अमर शहीद अशफाक उल्ला खां
हमारा भारतवर्ष सैकड़ों वर्षों तक गुलामी के दंश को झेलता रहा । इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो यह स्पष्ट होता है कि कोई बहुत बड़ा आक्रमणकारी आकर हमें गुलाम नहीं बनाया। इसके पीछे का कारण हम सभी अच्छी तरह जानते हैं हमारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बटा हुआ था जहां राजाओ और नवाबों का शासन था। इन सभी के अंदर एक दूसरे के प्रति वैमनस्यता भरी हुई थी, जो एक दूसरे के प्रति षड्यंत्र करने और लड़ने में लगे रहते थे। जिसका फायदा विदेशी उठाते रहते थे। कितने विदेशी आक्रमणकारी आए सब ने अपनी मनमानी की।सबसे बाद मेअंग्रेज आए जो करीब 100 वर्षों से ज्यादा समय तक अपने क्रूर शासन के द्वारा भारतीयों पर अत्याचार करते रहे।
परंतु जब हम सब लोग एकता के सूत्र में बंधने लगे यानी एक मुट्ठी की तरह एकत्रित हुए तो इसका परिणाम हमें अट्ठारह सौ सत्तावन की आजादी की पहली लड़ाई में देखने को मिला। यह बात अलग है कि इस लड़ाई में हमें शिकस्त झेलनी पड़ी थी ।पर यह हमारे एकता का प्रतीक बना। इस लड़ाई से एकता की चेतना जागृत हुई और यह हमारे नौजवानों के ह्रदय में आजादी की उत्कट इच्छा को भीजागृत किया। देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत ऐसे ही वीर नौजवानो के नामो मे एक नाम अशफाक उल्ला खा का था, जिसने अट्ठारह सौ सत्तावन की आजादी की लड़ाई की तरह हिंदू मुस्लिम के एकता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निर्वहन किया और अपने प्राणों की आहुति दे अमर शहीदों के नाम में शुमार हो गए।
इस महान क्रांतिकारी का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के एक रईस परिवार मे 22 अक्टूबर 1900 ई में हुआ था। यह अपने छह भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। इनके पिता मोहम्मद शफीक उल्ला खां तात्कालिक सरकार के अधीन पुलिस पदाधिकारी थे। अशफाक उल्ला खां बचपन से ही बहुत ही कुशाग्र बुद्धि के थे। अंग्रेजी ,उर्दू ,हिंदी के साथ संस्कृत में भी इनकी अच्छी पकड़ थी। अपने छात्र जीवन से ही अशफाक शेरो- शायरी और कविता लिखा करते थे, जो देश प्रेम की भावना से भरी होती थी। वे अपनी कविताओं शेरो शायरी में अपना उपना ‘हसरत’ रखा करते थे। उन्होंने कभी अपनी कविताओं को प्रकाशित करने की चेष्टा ना की। उनका कहना था कि हमें नाम पैदा करना तो है नहीं अगर नाम पैदा करना होता तो क्रांतिकारी का काम छोड़ लीडरी ना करता। उनकी भावनाएं उनकी इन दो पंक्तियों में बिल्कुल स्पष्ट नजर आती है–
“ज़मीं दुश्मन जमा दुश्मन जो अपने थे पराये हैं
सुनोगे दासता क्या तुम मेरे हाले परेशा की ”
सन् 1919 के 13 अप्रैल को हुए जलिया वाले बाग की घटना ने इनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव डाला था। इसके बाद गांधी जी द्वारा चलाया जाने वाला असहयोग आंदोलन और क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर अशफाक उल्ला खां का मन भी अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत से भरने लगा था। वे चाह रहे थे कि उनका परिचय किसी क्रांतिकारी दल के किसी सदस्य से हो जाता तो वह भी भारत माता के आजादी के लिए कुछ कर पाते। अशफाक अपने बड़े भाई रियासत उल्ला खां के मुंह से अक्सर राम प्रसाद बिस्मिल के जांबाजी की प्रशंसा सुना करते और जब बड़े भाई से यह भी पता चल गया कि राम प्रसाद बिस्मिल यही शाहजहांपुर के ही हैं तो उनसे मिलने की इन की तीव्र इच्छा होने लगी। उस समय ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ का केश चल रहा था और राम प्रसाद बिस्मिल पर इस षड्यंत्र के लिए वारंट भी निकला हुआ था ।