षित करना, स्कूली और उच्च शिक्षा प्रणालियों में रूपांतकारी सुधार, नए पाठ्यक्रम, कम से कम 5वीं कक्षा तक मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई – इस नीति के कुछ मूलभूत स्तंभ हैं। उच्च शिक्षा में विषयों की विविधता, ठोस अनुसंधान संस्कृति को बढ़ावा, समय विकास कार्ड, उच्च शिक्षा में 3.5 करोड़ नई सीटों की बढ़त, इत्यादि विषयों को भी इसमें रखा गया है।
इस नई शिक्षा नीति को सभी वर्गों ने सराहा है कि यह समय की मांग के अनुसार है। छह वर्षों के अथक प्रयास के बाद यह नीति राष्ट्र के सामने रखी गई है। मूलभूत ढांचे से लेकर नए मूल्यांकन को भी अपनाया गया है इसमें। नीति में बच्चों के सर्वागीण विकास पर जोर दिया गया है। इसी विधा में ‘बाल भवन’ भी बनाए जाएंगे। राज्यों के स्तर पर “स्कूल स्टैंडर्ड ऑथिरिटी” भी बनाई जाएंगी। अगले पंद्रह सालों में कॉलेजों को स्वायत्तता दी जाएगी ताकि वो अपने पढ़ाने के विषय समय के अनुसार चुन सकें। आत्मनिर्भरता, गुणवत्ता के साथ शिक्षा नीति को लागू करना एक बड़ी चुनौती (चैलेंज) हैं। शिक्षक, प्राध्यापक, यूनिवर्सिटी क्या इसके लिए तैयार हैं? क्‍योंकि यह शिक्षा नीति ढांचे में ही परिवर्तन लाना चाहती है। अभी शिक्षा जिस तरह से दी जाती है, उसको ही बदलने का प्रयास है। अभी हमारे बच्चे क्लासरूम में रटकर पढ़ाई करते रहे हैं, अब नई शिक्षा नीति के अनुसार छठी क्लास से इन्हें प्रैक्टिकल स्किल लेना होगा, ताकि आने वाले समय के लिए वह अपने को तैयार कर सके। क्‍या केवल लिख देने से हम उसको तुरंत लागू कर पाएंगे? अभी बहुत बिंदुओं पर काम करना बाकी है। क्‍या यह भारत को नई दिशा प्रदान करेगी? इसका उत्तर तो समय ही बताएगा। पाश्चात्य देशों में उदारवादी शिक्षा है जबकि एशिया तथा पूर्वी एशियाई देशों जैसे जापान, चीन, कोरिया में बहुत ही कठिन प्रणाली के साथ शिक्षा दी जाती है। हमारे यहाँ भी एक्जाम प्रणाली बहुत ही कठिन और जटिल है और शायद इसी कारण से बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं। इस नीति में बोर्ड एक्जाम को सरल बनाने की बात भी कही गई है। एक अंग्रेजी कहावत है ‘Test of pudding is in eating’ और यह कहावत यहाँ पर भी लागू होती है कि कैसे केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इसे एक स्वरूप प्रदान करेंगी। इस नीति पर अभी संसद में चर्चा होनी बाकी है। इसे सफल करने के लिए राज्यों को भी कमर कसनी होगी। इक्कीसवीं सदी में अठारहवीं सदी के विचार शायद उतार फेंकने होंगे। यह इतना आसान कार्य नहीं है।
एक बात तो भविष्यत: खुलकर कही जा सकती है कि यह नीति समय के अनुरूप है। भारत ने अभी आत्मनिर्भरता’ को एक नया आयाम दिया है। इसके लिए बहुत जरूरी है कि हमारी शिक्षा, हमारी युवा पीढ़ी इसके लिए तैयार हो। शिक्षा कब, कैसे, किसे देनी है और कैसे उनको ग्रहण करना है – इस नई शिक्षा नीति से हम विश्वस्तरीय बनना चाह रहे हैं। भारत के युवा सक्षम हैं; आवश्यकता है उनको जागरूक, प्रबुद्ध और समय के साथ-साथ चलने को तैयार करने की | इस काम में रुकावटें भी हैं, ‘कैसे’ का रोडमैप भी अभी धुंधला ही है। क्या केवल नीति के बदलाव से जमीनी स्तर बदल जाएगा? सरकारी स्कूल और सरकारी कॉलेज बदलाव की लहर को कैसे अपनाएंगे – यह एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है जिस पर बहस जारी है। और भी कई सवाल हैं जैसे इनके लिए साधन, वित्त कहाँ से आएंगे और राज्यों की भूमिका कितनी और कैसी होगी? समाज के पिछड़े वर्ग, को क्या इस नीति से न्याय मिल पाएगा? शिक्षा के दो महत्वपूर्ण अंग हैं – एक शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति और दूसरा जीवनयापन और जीवन अर्चन के लिए छात्रों / छात्राओं को तैयार करना। अभी बहुत मुद्दे उठाए जा रहे हैं कि क्‍या यह नीति इन जुड़वां रोल को ठीक से पकड़ पा रही है? समय के साथ ही इसके उत्तर मिल पाएंगे। लेकिन अभी मुझे लगता है कि इस नीति में ज्यादातर सकारात्मक विचार और विषय हैं। डिजीटल शिक्षा पर जोर, विषयों के चुनाव में स्वतंत्रता, कोडिंग की शिक्षा क्लास 6 से, SAT की तरह टेस्टिंग व्यवस्था – ये सभी कदम क्रांतिकारी साबित हो सकते हैं अगर हम ठीक से इनको लागू करें। एजुकेशन जीवन की तैयारी नहीं है, ये अपने-आप में एक जीवन है’ – शायद नई शिक्षा नति 2020 को जीवन देने वालों का भी यही लक्ष्य है। शिक्षा की ताकत को हम सभी जानते हैं और यह भी जानते हैं कि शिक्षा से दुनिया को बदला जा सकता है। कोशिश ये की जा रही है कि देश अपनी सोच को समय के साथ बदले और अपनी समस्या का समाधान भी सोच और कार्य के सहारे लाए।
कहते हैं न कि रास्ते कितने भी ऊबड़-खाबड़ क्‍यों न हों, वो रास्ते भी पैरों के ही नीचे से ही जाते हैं।

डॉ. अमिता प्रसाद

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