स्वतंत्रता आनंदोलन के प्रथम क्रांतिकारी

स्वतंत्रता आनंदोलन के प्रथम क्रांतिकारी

हम लोगों मे से कुछ लोगों ने तिलकामांझी का नाम विश्वविद्यालय के नाम के रूप मे सुना होगा जबकि कुछ ने भागलपुर शहर के एक चौक चौराहे के रूप मे जो कुछ लोग थोड़े से खोजी स्वभाव के होंगे उन्होंने बाबा तिलकामांझी को प्रथम क्रांतिकारी के रुप जाना होगा जबकि सबको यह पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाना चाहिए था क्यों नहीं पढाया गया ये स्वयं मे शोध और विमर्श का विषय है, बहरहाल आईए जानते हैं जबरा पहाड़िया से प्रथम स्वतंत्रता क्रांति के दूत तिलकामांझी की कहानी

जन्म और बचपन

जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को संयुक्त बिहार प्रांत के सुलतानगंज नगर के तिलकपुर गाँव मे एक संथाल परिवार मे हुआ था। इनके पिता का नाम संतरा मुर्मू था जो मुर्मू गोत्र से आते थे।जबरा पहाड़िया ऊर्फ तिलका मांझी बाल्यकाल से हीं पेड़ो पर चढने तीर चलाने आदि मे निपुण थे यही तीर कमान भविष्य मे उनका प्रमुख अस्त्र और पहचान बना।

क्रांति के ज्वाला का प्रस्फुटन

अपनी किशोरावस्था से ही तिलका मांझी अंग्रेजों का अत्याचार देखते आए थे, अंग्रेज किस प्रकार उनके जल जंगल जमीन पर कब्जा किए हुए थे ।
और इनका संघर्ष तो दो मोर्चों पर था
एक अंग्रेज और दूसरे “दिकुम” वो सामंत जो अंग्रेजों से मिले हुए थे और अंग्रेजों का साथ देते थे।

क्रांति का आगाज़

बात 1970 ई की है जब भीषण अकाल पड़ा उन्होंने अंग्रेजी खजाना लूटा और आम लोगों में बांट दिया जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी औरक्ष क्रांतिकारी साथी जुड़ते चले गए और कारवां बननता चला गया

संगी- साथी और संघर्ष क्षेत्र

तिलकामांझी ने गुरिल्ला लड़ाकाओं की अपनी फौज तैयार की थी जिसमें उनके प्रमुख साथी सरदार थे सरदार रमणा अहाड़ी,करिया पुजहर इत्यादि
इनके संघर्ष का क्षेत्र राजमहल और झारखंड की पहाड़ी रही।

प्रमुख विद्रोह जिसने अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ा दी-

तिलकामांझी ने प्रसिद्ध आदिवासी विद्रोह का नेतृत्व करते हुए 1771ई से 1984 ई तक लम्बी लड़ाई लड़ी,तथा 1778 ई मे जब वह अट्ठाइस वर्ष के थे तभी अपने पहाड़िया सरदारों के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध लड़ा और रामगढध कैम्प को अंग्रेजों से मुक्त करवाया था।

13 जनवरी 1784 ई मे तिलका मांझी ने ताड़ के पेड़ पर चढ़कर राजमहल के मेजिस्ट्रेट अगस्टस क्लीवलैंड जो उस समय घोड़े पर सवार थे , को अपने जहरीले तीर से मारा डाला जिस घटना ने अंग्रेजी हुकूमत को कड़ी चुनौती दी अब अंग्रेजौ चुप बैठनेवाले कहाँ थे?

क्यों पड़ा नाम तिलकामांझी??

‘तिलका’ का अर्थ गुस्सैल यानी लाल आँखो वाला व्यक्ति मांझी शब्द पहाड़िया समुदाय मे ग्राम प्रधान के लिए प्रयुक्त होता है और वे ग्राम प्रधान भी थे तो अंग्रेज उन्हें तिलका मांझी कह कर पुकारने लगे क्योंकि ओज उनकी आँखो से अंगार की तरह बरसता था जो उनके आखिरी स्वास तक बरसता रहा इस तरह जबरा पहाड़िया तिलकामांझी हो गए। दस्तावेजों मे भी तिलकामांझी नाम ही उपलब्ध है जबरा पहाड़ियां नहीं।

शहादत
मेजिस्ट्रेट अगस्टस क्लीवलैंड की हत्याकांड से अंग्रेज बौखला गए थ।बौखलाहट के मारे अंग्रेजों ने आयरकूट के नेतृत्व मे तिलकामांझी के गुरिल्ला सरदारों पर जबरदस्त हमला करना प्रारंभ कर दिया जब नहीं जीत पाए तो पूरे इलाके का रसद पानी बंद कर दिया तिलकामांझी को पकड़ना किसी अंग्रेजी सेना के बूते की बात तो थी नहीं तो एक सैनिक टुकड़ी उन्हें गिरफ्तार करने गई और चार चार घोड़े से बांधकर घसीटते हुए उन्हें भागलपुर लाया गया जहाँ उन्हें एक वटवृक्ष पर फांसी पर लटकाया गया।उन्होंने ने अंत समय तक समर्पण नहीं किया। काया भले खून से लतपथ थी किन्तु आँखो मे वही तिलका वाला क्रोध था,और उनकी पंक्तियां हांसी हांसी चढ़बो फांसी आगे कई आन्दोलनों मे क्रान्तिकारियों का वाक्य बना।

साहित्य और इतिहास मे तिलकामांझी

प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने अपनी पुस्तक शाल गिरर् डाके जो कि बांगला भाषा मे है में तिलकामांझी के लिए लिखी हैं।राकेश सिन्हा ने भी एक पुस्तक लिखी है हूल पहाड़िया जिसमें तिलका मांझी के विषय मे चर्चा है।
हलांकि यह अपर्याप्त है तिलकामांझी का संघर्ष और बलिदान इतिहास कार और साहित्यकारों से और अधिक शब्द और शोध की अपेक्षा रखता है!इतिहासकारों की ऐसी क्या विवशता रही होगी कि उनके शोध और शब्द प्रगट नहीं हुए।

सिनेमा में प्रथम स्वतंत्रता सेनानी-हिन्दी मे आजतक कोई तिलका माँझी को केन्द्र मे रखकर सिनेमा नहीं बनी है जबकि वह भोगोलिक रूप से हिन्दी पटटी से आते हैं,सांस्कृतिक रूप से तो वो समपूर्ण भारत के हैं ।कुछ वृत्ति चित्र सोशल साईटस पर उपलब्ध हैं,भाषा हिन्दी नहीं है तो जितना संवाद स्थापित होना चाहिए उतना नहीं हो पा रहा है।यहाँ यह सोचना आवश्यक है कि जब मंगलपांडे पर सिनेमा बन सकता है तो उनसे लगभग अस्सी वर्ष पूर्व के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी पर फिल्म क्यों नहीं बन सकती है?

लोक मे तिलकामांझी
बाबा तिलकामांझी लोक के कण-कण मे समाए हुए है लोक उनके वीर गाथा को लोकगीतों मे गाते गुनगुनाते हैं,

तुम पर कोडों की बरसात हुई
तुम घोड़ों में बांधकर घसीटे गए
तुम भागलपुर में सरेआम
फांसी पर लटका दिए गए
फिर भी डरते रहे ज़मींदार और अंग्रेज़
तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से
मर कर भी तुम मारे नहीं जा सके
तिलका माझी
मंगल पांडेय नहीं, तुम
आधुनिक भारत के पहले विद्रोही थे

फिर भी तुम्हें मारा नहीं जा सका।भागलपुर जिले के विश्वविद्यालय का नाम बाबा तिलकामांझी के नाम पर रखा गया ।स्वतंत्रता दिवस के अवसरपर स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रथम क्रांति कारी को शत् शत् नमन इस आशा के साथ कि उपेक्षा का अवसान हो बाबा तिलकामांझी पर अधिक से अधिक शोधकार्य हों।

कुमुद”अनुन्जया”
भागलपुर(बिहार)

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