इसलिए राम प्रसाद बिस्मिल शहर छोड़ कर कहीं जाकर छुपे हुए थे। परंतु 1920 में जब अंग्रेजों द्वारा आम मुआफी का एलान कुछ चेतावनी देते हुए किया गया तो बिस्मिल शाहजहांपुर लौट आए। इस खबर को जानने के बाद अशफाक उल्ला खां रामप्रसाद बिस्मिल से कई बार मिले परंतु उनके मन में अपने लिए कोई खास जगह नहीं बना पाए जैसा कि वह चाहते थे। वे मौका की तलाश में लगे रहे। कुछ दिनों के बाद अशफाक उल्ला खां को क्रांतिकारियों की एक बैठक के गुप्त सूचना के विषय में जानकारी मिली जो एक सुनसान जगह “खनौदी नदी” के किनारे होनी थी। अशफाक उल्ला खां भी उस मीटिंग में किसी तरह पहुंच गए। राम प्रसाद बिस्मिल जब अपने वक्तव्य के साथ एक शेर को पढ़ा जो इस प्रकार था :–
” बहे बहरे फना में जल्द या रब लाश बिस्मिल की
कि भूखी मछलियां है जौहरे शमशीर कातिल की”
तो इसका जवाब अशफाक उल्ला खां ने आमीन कहते हुए किसी अन्य की लिखी हुई शेर को इस लहजे में पढ़कर दिया:—
” जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्द गम लेकिन
वया कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की”
इस शेर को सुनने के बाद राम प्रसाद बिस्मिल ने अशफाक उल्ला खां को अपने पास बुलाया और पूछा कौन हो तुम ?अशफाक ने अपना परिचय दिया और कहां कि मैं भी अपने देश के लिए कुछ करना चाहता हूं , आपसे बहुत प्रभावित हूं । तब बिस्मिल ने अशफाक को अलग से मिलने के लिए बुलाया। अशफाक के घरवाले नहीं चाहते थे कि अशफाक बिस्मिल के संपर्क में रहें मगर घर के मर्जी के विरुद्ध अशफाक बिस्मिल से मिले लंबी बातचीत के बाद अशफाक ने कहा कि आप अपनी पार्टी “मातृ देवी “का एक्टिव सदस्य मुझे बना लीजिए । राम प्रसाद बिस्मिल अशफाक के विचारों से एवं देश भक्ति से जब पूरी तरह संतुष्ट हो गए तब उन्होंने अशफाक को अपने पार्टी का एक्टिव सदस्य बना लिया। इसके बाद से राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला दोनों बहुत ही घनिष्ट मित्र हो गए। अशफाक उल्ला खां के हृदय में राम प्रसाद बिस्मिल के प्रति बहुत स्नेह और सम्मान भरा था। अशफाक और राम प्रसाद बिस्मिल के घनिष्ठ मित्रता की लोग चर्चा करते हैं हुआ ऐसा कि’ एक बार अशफाक की तबीयत थोड़ी खराब हो गई और थोड़ी बेहोशी की हालत में वह बार-बार राम राम राम कहा कह जा रहे थे परिवार के लोग राम-राम सुनकर घबरा गए उन्हें लगने लगा कि बिस्मिल के संग के कारण इसने अपना धर्म तो नहीं बदल लिया। अशफाक के तबीयत के विषय में जब राम प्रसाद बिस्मिल को पता चला तो वे अशफाक से मिलने गए। अशफाक को जब राम प्रसाद बिस्मिल की आवाज में मिली तो वह जोर से बोलने लगे राम तुम आ गए, तब जाकर घर के लोगों को यह पता चला कि यह अपने दोस्त राम प्रसाद बिस्मिल को याद कर रहा था।’
