संघर्ष – ज्ञान के प्रकाश का

संघर्ष – ज्ञान के प्रकाश का

आज जब मैं पलट कर अपने जीवन के पिछले पच्चीस वर्षों को देखती हूँ तो उसमें मुझे मेरे दो बच्चे ही नज़र आते हैं। पहला मेरा बेटा सौम्य दीप, अपने नाम के अनुरूप ही शान्त, अपने आप में रहने वाला जिसने मुझे ‘माँ’ के सर्वोच्च ख़िताब से नवाज़ा, मातृत्व के अनुभव से रु ब रु करवाया और कभी भी मुझे परेशान नहीं किया। दूसरा, जो बाईस वर्षों पहले अनायास ही मेरी गोद में आ गया- मेरे मातृत्व को विस्तार देने, चुनौतियों के द्वारा मुझे निर्भीक बनाने, समाज मे साम्प्रदायिक सौहार्द्र के वातावरण को समृद्ध करने, वंचितों में शिक्षा के प्रसार के द्वारा मेरे इंसानियत को सुदृढ़ करने, रामकृष्ण मिशन के स्वामी जी लोगों के आशीर्वाद एवं विश्वास के द्वारा मेरे आध्यात्मिकता को बल देने और मेरे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी के रूप में अशेष स्नेह, और आदर की राशि से मुझे समृद्ध करने वाला मेरा बच्चा- विवेकानन्द इंटरनेशनल स्कूल।

अविश्वास से विश्वास का, अशिक्षा से शिक्षा का, दिलों की दूरियों से परस्पर प्रेम का और एस्बेस्टस के शेड से स्कूल भवन का ये सफ़र इतना संघर्षमय और दुर्गम था कि आज भी विश्वास नहीं होता कि कैसे मैं उन पड़ावों को पार कर पायी। मैं कृतज्ञ हूँ, नतमस्तक हूँ श्री रामकृष्ण देव, माँ शारदा और स्वामी विवेकानन्द के समक्ष जिन्होंने रामकृष्ण मिशन के ‘सर्वधर्म समभाव’ के महती विचारधारा को कार्यान्वित करने के लिये मेरा चयन एक छोटे से औजार के रूप में किया। मेरा बच्चों के प्रति लगाव, मेरी बाल मनोवैज्ञानिक होना, बच्चों और महिलाओं के लिये कुछ करने की चाह, ये सब कब मेरे जुनून बन गए, ये पता ही नहीं चला। इस स्कूल के रूप में बहने वाली धारा इतनी प्रबल थी कि उसमें मेरा मान – अभिमान, भौतिक सुख समृद्धि की चाह और भी ना जाने कितनी चीजों को बहा कर किनारे लगा दिया।

श्री ए एस आर मूर्ति ने इस स्कूल के लिये दान में भूमि दी, श्रीमत स्वामी अखिलात्मानन्द ने दूरदृष्टि, प्रेरणा तथा संकल्प के द्वारा स्कूल की शुरुआत की और श्रीमत स्वामी अमृतरूपानन्द के निरन्तर निर्देशन तथा संरक्षण से ही स्कूल आकार ग्रहण कर पाया। साथ ही कुछ लोगों की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि उन्हें नींव का पत्थर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। सबसे पहले मैं महामहिम डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम का नाम लूँगी फिर मेरे पिता श्री राय मनेन्द्र प्रसाद, पति श्री दीपक श्रीवास्तव, पुत्र सौम्य दीप के साथ मेरा पूरा परिवार, माननीय विधायक श्री सरयू राय जी, डॉ शरद सरीन, मरहूम हाजी मोहम्मद खान, मरहूम छोटे भाई अफ़सर अली, श्री एस पी सिंह, मेरे प्रिय भाई श्री मुख्तार आलम खान, श्री शैलेन्द्र सिन्हा, श्रीमती सुनमुन निशा जैसे ना जाने कितने लोगों ने इस स्कूल की नींव गढ़ने में अपनी निस्वार्थ आहूति दी है । इस यज्ञ में मेरे हाथ बने मेरे आत्मीय अभिभावकगण, शिक्षक शिक्षिकाएँ, प्रशासन का संरक्षण और मेरे प्यारे बच्चे।

