‘अब वतन भी कभी जाएंगे..’

‘अब वतन भी कभी जाएंगे..’

‘अब वतन भी कभी जाएंगे तो मेहमां होंगे’ .. मशहूर शायर मोमिन खां के दिल का दर्द एक दम सच बैठा इंतजार हुसैन साहब पर। इंतजार हुसैन पाकिस्तान के बहुत बड़े अद़ीब हुए हैं। लेकिन उनके किस्से,कहानियों में हिंदुस्तान के प्रति भी उनके बेइंतहा लगाव को देखते हुए कहा जाना चाहिए कि वह पूरे एशिया भर के चहेते अफ़सानानिगार थे।
हुसैन साहब जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जन्म शताब्दी समारोह के मौके पर साहित्य अकादमी दिल्ली में आए तो उन्होंने अलीगढ़ के अपने एक पुराने मित्र के साथ उनके पैतृक घर को खोजने की इच्छा जताई। इंतजार साहब का पुश्तैनी घर बुलंदशहर डिबाई में था । 1947 में बंटवारे के वक्त वतनबदर होकर पाकिस्तान तो चले गए लेकिन अपने घर को दिल में साथ लेते गये। इसीलिए तो आधी सदी से भी ज्यादा वक्त के बाद जब दोबारा हिंदुस्तान आना हुआ तो पहली और आखिरी ख़्वाहिश के तौर पर उन्होंने सिर्फ और सिर्फ एक बार अपने खोए हुए घर को ढूंढना जरूरी समझा। हिंदुस्तान से पाकिस्तान रुख़सती के वक्त उनके अब्बा हुजूर ने किसी हिंदू परिवार को अपना घर बेच दिया था। इत्तेफाकन अब जब उनके घर का पता मिल ही गया तो वहां पहुंचने पर मोहल्ले वालों ने उनका जोरदार स्वागत किया। आरती उतारी गई । घर की बहुओं ने सिर पर पल्लू रखकर इंतजार साहब के पैर छुए। दिल जुड़ा गईं यह सारी बातें और इंतजार साहब को लगा कि जैसे वह कभी कहीं गए ही नहीं । दीवार पर यादें चस्पा थी मानों हिंदुस्तान में बिताए उनके सुहाने बचपन की । और अब वह घर की दीवारों को चूमते-चूमते नहीं थक रहे हैं। सदियों के फासले जैसे पल में मिट गए हों।
इधर अपने देश में यह किस्सा सुखद लगता है तो उधर असग़र वज़ाहत के मशहूर नाटक ‘जिन लाहौर नि वेख्यां’ के सिकंदर मिर्जा जैसे किरदार भी जरूर होंगे उस पराये पाकिस्तान में जिन्होंने शुरुआती नोकझोंक के बाद एक ही घर में साथ रह रही रतन की अम्मा को अपनी सगी मां जैसा दर्जा देकर आखिरी वक्त पर अपना कांधा देने में जरा भी गुरेज़ न किया। लेकिन छोटे मुल्क ने इंतहापसंदगी की बड़ी से बड़ी हद पार कर ली कि कभी बाईस कमरों की हवेली वाली रतन की अम्मा की चिता जलाने के लिए सारे लाहौर में कोई श्मशान नसीब ना हुआ।
यहां भी क्या कम हैं ? जरा-जरा सी बात पर जो जत्था बनाकर निकल लेवें हैं सड़कों पर । फूंकने लगे एक दूसरे के घर। ईंट,पत्थर बरसा कर माथा फोड़ डालने में कोई किसी से पीछे नहीं। गोया इकबाल साहब यही सिखा कर गए हों जैसे कि ‘मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना’।
वतन के बंटवारे के दौर के अधिकतर लिखने वाले सुपुर्द-ए-खाक हो चुके हैं, लेकिन रिसते हुए जख़्म अब भी कराह रहे हैं नज़्मों,किस्सों,कहानियों और उनके हकीक़ती फसानों में। तभी तो खुशवंत सिंह अपने हर मुलाकाती से ये पूछना नहीं भूलते थे कि ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ पढ़ी है तुमने?
लिखा क्या था उन्होंने आखिर इसमें? पढ़कर लगता है जैसे हर लफ्ज़ लिथड़ा हुआ है अभी-अभी जि़बह हुए इंसानो के ताजा खून से। सिर से पैर तक रोंगटे खड़े कर समूचे जिस्म को आंसुओं से तर कर देने वाली सच्ची बात है ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’।
ऐसा कम ही हुआ कि चार सेर गेहूं और हाथ भर लंबी नान पाव मुफ़्त में नसीब होने का हवाला देते हुए हिंदुस्तान में अपना घर बार छोड़कर नए बने मुल्क पाकिस्तान में ठौर-ठिकाना ढूंढने निकले इस्लामी लीग के झंडाबरदार परिवार के जवान लड़के,बहुओं को रेलवे स्टेशन से वापस लौटा लाएं घर से लगी सड़क के दूसरी तरफ रहने वाले पड़ोसी ‘अखंड हिंदुस्तान’ के हिमायती डाक्टर रूपचंद ।
अच्छा हुआ ना ! अम्मा और डॉक्टर साहब के खानदान के तीन पीढ़ियों पुराने आपसी मेल-मिलाप ने कायम की वह मिसाल जो सच्चाई बनकर ‘जड़ें’ में निकली है इस्मत चुगताई की कलम से।
जानते होंगे सब कि इस्मत उर्दू अद़ब की कितनी नामचीन शख़्सियत हुई हैं। उनकी अम्मी और डॉक्टर रूपचंद की तरह ही अगर सब लोग अपना-अपना वजूद आधा-आधा भी भुला दें तो यकीन मानिए हिंदुस्तान- पाकिस्तान में किसी को और ज्यादा दिन याद ना रहेगा कि कभी हम अलग भी हुए थे।
दिलों की दौलत में बरकत आएगी तो खुशमिजाज और बेपरवाह हवा में एक अलग ही अदा से लहराएंगे दोनों मुल्कों के झंडे। यकीन मानिए तरक्की की खुशबू भी उन्हें फूलों से आयेगी जो खिलगें अम़्नो-सुकून के दर पर।

14 और 15 अगस्त की मुबारकबाद दोनों मुल्कों को

प्रतिभा नैथानी
देहरादून

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