अशफाक उल्ला खां बहुत ही दूरदर्शी व्यक्ति थे ।वे यह समझ रहे थे कि देश में सिर्फ क्रांतिकारी गतिविधियों को रखने से ही देश को आजादी नहीं मिल पाएगी ।इसलिए उन्होंने सुझाव रखा कि धीरे धीरे हमें राष्ट्रीय कांग्रेस में भी अपनी पैठ जमानी शुरू करनी चाहिए। इसी बीच बिस्मिल ने अशफाक उल्ला की मुलाकात कांग्रेस के मौलाना हसरत मोहनी से कराई जो पूर्ण स्वराज के पक्षधर थे। परंतु गांधीजी इसका विरोध कर रहे थे तो शाहजहांपुर के सभी नौजवान नेताओं ने मौलाना हसरत मेहानी के संग मिलकर पुरजोर विरोध किया और जिसके परिणाम स्वरूप गांधी जी को न चाहते हुए भी पुर्ण स्वराज की बात को स्वीकार करना पड़ा।
परंतु इसी बीच 5 फरवरी 1922 को चोरा चोरी कांड हुआ जिसके कारण गांधी जी ने दिसंबर 22 में असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। इस विषय पर उस समय के युवा नेताओं के साथ अन्य नेताओं ने गांधी जी से प्रश्न किया कि आप ने किससे पूछ कर असहयोग आंदोलन वापस लिया। बाद मे क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का गठन 1924 में कानपुर में किया जिसमें लाला हरदयाल की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए क्रांतिकारियों के पास पैसे की आवश्यकता महसूस हुई और इसी समस्या को हल करने के लिए राम प्रसाद बिस्मिल ने 8 अगस्त 1925 में शाहजहांपुर में क्रांतिकारियों की एक बैठक के बुलाई जिसमें ट्रेन से ले जाने वाली सरकारी खजाने को लूटने की योजना पर सहमति बनी। 9 अगस्त 1925 को अशफाक उल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल ,चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह ,सचिन बक्शी, केशव चक्रवर्ती ,बनवारी लाल, मुकुंद लाल तथा मनमंथ लाल गुप्त ने मिलकर लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन द्वारा ले जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। पैसों से भरे उस खजाने वाले संदूक को तोड़ने में अशफाक उल्ला खां की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
इस घटना के बाद ब्रिटिश हुकूमत के लोग पागल से हो गए उन्होंने बड़ी तेजी से क्रांतिकारियों की धरपकड़ शुरू कर दी। इस समय भी हमारे देश के अपने ही लोग गद्दारी करके सभी लोगों को पकड़वा दिया जिसमें कई निर्दोष लोग भी पकड़े गए। परंतु चंद्रशेखर आजाद और अशफाक उल्ला खां इस पकड़ से बाहर रहे। अशफाक पहले तो नेपाल चले गए फिर कानपुर में आकर गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रेसमें कुछ दिनों तक छुपे रहे फिर वहां से वह बनारस आ गए और वहां एक इंजीनियरिंग कंपनी में 10 महीने के करीब काम किया । इस काम से जो पैसे मिले थे उसमें से कुछ तो क्रांतिकारियों को सहयोग करने के उद्देश्य सेउनके पास भेजा और कुछ पैसे लेकर विदेश जाने की सोची ताकि वहां जाकर अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर सके और पैसा कमा कर भारत में चल रहे आजादी की लड़ाई के लिए पैसे भेज सकें। इसी सिलसिले में वे दिल्ली अपने बचपन के एक पठान दोस्त के संपर्क में आए परंतु वह दोस्त भी विश्वासघाती निकला चंद पैसों की लालच में आकर अशफाक को पकड़वा दिया ।जेल में इन्हें बहुत यातनाएं दी गई तरह तरह के मानसिक दबाव बनाए गए ताकि यह सरकारी गवाह बन जाए परंतु अशफाक के मनोबल को नहीं तोड़ा जा सका। आखरी में एक मुसलमान अधिकारी खान बहादुर खां ने मनोवैज्ञानिक तरीके से जातीय समीकरण के हथियार का प्रयोग कर अशफाक से कहा” मियां हम भी मुसलमान तुम भी मुसलमान राम प्रसाद बिस्मिल के चक्कर में ना पडो। वह पंडित है इसीलिए वह हिंदू राज स्थापित करना चाह रहा है। उसके चक्कर में अपना जीवन क्यों बर्बाद कर रहे हो ?आखिरी बार तुम्हें यह बात समझा रहा हूं मान जाओ फायदे में रहोगे।” इतना सुनते ही अशफाक का खून खौल उठा उन्होंने अधिकारी को डांटते हुए कहा खबरदार पंडित जी ( राम प्रसाद बिस्मिल) को मैं आपसे ज्यादा जानता हूं उन्हें काफिर कहा ?चले जाइए यहां से वरना मेरे ऊपर कत्ल का एक और मुकदमा दायर हो जाएगा जिससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पडने वाला मेरे ऊपर। साथ में खड़े एक अंग्रेज अफसर की तरफ इशारा करते हुए अशफाक ने कहा आप लोगों की चाल कभी कामयाब नहीं होगी फूट डालकर राज करने का चाल हम सबके ऊपर नहीं चलेगा आजादी की लड़ाई अब आप लोग बिल्कुल नहीं दवा सकोगे। आखिरकार 6 अप्रैल 1927 में काकोरी कांड के मुकदमे का फैसला आया राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह के साथ अशफाक को फांसी की सजा सुनाई गई बाकी क्रांतिकारियों को उम्र कैद की सजा की घोषणा कर अंडमान निकोबार जेल में भेज दिया गया। 19 दिसंबर 1927 को अशफाक उल्ला खां को फांसी दे दी गई। भारत माता का यह सच्चा सपूत आजादी का दीवाना हमारे बीच से सदा सदा के लिए चला गया ।परन्तु इतिहास में सदा के लिए अमर हो गया।
कहते हैं फांसी के पहले जुमेरात को अशफाक ने जेल की कालकोठरी से अपना आखिरी संदेश हिंदुस्तान के जनता के नाम उर्दू में लिखकर भेजा था। जिसका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के लोगों का ध्यान आकर्षित करना था। यह संदेश एक पंडित विद्यागर्व शर्मा की पुस्तक “युग के देवता बिस्मिल- अशफाक के पृष्ठ संख्या 127 से 178 तक में इस प्रकार उद्धृत है :— ” गवर्नमेंट के खुफिया एजेंट मजहबी बुनियाद पर प्रोपेगेंडा फैला रहे हैं । इन लोगों का मकसद मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं है बल्कि चलती गाड़ी में रोड़ा अटका ना है मेरे पास वक्त नहीं है ना ही मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दूं। इसके बाद उन्होंने बताया कि हिंदू मुस्लिम एकता के बहुत फायदे हैं हम मिलकर ही अंग्रेजी शासन से मुक्ति पा सकते हैं। मेरे भाइयों मेरा आखरी सलाम लो इस अधूरे काम को जो हमसे रह गया है तुम पूरा करना ।तुम्हारे लिए कार्य क्षेत्र तैयार कर दिया है। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। इन चंद पंक्तियों के बाद मैं रुखसत होता हूं :—–
” To every man upon the Earth, death come soon or late but how can man die
better, than facing of his father and temples of his gods”
शाहजहांपुर के ही एक स्वर्गीय कवि अग्निवेश शुक्ल ने अशफाक के जेल के आखरी रात के भावनाओं को अपने कविताओं के माध्यम से कुछ इस प्रकार पेश किया है :——-
” जाऊंगा खाली हाथ, मगर यह दर्द साथ ही जाएगा,
जाने किस दिन हिंदुस्तान आजाद वतन कहलाएगा
बिस्मिल हिंदू है कहते हैं फिर आऊंगा फिर आऊंगा
ले नया जन्म ऐ भारत मां तुझ को आजाद कराऊंगा
जी करता है मैं भी कह दूं पर मजहब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूं
हां खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूंगा
और जन्नत के बदले उससे एक नया जन्म ही मांगूंगा।”
वास्तव में अशफाक उल्ला खां भारत मां के एक सच्चे सपूत थे। जिसने मात्र 26 वर्ष की आयु में देश की स्वतंत्रता की बेदी पर अपने आप को बलिदान कर दिया। ऐसे सच्चे सपूत को शत शत नमन।
ज्योत्सना अस्थाना
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड