प्लास्टिक के फुल
शिखा की आज क्लास नहीं थी। लेकिन तब भी वह आज कॉलेज आई थी। स्टाफरूम में अपना बैग रखकर वह बैठ गई थी। ये ऑल गर्ल्स कॉलेज’ है और ज्यादातर प्राध्यापिकाएँ महिला ही हैं। इकक््का-दुक्का ऑफिस स्टाफ, कम्प्यूटर डाटा विशेषज्ञ और अर्थशाक्त्र के प्रोफेसर डॉ. भगत को छोडकर। जब उसने कॉलेज ज्वाइन किया था तो थोड़ा अटपटा लगा था। शिखा हमेशा ‘को ऐड’ में पढ़ी थी। लड़कों के साथ मेल-जोल, हँसी-ठहाके, मजाक थोड़ा आम ही था। दूरियाँ बनाए रखने में ही भलाई है, अम्मा कहा करती थीं। अम्मा को पसंद नहीं था ये मेल-जोल। हमेशा ‘वो क्यों आया था’ ‘शाम को गप्पें लगाने मत बैठ जाना’ ‘तुम कुछ समझती नहीं हो॥ अम्मा की परेशानी देखकर वह बहाने बनाना भी सीख गई थी। “आज नहीं आ सकती’ ‘कल गेस्ट हैं घर पर।’ कभी-कभी झूठ भी बड़ी राहत दे जाता है। ‘दकियानूसी’ का लेबल अपने माथे पर वह चिपकाना नहीं चाहती थी। अम्मा की भी क्या गलती? पचास की उम्र में ही विधवा हो गईं। स्कूल में टीचर थीं, दो लडकियों की पूरी जिम्मेदारी आन पड़ी थी।
शिखा ने चारों तरफ देखा। आज बहुत कम लोग थे स्टाफ रूम में। इधर-उधर देखकर मोबाइल खोला। विकास के तीन मैसेज थे। तुरंत खोलकर पढ़ने का मन किया, पर रोक लिया। मन में एक बवंडर उड़ रहा था। विकास से वह एक कॉन्फ्रेंस में मिली थी। आज से दो साल पहले। हँसमुख और गहराई से सोचने वाला। जिंदगी पूरी तरह जीनी चाहिए, लगता है विकास ने यह पट्टा गले में ही लटका रखा था। पूरे कॉन्फ्रेंस में वह छाया रहा – अपने व्यक्तित्व से और अपने वक्तव्य से। दिल की चेतावनी के बावजूद शिखा उसकी तरफ आर्कषित हो रही थी। शिखा को पता था कि उसके नजदीक जाने के लिए शायद उसको बहुत दूर तक जाना होगा। लेकिन पैंतीस वर्षीय अविवाहित महिला को इसकी अब परवाह नहीं थी। ख्वाबों का भी भला कोई हिसाब होता है। शिखा और विकास का अंतिम सत्र बहुत लाजवाब हुआ। प्रश्नों के ढेर लग गए। पर्यावरण और प्रगति का सामंजस्य कैसे होगा-यह विषय इतना ज्वलनशील था कि डेढ़ घंटे का सत्र पूरे साढ़े तीन घंटे चला। विकास की वाक् चतुराई की तो वह कायल हो ही गई थी, अब उसे अनायास ही आर्कषक भी लगने लगा। ऐसा होता है न किसी को देखकर, जिसको आप पहले कभी नहीं मिले, आपके हृदय के तार सितार की तरह बज उठते हों। उसे लगा कि वह उसकी तरफ आर्कषित हो रही है। इन तीन दिनों में कॉफी ब्रेक में काफी कुछ जान चुकी थी उसके बारे में। यही कि वह ऊटी का रहने वाला है, उसका परिवार बिजनेस में है और यह भी कि उसके परिवार में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है। उसका लक्ष्य है कनाडा या अमेरिका जाकर पर्यावरण की समस्याओं पर रिसर्च करना। पर्यावरण एक ज्वलनशील विषय है और अभी इसका बहुत वर्चस्व बढ़ेगा। व्यापारी परिवार का था विकास और इसीलिए हिसाब किताब रख लेता था हर चीज का। जिंदगी में नफा-नुकसान जो समझ ले, वही सफल है शायद।
तीन दिनों के उस कॉफ्रेंस के बाद शिखा चली आई मेरठ और विकास चला गया अपने रिसर्च इंस्टीच्यूट मुम्बई। लेकिन ई-मेल के जरिए उनकी पहचान का सिलसिला चलता रहा। फिर वो मिले श्रीनगर में। और फिर कलकत्ता में। शिखा अपना एक बहुत ही बढ़िया रिसर्च लेकर आई थी – वनों की कटाई और नदियों के बदलते स्वरूप पर। कलकत्ता के सेमिनार में विकास ने एक प्रस्ताव रखा था। एक ज्वाइंट रिसर्च का। शिखा उससे कुछ और भी उम्मीद रखे बैठी थी। एक छोटा सा युद्ध उसके मन में चलता ही रहा पूरे सम्मेलन में। क्या उसे कुछ और कहना चाहिए? कलकत्ता में सभी लोग छोटे जहाज में गंगा-दर्शन को गए। रात में नदी पर बोटिंग उससे ज्यादा तो माहौल नहीं बनता कहने और सुनने के लिए। शिखा की जुबान बार-बार रुक रही थी। भावनाएँ जैसे मन के बाँध को तोड़कर निकलना चाह रही थीं। लगा कि सैलाब को वह अब रोक नहीं पाएगी। अम्मा भी बार-बार बोल रही थीं-तू उससे बात कर। कब तक मन की बात मन में रखेगी। लेकिन मन की भावनाएँ फिर हार गईं दिमाग से और विकास के साथ थोड़ा और जीने की चाह को उसने लगाम दे दिया। कुछ और परखने के लिए।
इस बीच एक और कॉफ्रेंस में मिले। ज्वाइंट रिसर्च के कारण ई-मेल का सिलसिला बढ़ गया था। उसके हर ई-मेल से वह रोमांचित हो उठती थी। मन की इस लहर से वह वाकिफ थी। रिसर्च का मसौदा तैयार ही था। वह बड़ी लगन से उस पर काम कर रही थी। जीवन की आपाधापी में यह एक अवसर आया है, अम्मा ने उसे फिर से आगाह किया था। बिना निष्कर्ष के रिसर्च अधूरी है, शिखा – उसने भी मन ही मन कहा था। रिसर्च पेपर पूरा हो गया था और उसको उन्होंने मनीला के साइंस जर्नल में भेजा था। पुरुष इतना भावुक शायद नहीं होता — यही सोचती रही शिखा। मेरे अंतर्मन को ये क्यों नहीं पढ़ पा रहा है। एक महीने पहले वह पेपर मनीला में छप गई थी। उसने जब मैगजीन खोली तो उसका जी धक्क हो गया। यह पेपर विकास ने केवल अपने नाम से छपवा लिया था। उसे देखकर विश्वास ही नहीं हुआ। तो विकास ने उसको इस्तेमाल किया। मारे गुस्से और उस अपमान के लिए अपने को दायी मानते हुए, शिखा ने एक लम्बा ई-मेल लिखा। दो महीनों तक कोई उत्तर नहीं आया। डरपोक है विकास, इसीलिए गूंगा होकर बैठ गया। उन सारी शामों को, दुपहरों को, अपनी बातचीत को उसने मन में खंगाला कि कहीं किसी बात से उसने अपने मन की कमजोरी तो नहीं दिखा दी। कितनी बार तो वह अपनी कही बातें मन ही मन दुहरा चुकी थी। उसके दर्द की कोई भी कहानी नहीं थी। उसी ने तो यह मौका दिया था। अपनी लच्छेदार बातों से विकास ने उसका उपयोग किया था। अच्छा ही हुआ, उसने उसको अपना सब कुछ नहीं दिया था – पिछले दो महीनों से विकास के तीन ई-मेल आ चुके हैं। क्या वह माफी माँग रहा है? लेकिन शिखा सोच रही है कि अब ई-मेल नहीं खोलेगी वो। प्लास्टिक के फूलों पर तितलियाँ नहीं आती।
डॉ अमिता प्रसाद