ओ सितंबर
ओ सितंबर !
तुम आ ही गए.
गुनगुनाते से कुछ छोटे होते दिन
और मीठी सी सिहरन वाली
लंबी रात लिए.
ठहरी हुई हवा एक
भूला-सा नगमा सुना रही है.
चिनार ने फिर बिखरा दी है
एक सुनहरी चादर…..
पत्तो के बदलते रंग जैसी
ख्वाहिशें भी कुछ और
अमीर हो गयी हैं.
पेड़ो से छनकर आती किरणों ने
छितरा दिए हैं
स्नेहिल इंद्रधनुष……
रह रह कर झरते हैं
स्मृतियों के हरसिंगार
रातरानी से महकते पलाश के दोने में
एक सुर्ख नाम सहेज रखा है मैंने।
डॉ. निधि अग्रवाल