सन 1997 में कुछ निजी कारणों से मैं पटना से जमशेदपुर आ गयी। चूंकि मैं एक बाल मनोवैज्ञानिक हूँ, पटना में मैंने अपना एक सेंटर बना रखा था, जहाँ काउंसलिंग किया करती थी। लिहाजा यहाँ आ कर भी मैं वही करना चाहती थी और उसके लिये प्रयासरत थी। हमारे परिवार की तीन पीढ़ियां रामकृष्ण मिशन से जुड़ी हैं और यहाँ के बिस्टुपुर स्थित आश्रम में हमारा आना जाना था । मैं तत्कालीन सचिव श्रीमत स्वामी आख़िलात्मानन्द जी (बीजन महाराज) के शिक्षा के प्रति गहरी दृष्टि एवं व्यावहारिक आध्यात्म के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थी और उनसे अक्सर इन विषयों पर बातें किया करती थी। एक दिन उन्होंने अनायास ही कहा कि तुम अपने काउंसलिंग का काम करती रहना, अभी मेरी इच्छा है कि तुम मेरे एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका का पद सम्भालो। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मैं काफी दिनों से प्रयास कर रहा हूँ किन्तु स्कूल की शुरुआत सही तरीके से नहीं कर पा रहा हूँ, मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हीं इस काम को संभाल सकती हो। मेरी कुछ समझ मे नहीं आया क्योंकि मैं पूर्णतः इस क्षेत्र में अनुभवविहीन थी । उन्होंने मेरे पिता जी को मुझे सुबह उस स्कूल में ले जाने का दायित्व सौंपा। मेरे पिता जी कुछ बोल नहीं रहे थे, सिर्फ मुस्कुरा रहे थे क्योंकि उन्हें पता था कि मैं वहाँ टिकने वाली नहीं थी। घर आ कर पता चला कि ये स्कूल शहर से कुछ बाहर की ओर है, सड़क भी उतनी अच्छी नहीं और सबसे बड़ी बात है कि आज़ाद बस्ती में है, जिसे उस ज़माने में क्राइम और गुंडागर्दी के लिये जाना जाता था। मैं थोड़ी डरी हुई थी लेकिन मेरे पति और घर वाले इस बात के लिये आश्वस्त थे कि मैं वहाँ टिकने वाली नहीं, देख कर ही भाग आऊंगी। ख़ैर, बीजन महाराज जी के आदेश का पालन तो करना ही था। मैं अपने पिता जी के साथ कार से स्कूल के लिये निकली। पुल को पार कर अभी हमलोग ओल्ड पुरुलिया रोड में कुछ अन्दर गए ही थे कि काफी संख्या में लोग भागते दिखे और हमे भी कार घुमा लेने को कहा। पूछने पर पता चला कि हमारे स्कूल से सटे जेसू भवन में तालाब के पास हाथियों का झुण्ड आ पहुँचा था। हाथी का एक बच्चा तालाब में गिर गया था, जिसके कारण उसकी माँ हथिनी आक्रामक हो गयी थी। हमलोगों ने भी जैसे तैसे कार को मोड़ा और वापस बीजन महाराज जी के पास सारी बात बताने पहुंचे।

बीजन महाराज ने जैसे ही पूरी बात सुनी, वो ताली बजा कर ज़ोर से हँस पड़े। खुश होते हुए उन्होंने कहा,” लक्ष्मी के पहुँचने से पहले ही उनकी सवारी (हाथी) पहुँच गयी।” तब उन्होंने कहा , “चलो मैं तुम्हें खुद ले कर जाऊँगा।” फ़िर से बीजन महाराज, पिता जी और मैं चल पड़े उनकी अम्बेसेडर कार में। स्कूल से कुछ दूर तक अभी भी भीड़ थी और वन विभाग वाले हाथी के बचाव में लग चुके थे, बीजन महाराज ने बड़े उत्साह से खुद भी हाथियों को देखा और हमलोगों को भी दिखाया। फ़िर उन्होंने स्कूल को दिखाया । स्कूल को देख कर मेरा सारा उत्साह ठंढा पड़ चुका था। एसबेस्टस के शेड को ही दीवार दे कर कई क्लास रूम बना दिये गये थे। पीछे की ओर एक कुआँ और फ़िर जंगल ही जंगल । कमरों में पंखे वगैरह की कोई व्यवस्था नहीं थी, ना गेट ना चहारदीवारी। मैं ये सब देख ही रही थी कि पाँच छः बच्चों ने बीजन महाराज को घेर लिया, साथ ही दो टीचर्स भी थीं। महाराज जी ने बिना देर किये सबको बता दिया कि ये कल से तुमलोगों की प्रिंसिपल रहेंगी। कहाँ मैं वहाँ से जल्दी से निकलना चाहती थी, कहाँ वे सबसे मुझे प्रिंसिपल के रूप में मिलवाते जा रहे थे । बच्चे भले ही वेश भूषा से निहायत गरीब लग रहे थे, लेकिन खुशी और उत्साह से सराबोर थे। लौटने के दौरान महाराज जी ने स्कूल का समय मुझे ही निर्धारित करने को कहा और साथ ही साड़ी ही स्कूल का ड्रेस कोड है, ये बता दिया। मैं सीधे तौर पर ‘ना’ बोलना चाहती थी, पर बोल नहीं पा रही थी। मेरी मनोस्थिति भांपते हुए मेरे पिता जी ने कहा कि अभी तो इसका बेटा बहुत छोटा है, इसके लिये रोज इतनी दूर आना और इतना समय निकालना कठिन होगा। बीजन महाराज जी ने कहा कि सब हो जाएगा। मैं बड़े पेशोपेश में थी। एक ओर उनका इतना आग्रह दूसरी ओर मेरा बिल्कुल अनुभवविहीन होना, अपने बेटे को इतनी देर के लिये छोड़ना, रोज़ नितांत अपरिचितों के बीच आज़ाद बस्ती जाना, साड़ी पहनना, अपने काउंसलिंग के काम को छोड़ना और बिना बुनियादी सुविधाओं और पँखे के बिना एस्बेस्टस की छत के नीचे समय गुजारना .. शाम तक मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे वहाँ नहीं जाना है और इसी निश्चय को सुनाने मैं बीजन महाराज जी के पास जा पहुँची और मन कड़ा कर के अपनी सभी कठिनाइयाँ बताते हुए कहा कि नहीं जा पाऊँगी। महाराज जी ने दुखी होते हुए कहा,” तब तो मुझे वहाँ स्कूल चलाने के विचार ही छोड़ देना पड़ेगा क्योंकि उस स्कूल को तुम्हीं चला पाओगी।” उनके इस विश्वास का कारण मैं आज तक नहीं समझ पाई। फिर उन्होंने विस्तार से बताना शुरू किया कि वे वहाँ क्यों स्कूल शुरू करना चाहते थे।
श्री मूर्ति जी ने लगभग साढ़े पाँच एकड़ जमीन दान में दी थी।

स्वामी जी वहाँ एक इंग्लिश मीडियम को एड स्कूल ही शुरू करना चाहते थे जिसके कई कारण थे।
1)सबसे बड़ा कारण था ग़रीबी, जिसके कारण कोई भी बच्चा आधुनिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहा था। कुछ बच्चे उर्दू मीडियम स्कूल जरूर जाते थे किन्तु वो भी ज्यादा से ज्यादा दसवीं तक ही पढ़ पाते थे।
2) शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं के अभाव में वहाँ क्राइम और गुंडागर्दी का माहौल था।
3) शिक्षा के अभाव में धार्मिक कट्टरता थी।
4) छोटी छोटी उम्र के बच्चे गैराज, घरेलू या होटल में नौकर जैसे काम मे लगे थे।
5) शिक्षा के अभाव में लड़कियों और महिलाओं की स्थिति और भी खराब थी। वे घर से बाहर भी नहीं निकलती थीं।
6) शिक्षा के द्वारा ही कट्टरता एवं अंधविश्वास जैसी कुरीतियों को भी दूर किया जा सकता है।
बीजन महाराज जी का मानना था कि सिर्फ़ आधुनिक शिक्षा ही यहाँ के बच्चों और महिलाओं में आत्मविश्वास का संचार कर सकती है और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के द्वारा ही *उन्हें राष्ट्र और समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है।* स्वामी जी की इन साहसिक विचारों से मैं अत्यंत प्रभावित तो थी लेकिन मैं स्वयं को इसके लिये बिल्कुल ही तैयार नहीं कर पा रही थी। अन्त में उन्होंने एक बात कही जो मेरे हृदय को उद्वेलित कर गयी, वो ये कि “मेरे ईश्वर मन्दिर की मूरत में नहीं बल्कि इन बच्चों के रूप में मेरे सामने हैं। क्या तुम अपने जीवन का एक वर्ष मुझे दे सकती हो जिससे मेरा ये ‘ड्रीम स्कूल’ बन सके।” अब मेरे पास कहने को कुछ नहीं था और मैंने खुद को जैसे तैसे एक वर्ष के लिये समझा लिया। महाराज जी ने तत्काल ही स्कूल के बगल में ही रहने वाले ऑटो के मालिक मुशीर अहमद (पप्पू भाई) से बात करके मेरे आने जाने के लिये सवारी(पहले एक टेम्पो फिर एक वैन) की व्यवस्था कर दी। उन्होंने उससे कहा कि अपनी दीदी को लेने सही समय पर पहुँच जाना। उस दिन से आज तक पप्पू ने दीदी और छोटे भाई का रिश्ता बखूबी निभाया। ईद, बकरीद, राखी और भाईदूज में उसका मेरे घर आना निश्चित है। स्कूल के प्रचार प्रसार में भी उसने जी जान से योगदान दिया और महाराज जी का चहेता बना रहा। उस समय ओल्ड पुरुलिया रोड बहुत बुरे हाल में था। इसी ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर हम रोज़ आते जाते। अक्सर मेरा छोटा भाई, अनन्त सौरभ, जिसकी उस साल ICSE की परीक्षा थी, भी पढ़ाई करने मेरे साथ जाता। मैंने महाराज जी से उसे पढ़ाने के नाम पर भी स्कूल नहीं जाने की बात कही थी, उसका उन्होंने यही समाधान निकाला था कि उसे भी अपने साथ ले जाओ। उसे स्कूल में खूब मजा आता। वो ऑफिस में बैठा रहता और पूछ ताछ के लिये आने वालों से बात भी कर लिया करता ।इस तरह शुरू हुआ मेरे स्कूल जाने का सिलसिला और मेरे जीवन का एक वर्ष कब पूरे जीवन मे ही बदल गया, पता ही नहीं चला।


सबसे पहले मैंने स्कूल में घण्टी टँगवाई, रेजिस्टर्स खरीदे, अपने आफिस को ठीक किया, क्लासरूम में भी बेंच वगैरह लगाए गए। उस समय स्कूल में कुल 7 बच्चे थे। उसके बाद शुरू हुआ मेरे घर घर जाने का सिलसिला। उस समय मैं आज़ाद बस्ती के लगभग सभी घरों में गयी । ज्यादातर मुझे लोग अविश्वास की ही नज़र से देखते फिर भी मैं औरतों से मिलती, बच्चों के लिये आधुनिक शिक्षा कितनी जरूरी है ये बताती, अपने स्कूल के बारे में बताती और साथ ही रामकृष्ण मिशन के आदर्शों, खास कर सर्व धर्म समभाव के बारे में बताती। धीरे धीरे एक दो कर के बच्चों की संख्या छः महीने में लगभग पचास हो गयी। उस ज़माने में कोई भी महिला स्कूल तक नहीं आती थी, मैंने उन्हें आने को प्रोत्साहित किया क्योंकि बच्चों की देख भाल तो माँ ही करती है। शुरू में बच्चे बिना साफ सुथरे हुए ही चले आते थे । हमने कई गमछे, कंघी, साबुन आदि रखे और अक्सर हमारी सहायिका मरियम उन बच्चों को खूब अच्छे से नहला धुला कर तैयार कर दिया करती और बिस्किट और ब्रेड भी खिलाती। कुछ ही दिनों में बच्चों ने खुद ही तैयार हो कर, टिफ़िन ले कर आना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं हमने अभिभावकों को भी किस तरह स्कूल आना है, यह सिखाया। खास कर माँओ के लिए हर कुछ दिनों के अंतराल पर स्वच्छता, स्वास्थ्य, आहार आदि जानकारियां देते रहते। एक साल होते होते सौ बच्चे हो गये। जिस दिन सौवां बच्चा आया, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, मैं भागती हुई ये बात बीजन महाराज जी को बता आई।
स्कूल धीरे धीरे आकार ले ही रहा था कि कुछ असामाजिक और स्वार्थी तत्वों ने धार्मिक भावनाओं को उकसा कर स्कूल के खिलाफ दुष्प्रचार करना शुरू किया। काफ़ी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, यहाँ तक कि स्कूल के पास माँस वगैरह भी फेके गये। असामाजिक तत्वों तथा अपराधियों ने धार्मिक उन्माद फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वे लोग किसी भी तरह स्कूल बन्द करवाना चाहते थे और मुझे उस इलाके से भगाना चाहते थे। मुझे काफी परेशान किया जाने लगा। मेरे हितैषियों ने मुझे वहाँ जाने से मना किया फिर भी बीजन महाराज जी और मेरे छोटे से बेटे ने मेरी हिम्मत को बनाए रखा। महाराज जी कई बार स्कूल गए और लोगों से बातें कीं। वहाँ की कई महिलाओं ने और कई अनुभवी तथा सशक्त लोगों ने सामने आ कर स्कूल को संभालने में मदद की। जन्नतनशीं मो खान ने अपने अंतिम समय तक बड़े ही प्यार और अपनापन से एक अभिभावक के तौर पर इस स्कूल और मुझे मार्गदर्शन करते रहे । श्रीमती सुनमुन निशा ने भी आगे बढ़ कर महिलाओं में इस स्कूल के प्रति और शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाई, जो आज भी जारी है । उनके खुद के बच्चे इसी स्कूल से निकल कर अच्छे ओहदों पर हैं।
2004 में बीजन महाराज जी के अचानक शरीर त्याग के बाद ऐसा लगा कि मैं स्कूल नहीं चला पाऊँगी। फिर भी बार बार उनके स्कूल में अंतिम बार आने के दिन की बातें याद आ जाती।ना जाने क्यों अन्तिम दिन जब वो स्कूल आये थे तब उन्होंने कुछ निराश हो कर कहा था कि क्या क्या सपने देखे थे इस स्कूल के लिये, कुछ नही कर पाया।” तब मेरे मूँह से अनायास ही निकल गया था, ” क्यों चिन्ता करते हैं महाराज जी, मैं पूरा करूंगी ना आपका सपना।” मैंने खुद को ही वचनबद्ध कर लिया था।

बीजन महाराज जी के जाते ही ज़मीन माफियाओं की नज़र स्कूल की विस्तृत ज़मीन पर पड़ चुकी थी और उन्हें पता था कि मुझे वहाँ से हटाए बिना भूमि पर कब्ज़ा करना सम्भव नहीं। तब शुरू हुआ धमकी और लालच देने का खेल। यहाँ तक कि मेरे बेटे के अपहरण का भी प्रयास हुआ, जिसमे पुलिस की मदद लेनी पड़ी। जब प्रशासन के द्वारा भी मुझे स्कूल नहीं जाने को कहा गया क्योंकि मैं माफियाओं के निशाने ओर थी। मैंने भारी मन से स्कूल जाना स्थगित कर भी कर दिया था तभी मानो ईश्वर ने मुझे दो महानुभावों के द्वारा सन्देश भिजवा दिया कि मुझे डरना नहीं है। एक तो मो खान ने मुझे फोन पर कहा, ” बेटा अल्लाह ने सांसें गिन कर दी हैं अगर वो बाकी है तो तेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।” दूसरा पटना रामकृष्ण मिशन के तत्कालीन सचिव श्रीमत स्वामी तद्गतानन्द ने स्वामी विवेकानन्द का दृष्टान्त देते हुए पत्र लिखा – “Face the brute, don’t run away”. सबसे ज्यादा शक्ति मेरे बेटे ने मुझे दी जब उसने कहा , “मुझे तब बहुत तकलीफ होगी जब तुम स्कूल छोड़ दोगी, तुम जाओ।” फिर मैं स्कूल में अडिग बनी रही ।तभी गर्मी की छुट्टियों में आधी ज़मीन तमन्चाधारी अपराधियों ने घेर कर दीवार बना लिया। जब पुलिस में शिकायत से भी कुछ नहीं हुआ, तब एक ऐतिहासिक घटना घटी। लगभग सौ से भी अधिक महिलाओं ने मोर्चा संभाला और घेरे गए बाउंडरी को तोड़ डाला , अपराधियों पर पथराव किया जिससे वो अपना सामान वगैरह छोड़ कर भाग खड़े हुए। बाद में पुलिस आई। इस घटना ने यह साबित कर दिया कि माँ की ताकत के सामने कुछ भी नहीं टिक सकता और माएँ अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं।
इसके बाद एक और काफी कष्टदायक प्रकरण आया जब मेरे ऊपर आदिवासी प्रताड़ना का झूठा केस बना कर स्कूल में पुलिस भेज दिया गया। मेरे पिता जी और मैं देर रात तत्कालीन एस पी श्री आशीष बत्रा जी के पास पहुँचे। उन्होंने तुरंत बात को समझ कर खुद ही इस मामले को हाथ मे लिया और पुलिसकर्मियों को अच्छी फटकार भी लगाई।


मुझे ना तो ज़मीन के कागज़ातों के बारे में जानकारी थी, न ही मुझे प्रशासनिक पत्राचार करने आते थे। मेरे पापा और मेरे पति इन सब में मेरी मदद कर रहे थे। फिर भी बार बार ज़मीन पर आक्रमण, धमकी इन सब का सिलसिला नही थम रहा था। तब मुझे याद आए डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम जिनसे मेरे बेटे के कारण राज भवन में मिलने का अवसर मिला था और तब उन्होंने स्कूल के बारे में जान कर मेरे सर पर हाथ रख कर कहा था, ” You are doing a National Job .. go ahead.” मैंने उन्हें पूरी परिस्थिति का वर्णन करते हुए एक पत्र लिख दिया। आज सोंचती हूँ तो लगता है कि उनके जैसा ईश्वरीय व्यक्तित्व का आशीर्वाद मेरी बहुत बड़ी पूंजी है। राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए उन्होंने मेरे इस पत्र को पूरी गम्भीरता से लिया और उनके पत्र ने स्कूल को पूरे प्रशासन की नज़र में ला दिया। पूरी प्रशासनिक जाँच हुई। मैं शुक्रगुज़ार हूँ शिक्षा विभाग के श्री एस पी सिंह जी की जिन्होंने निष्पक्ष और निर्भीक जाँच की और ऐसी जाँच रिपोर्ट सौंपी कि प्रशासन ने मेरी और स्कूल की सुरक्षा में कोई कोताही नहीं की।

इन घटनाओं से उबरने में काफी कष्ट हुआ, कई बार हिम्मत छूटने लगती। कई मित्रों ने, खास कर श्री शैलेन्द्र सिन्हा, पुलिस के वरिष्ठ अफसर, ने आगे बढ़ कर समय समय पर स्कूल की मदद की।

इन सभी घटनाओं के साथ साथ एक बहुत अच्छी और स्कूल को सशक्त करने वाली बात ये हुई कि श्रीमत स्वामी अमृतरूपानन्द जी ने रामकृष्ण मिशन, जमशेदपुर के सचिव का पद संभाला और साथ ही स्कूल को भी एक सशक्त आधार मिल गया।उनके शान्त एवं कुशल संरक्षण में ही भव्य स्कूल भवन के निर्माण के साथ स्कूल निरन्तर प्रगति कर रहा है।

वर्तमान में स्कूल में लगभग डेढ़ हज़ार विद्यार्थी हैं। यहाँ से शिक्षित बच्चे देश विदेश में बड़े बड़े प्रतिष्ठित पदों पर हैं। लड़कियां भी डॉक्टर, इंजीनियर आदि पदों की शोभा बढ़ा रही हैं । आज स्कूल का अपना सुन्दर सुसज्जित भवन है । सबसे बड़ी बात है कि इस स्कूल को कही से भी कोई वित्तीय सहायता नहीं मिलती है, फीस भी अन्य स्कूलों की तुलना में कम है, फिर भी हम सब निरन्तर इसे और भी ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए प्रयासरत हैं। मेरा स्कूल, विवेकानन्द इंटरनेशनल स्कूल , एक बहुत बड़े परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है जिसमें ना धर्म, ना जाति, ना अमीरी गरीबी, किसी भी प्रकार का कोई भेद भाव नहीं है। हम सालो भर त्योहार मनाते हैं। कभी ईद, कभी होली, कभी दीवाली, कभी क्रिसमस और हमारे स्कूल का इफ़्तार और वार्षिकोत्सव तो मशहूर है ही, यहाँ की सरस्वती पूजा में पूरा मुहल्ला शरीक होता है। हमारे कर्मठ शिक्षकगण, हमारे बहुत ही प्रतिभावान बच्चे और उनके माता पिता सभी हमारे इस विराट परिवार का हिस्सा हैं । यहाँ से निकले बच्चे आज दुनिया के कोने कोने में हैं। उनकी अपनी पहचान है। वे अपने समाज तथा देश के श्रेष्ठ नागरिक हैं। आज जब मैं अपने बच्चों की सफलताएं, उनकी उपलब्धियां और उनके खुशहाल परिवारों को देखती हूँ तो लगता है श्रीमत स्वामी अखिलात्मानन्द जी के सपनों को कुछ कुछ साकार कर पाई हूँ , जो कि मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है और यह काम इतना विशाल है कि उसके लिये एक जीवन भी छोटा ही पड़ जाएगा।

स्वामी विवेकानन्द के अमृतमन्त्रों में एक अमृतवाणी है ना .. “विस्तार ही जीवन है, संकुचन मृत्यु..” मेरा ये विवेकानन्द इंटरनेशनल स्कूल बड़े ही प्यार से अपनी दोनों भुजाएँ फैलाए खड़ा है, यहाँ आने वाले हर उम्र, हर तबके, हर सम्प्रदाय के इन्सान को एक अपनापन की अनुभूति होती है, जो कहीं ना कहीं उनके व्यक्तित्व को एक विस्तार देता है।

डॉ निधि श्रीवास्तव
मनोवैज्ञानिक एवं प्रधानाध्यापिका
विवेकानंद इंटरनेशनल स्कूल

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