शहीद-ए-आजम
” वेदना में एक शक्ति है, जो दृष्टि देती है। जो यातना में है, वह द्रष्टा हो सकता है।”- यह अज्ञेय द्वारा रचित “शेखर एक जीवनी- भाग एक” पुस्तक की पहली पंक्ति है। सत्य है, वेदना मनुष्य को अन्याय का प्रतिकार करना, उसके विरुद्ध मोर्चा लेना और कभी -कभी जान की कीमत लगा कर भी उसके कारण को तहस-नहस कर देने की प्रेरणा देती है।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन इस सत्य को पूर्णरूपेण पोषित करता है। भारत मांँ के जिन भी संतानों के हृदय में अंग्रेजों की गुलामी में जकड़ी अपनी मातृभूमि को देखकर वेदना ने हिलोड़ ली , वह – वह व्यक्ति स्वतंत्रता आंदोलन का वीर सेनानी बना, चाहे अवधि जो रही हो। फेरहिस्त बहुत लंबी है।शक्तिशाली अंग्रेजों की राक्षसी क्रूरता के आगे लगभग छः लाख से भी अधिक स्वतंत्रता सेनानी सीना तान कर खड़े हो गए और इसी का सुपरिणाम है कि आज स्वतंत्र हवा में हमारे गौरव का प्रतीक हमारा तिरंगा लहराकर 135 करोड़ जनता के स्वाभिमान का उद्घोष कर रहा है।
स्वाभिमान की यह कथा जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखी गई है,उन शूरवीरों में एक नाम उनका भी है, जिनके बलिदान ने भारतीय जनमानस को सर्वाधिक उद्वेलित कर दिया और जो “शहीद-ए-आजम” कहकर पुकारा गए , वे हैं- सरदार भगत सिंह।
“लिख रहा हूंँ मैं अंजाम, जिसका कल आगाज आएगा,
मेरे लहू का हर कतरा इंकलाब लाएगा।”
इंकलाब के गीत को अपने होठों पर सजाने वाले सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर ,1907 ईस्वी को पंजाब के जिला लायलपुर में(वर्तमान पाकिस्तान) सरदार किशन सिंह और सरदारनी विद्यावती के आंँगन में हुआ। ईश्वर ने जन्म ही ऐसे परिवार में दिया जहांँ राष्ट्रीय भावना और क्रांतिकारी परंपरा पहले से ही मौजूद थी। सरदारअर्जुन सिंह, नवजात के दादाजी आजीवन अंग्रेजों के कट्टर विरोधी बने रहे। बालक के जन्म के समय पिता सरदार किशन सिंह और द्वय चाचा- सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह- तीनों ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल में बंद थे। बालक के जन्म के कुछ समय बाद तीनों एक – एक कर जेल से रिहा कर दिए गए। इस संयोग से अति प्रसन्न दादी जय कौर ने स्वतंत्रता का संदेश लेकर आने वाले बालक का नाम भाग वाला रख दिया, जो बाद में भगत सिंह में परिवर्तित हो गया।
” खून से खेलेंगे होली, गर वतन मुश्किल में है,
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।”
देश भक्ति और स्वतंत्रता का यह पाठ भगत सिंह को विरासत में ही पढ़ने को मिल गया था।भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह, जो रंगून की जेल से रिहा हुए थे, भारत में अंग्रेज सरकार की गिरफ्तारी से बचने के लिए जर्मनी चले गए , जिनकी आवाज द्वितीय विश्व युद्ध के समय रेडियो जर्मनी पर भारत में सत्तासीन अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते हुए अक्सर सुनाई पड़ती थी। वे स्वदेश लौटे भी तो चालीस वर्ष बाद, जब जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हो गए थे। भगत सिंह ने जन्म से ही उनकी युवा पत्नी हरनाम कौर को एक विधवा की तरह जीवन जीते हुए देखा था। उनके दूसरे चाचा स्वर्ण सिंह, जिन्हें अंग्रेजों ने फिर से गिरफ्तार कर लिया और तब छोड़ा, जब जेल में अमानवीय स्थितियों के कारण टी० बी०का शिकार हो गएऔर 23 साल की युवावस्था में 20 साल की अपनी निसंतान पत्नी हुकुम कौर को छोड़कर चल बसे। भगत सिंह का बचपन ममत्व से भरी इन दोनों चाचियों के आंँसुओं से गीले गोद में बीता।नन्हे भगत के हृदय में अंग्रेजों के लिए रोष का बारूद वहीं से भरना शुरू हो गया। बालक भगत ऐसी हवा में सांँस ले रहा था, जिसमें अंग्रेजों के लिए असीम घृणा और मातृभूमि के लिए अपार भक्ति घुली हुई थी। जिस समय बच्चे परियों की कहानियांँ सुनते हैं, भगत सिंह अंग्रेजों की रूह कँपाने वाली क्रूरताऔर अन्याय का सच सुन रहे थे। यही कारण है कि अपने पिता को खेतों में आम की गुठली बोते देख वह लकड़ियांँ गाड़कर बंदूक की फसल तैयार कर रहे थे, तो 12 साल की उम्र में ही स्कूल जाने की जगह पर लाहौर सेअमृतसर ,जलियांँवाला बाग पहुंँच जाते हैं और वहांँ की खून सनी मिट्टी को एक बोतल में भरकर घर लाकर प्रतिदिन उस पर फूल चढ़ाते हैं। बोतल की मिट्टी के बारे में पूछे पूछे जाने पर अपनी मांँ को कहा था भगत ने,” यह मुझे हमेशा याद दिलाता रहेगा कि मुझे अंग्रेजों से बदला लेना है।” कैसी विडंबना है यह कि अपने ही चाचा सरदार अजीत सिंह, जो बालक भगत सिंह के जीवन के नायक थे, से उनकी भेंट कभी नहीं हो पाई क्योंकि जबतक वे स्वदेश लौटे, तब तक तो भगत सिंह ने खुद को मातृभूमि की बलिवेदी पर समर्पित कर दिया था।
अपने चाचा सरदार अजीत सिंह के अतिरिक्त अगर भगत के बाल मन पर किसी अन्य दिव्य आत्मा का गहरा प्रभाव पड़ा, तो वे थे सरदार करतार सिंह साराभा, जिन्हें 1915 ईस्वी में लाहौर षड्यंत्र के आरोप में मात्र 20 वर्ष की आयु में फांँसी दे दी गई। 8 साल के भगत सिंह पर हंँसते – हंँसते फांँसी के फंदे को चूमने वाले करतार सिंह की ऐसी गहरी छाप पड़ी कि चौबीस घंटे करतार की तस्वीर भगत सिंह के साथ रहती। सराभा की फाँसी के रोज़ क्रांतिकारियों ने जो गीत गाया था, वो भगत सिंह अक्सर गुनगुनाया करते। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ थीं-
“फ़ख्र है भारत को ऐ करतार तू जाता है आज,
जगत औ पिंगले को भी साथ ले जाता है आज,
हम तुम्हारे मिशन को पूरा करेंगे संगियो,
क़सम हर हिंदी तुम्हारे ख़ून की खाता है आज।”
आजादी की भावना को परवान चढ़ाता भगत 1920 ईस्वी में गांँधीजी के असहयोग आंदोलन आहूत करने पर नौवीं क्लास में अपना विद्यालय छोड़ देता है पर बालकों का दल निर्मित कर घर- घर से ब्रिटिश कपड़े इकट्ठा कर उनकी होली जलाता है। आजादी की रणभूमि में भगत सिंह का यह पहला कदम था। परंतु चौरा- चौरी कांड के बाद बापू द्वारा असहयोग आंदोलन वापस ले लेने के कारण विद्यार्थियों के समक्ष आगे अध्ययन की भीषण समस्या उत्पन्न हो गई और ऐसे ही समय में भगत सिंह ने नेशनल कॉलेज ऑफ़ लाहौर, जो लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित किया गया था, में अपना नामांकन करवाया। यह कॉलेज उनकी राष्ट्रवादी भावना के लिए उर्वरभूमि साबित हुआ और यहीं पर उनकी भेंट यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, रामकृष्ण, तीर्थराम, झंडा सिंह जैसे क्रांतिकारियों से हुई। कॉलेज के नेशनल नाटक क्लब ने भी उनके क्रांतिकारी विचारों को “राणा प्रताप”,”भारत दुर्दशा”,” सम्राट चंद्रगुप्त”- जैसे नाटकों के माध्यम से और पुष्ट किया। अध्ययन के प्रेमी भगत सिंह के लिए वहांँ का द्वारकादास लाइब्रेरी वरदान साबित हुआ , जहांँ विश्व के अनेक देशों की क्रांतियों, स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता सेनानियों के किस्सों की किताबें भरी पड़ी थी। यह कॉलेज अध्ययन-अध्यापन का स्थान कम था,क्रांतिकारी विचारों और कार्यक्रमों का चर्चा-स्थल ज्यादा।
घर में विवाह के लिए दबाब बनाए जाने पर भगत का भागकर कानपुर जाना, वहांँ “प्रताप” समाचार- पत्र के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलना, बलवंत सिंह के छ्द्म नाम के साथ क्रांतिकारी आलेख लिखना, बाद में अलीगढ़ जिले के नेशनल स्कूल में प्रधानाध्यापक के तौर पर काम करते हुए पहली बार चंद्रशेखर आजाद से मिलना, अपने गांँव में 1925 ईस्वी में अकाली आंदोलन के कार्यकर्ताओं कीआवभगत करते समय अपना पहला राजनीतिक भाषण देना, अंग्रेजी सरकार के झूठे आरोप में फँसना और गिरफ्तार होना, 60,000 रूपये के मुचलके पर बेल मिलना, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन पार्टी का गठन करना आदि अनेक महत्वपूर्ण घटनाएंँ घटित हुईं।
30 अक्टूबर, 1928 ईस्वी को साइमन कमीशन के विरुद्ध एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन में लाला लाजपत राय को ब्रिटिश पुलिस द्वारा लाठियों से वार कर लहुलुहान कर देना और 17 नवंबर, 1928 को लालाजी का देहांत हो जाना- ऐसी घटना थी, जिसे देख भगत सिंह का खून खौल उठा। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने कमिश्नर स्कॉट को मारने की योजना बनाई, परंतु भूल वश उसकी जगह पर सहायक अधीक्षक सांडर्स मारा गया। अगली सुबह नगर के अनेक दीवारों पर लाल अक्षर से अंकित गुलाबी पोस्टर चिपके पाए गए, जिसमें अँग्रेज़ी शासन को चेतावनी दी गयी थी।क्रांतिकारियों ने सांडर्स को मार कर लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया और भगत सिंह पूरे देश के प्रिय नेता बन गए।
इधर ब्रिटिश सरकार स्वतंत्रता सेनानियों और मजदूर नेताओं के खिलाफ नए कानून बना रही थी। 8 अप्रैल ,1929 को दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में इस कानून पर बहस हुई। बहस के बाद, जब वायसराय ने जनता के विरोध के बावजूद, अपने विशेष अधिकार से कानून को पास किया, तो ठीक उसी समय भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय हॉल में दो बम फेके। उन्होंने” ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो” और “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे लगाए। उन्होंने कहा,” बहरों को अपनी आवाज सुनाने के लिए ऐसे ही धमाके करने पड़ते हैं।”योजना के अनुसार ही उन्होंने गिरफ्तारी भी दी,ताकि स्वतंत्रता आंदोलन की अग्नि में होम डाला जा सके। 12 जून, 1929 को सेशन जज ने दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। भगत सिंह को मैनवली जेल और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर जेल में कैद कर दिया गया। जेल में भी बंद होकर भगत सिंह ने क्रांति की राह नहीं छोड़ी और कैदियों के अच्छे भोजन और सुविधाओं के लिए 5 जून, 1929 से लेकर 5अक्टूबर, 1929 तक भूख हड़ताल किया, हालांँकि इस क्रम में जतिन दास शहादत को प्राप्त हुए। जेल में दिन -रात पुस्तकों में डूबे रहने वाले भगत सिंह की शायरी उनके बारे में क्या खूब कहती है-
” राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है,
मैं एक ऐसा पागल हूंँ, जो जेल में भी आजाद है।”
7 अक्टूबर ,1930 ईस्वी को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सैंडर्स हत्याकांड के आरोप में फांँसी की सजा सुनाई गई। फांँसी का समय प्रातः काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था, पर सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7:30 बजे, कानून के विरुद्ध, एक दिन पहले, प्रातः काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांँसी देने का निश्चय किया। जेल अधीक्षक जब फांँसी लगाने के लिए भगत सिंह को लेने उनकी कोठरी में पहुंँचा तो उसने कहा,” सरदार जी! फांँसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए।” उस समय भगत सिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढ़ने में तल्लीन थे। उन्होंने कहा,” ठहरो! एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।” और एक मिनट बाद जेल अधीक्षक के साथ चल दिए।
फांँसी स्थल पर भगतसिंह ने अपनी दाई भुजा राजगुरु की बाई भुजा में डाली और बाईं भुजा सुखदेव की दाई भुजा में। क्षणभर तीनों रुके और यह गुनगुनाते हुए फांँसी पर झूल गए-
” दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए -वतन आएगी।”
भगत सिंह जब तक जिए,अपनी हर एक साँस आजादी की देवी को समर्पित किए और फांँसी के फंदे को चूम कर अपनी मौत को भी इस तरह प्रायोजित किया कि स्वतंत्रता आंदोलन की आग भभक पर जल उठे।
” मैं रहूंँ या ना रहूंँ पर ये वादा मेरा तुमसे कि
मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा।”
भगत सिंह, आजादी की लड़ाई के ऐसे योद्धा का नाम है, जिन्होंने 23 साल कीअपनी अल्पायु को ऐसे जिया, जो आज उनकी शहादत के 89 वर्ष के बाद भी अदम्य इच्छाशक्ति से भरपूर , ऊर्जावान,निडर, दृढसंकल्पित, ओजपूर्ण विचारधारा से युक्त नायक की भूमिका में भारतीयों के मस्तिष्क पटल पर जिंदा है और यह हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि बहादुरी और बलिदान की इस तस्वीर को हम आने वाली संततियों के हृदय पटल पर उकेरते रहें।
साथ ही, देश के समक्ष यह तथ्य भी स्पष्ट होना चाहिए कि देश को आजादी सशस्त्र क्रांति आंदोलनों और अहिंसक लड़ाई- दोनों के संयोग ही मिली है।परंतु सशस्त्र क्राँति आंदोलनों को आतंकवाद का पर्याय नहीं मान लेना चाहिए। आज की नई पीढ़ी के सामने “आतंकवाद” और “क्रांति “के भेद को स्पष्ट रूप से रखना बहुत जरूरी है। क्रांति का अर्थ और उद्देश्य केवल जुल्म के खिलाफ लड़ना मात्र नहीं होता, उसके बाद तत्कालीन शासन और समाज में अपेक्षित परिवर्तन और सुधार लाना भी होता है, जिसकी बहुत स्पष्ट रूपरेखा क्रांति के नेतृत्व के पास होती है। आतंकवादी क्रांतिकारियों से इस मायने में अलग है कि उनका उद्देश्य स्वदेशहित और देश की स्वाधीनता से जुड़ा नहीं होता। सत्ता, पद, धन, प्रतिशोध जैसे किसी भी उद्देश्य या लालच से विदेशी हाथों में खेलने वाले और अपनी देशभक्त साथियों से विश्वासघात करने वाले देशद्रोही आतंकवादियों को जनता के दुख -दर्द से कुछ लेना -देना नहीं होता। अति आवश्यक है कि आज की युवा पीढ़ी इस सत्य को समझकर अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी की इन कुर्बानियों और शहादतों को जाने, पहचाने, इससे प्रेरणा लेकर अंग्रेजी हुकूमत के बाद वर्तमान भारत के भ्रष्टाचार और आतंकवाद के दैत्यों से लड़ने के लिए आगे आए, अपसंस्कृति के सामाजिक प्रदूषण को काटकर अपने भीतर क्रांतिकारियों जैसा जज्बा पैदा कर देश के नवनिर्माण का भागीदार बने।
जय हिंद।
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड।