खोयी हुई आजादी…
भीतर गहराई से हम स्वतंत्र प्राणी हैं। लगभग। जन्म के समय हमारी स्वतन्त्रता का बोध कराने के लिए, हमें बंधन मुक्त करने को नाभि की नाड़ भी काट दी जाती है, इसी तथ्य को दर्शाते हुए कि हमारा मूल संबंध स्वयं से होता है, न कि अन्यों से। ‘स्व-तंत्र’ का मतलब है हम पर हमारा ही शासन। ‘इन-डिपेंडेंस’ का भी मतलब है निर्भरता से मुक्ति। एक व्यक्ति के तौर पर हमारा खुद पर नियंत्रण हो और हम दूसरों के मोहताज न हों, तो यही स्वतंत्रता है, आज़ादी है। आज़ादी का सीधा तात्पर्य है हमारी ज़िंदगी से जुड़े सभी निर्णय लेने और विकल्प चुनने की पूरी आज़ादी। आज़ाद होना, स्वतंत्र होना कोई छूने की बात नहीं है, वो महसूस करने की बात है।
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ का आरम्भ महर्षि दयानन्द सरस्वती ने किया और इसकी वेदी पर पहली आहुति दी मंगल पांडे ने। देखते ही देखते यह यज्ञ चारों ओर फैल गया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्यां टोपे, नाना राव और बिहार में बाबू कुंवर सिंह जैसे योद्धाओं ने इस स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने रक्त की आहुति दी। दूसरे चरण में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ लिए रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि देश के लिए शहीद हो गए। तिलक ने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का उद्घोष किया व सुभाष चंद्र बोस ने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का मंत्र दिया। अहिंसा और सहयोग का अस्त्र लेकर महात्मा गांधी और गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को तत्पर लौह पुरुष सरदार पटेल ने अपने प्रयास तेज कर दिए।
आजादी मिलने से पहले आजादी का जो ‘अर्थ’ था इस समय वह नहीं है। राजनीतिक रूप से आज हम सभी भारतवासी प्रतिवर्ष 15 अगस्त को आजादी की वर्षगांठ मनाते हैं। भारत में आजादी के अर्थ निरंतर बदलते रहे। सबने अपने-अपने ढंग से आजादी का मतलब निकाला है। गरीब आदमी के लिए आजादी का अर्थ गरीबी से आजादी है। अशिक्षित व्यक्ति के लिए आजादी का अर्थ अशिक्षा से आजादी है। ऐसे ही सभी वर्गों और व्यक्तियों के लिए आजादी के अलग-अलग मायने है, लेकिन इस समय बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से आजादी अनिवार्य हो गया है। जिस अर्थ और भाव के साथ सबने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें जो ‘अर्थ’ दिया था, हम कहीं-न-कहीं उससे भटक गए हैं। कुव्यवस्था की विडम्बना ने उसे विद्रूप बना दिया है।कैदी रहते हुए जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत की खोज’ की थी। किताब हमारे पास है लेकिन वह भारत हमारे पास नहीं है। कहाँ है, कोई जानता नहीं है। किताब में और यथार्थ में कितना फर्क है, इसे समझना हो तो हमें ‘भारत की खोज’ पढ़नी चाहिए।
आजादी की लड़ाई में तीन अलग-अलग कालखंडों में तीन अलग-अलग स्वर गूंजे थे: एक, जब तिलक ने कहा था: ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे’! तिलक संकल्प मांग रहे थे, महात्मा गांधी वचन मांग रहे थे और सुभाष चंद्र बोस बलिदान मांग रहे थे। तीनों मिल कर एक ही चीज मांग रहे थे: ‘गुलाम भारत की आजादी- गुलामी से मुक्त भारत’!अब तिलक, गांधी और सुभाष तीनों नहीं हैं। पटेल, जवाहरलाल, राधाकृष्णन, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद कोई नहीं है। और हम खोज रहे हैं- वह आजादी गई कहाँ जो हमें 73 साल पहले मिली थी? यह हमें कहीं पड़ी, गिरी नहीं मिली थी। बहुत त्याग-बलिदान और संघर्षों के बाद हमने उसे हासिल किया था।
आज हम खोज रहे हैं कि वह आजादी किधर रख दी गई है जिसके लिए हमने संविधान बनाया, न्यायतंत्र खड़ा किया और संसद रची? इतनी विधानसभाएँ और इतने विधायक। ये सभी आजादी के गर्भ से ही तो पैदा हुए हैं। लेकिन आजादी गई किधर? क्या किसी को पता है यह? सांसद हों, या के न्यायमूर्ति हों या नौकरशाह, यही पूछता मिलता है- वह आजादी कहाँ का हमने सपना देखा था और जिसका सपना हमें दिखाया गया था?आजादी मुश्किल से मिलती है। उससे भी मुश्किल से संभाली जा पाती है, क्योंकि वह आखिरी आदमी से शुरू होती है और आखिरी आदमी पर समाप्त होती है। यह यांत्रिक नहीं है कि अपना झंडा हो, अपनी सरकार हो, अपनी संसद और अपना अखबार हो; कि फौज हो, पुलिस हो। यह सब हो लेकिन किसके लिए हो, यह कसौटी है आजादी की।
देश की आजादी के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले यह जानना नहीं चाहेंगे कि प्रति व्यक्ति आय का राष्ट्रीय औसत क्या है, बल्कि वे यह जानना चाहेंगे कि भारतीय समाज के व्यक्ति की खरी आय कितनी है ? योजना आयोग का नाम बदल कर नीति आयोग क्यों किया, वे यह नहीं पड़ेंगे लेकिन यह जरूर पूछेगे कि जिसकी योजना बना रहे हो या जिसके लिए तय कर रहे हो, उसकी इसमें क्या भूमिका है। अंतिम आदमी की भागीदारी और उसकी सहमति के बिना बनी कोई योजना या नीति विफल होगी। गाँधी बार-बार सावधान करते रहे थे कि कोई भी समाज तब तक ही आजाद और सुरक्षित रह सकता है, जब तक वह अपने सबसे अंतिम आदमी की, सबसे कमजोर की, सबसे अल्पसंख्यक की और सबसे असुरक्षित की फिक्र करता हो, उसके साथ जुड़ता हो और उसके संरक्षण में तत्पर रहता हो। गांधी के लिए यह सब आदर्श नहीं है बल्कि किसी राष्ट्र के जीवंत होने और स्वतंत्र होने के लिए जरूरी तत्व है, ठीक वैसे ही जैसे सांस लेना जीने के लिए आदर्श नहीं, जरूरी शर्त है।
आजादी हमारे हाथ इसलिए नहीं आती कि हमारे हाथ में आज कुछ भी नहीं है। न शासन है, न साधन हैं, न कानून है, न न्याय है। हमारा लोकतंत्र एक बहुत बड़ी भीड़ है जिसे कभी कोई तो कभी कोई उसी तरह हांकता है, जिस तरह भेंडें हांकी जाती हैं। राजनीतिक दलों के लिए देश मतदाताओं का ऐसा बाजार है जिसमें उन्हें अपना ‘माल’ बेचना है वह जिस रास्ते, जिस कीमत पर बिके, बिके। नौजवानों के लिए देश बेरोजगारों की फौज है। बीमारों के लिए देश ऐसा अस्पताल है जिसमें उनके लिए जगह नहीं है। किसान के लिए देश एक ऐसा खेत है जिसमें न पानी है, न बीज, न बाजार ! वह कुछ भी बोता है लेकिन उगती है सिर्फ मौत; और सरकार? वह हर इंसानी जान की कीमत पैसों में अदा कर फुर्सत पा जाती है। न तिलक ने, न गांधी ने और न सुभाष ने ऐसा आजादी और अपने नागरिकों के ऐसे हाल की कल्पना की थी। फिर भी यह आजादी के है, क्योंकि इस आजादी को बेहतर है बनाने की आजादी इसमें है।
विक्टर फ्रैंक की हृदय-स्पर्शी कृति– मैन’ज़ सर्च फॉर मीनिंग (Man’s Search For meaning), की पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात को सामाप्त करता हूँ…..
…तथापि, स्वाधीनता अंतिम शब्द नहीं। स्वाधीनता कहानी का एक हिस्सा मात्र है व अर्ध-सत्य है। स्वतन्त्रता उस सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच का नकारात्मक पहलू है जिसका सकारात्मक पहलू है – उत्तरदायित्व। सही मायने में कहा जाये तो स्वतन्त्रता पर निरंकुशता के रूप में विघटित होने का खतरा मंडरा रहा है, यदि इसे ज़िम्मेदारी के रूप में न समझा व जिया गया। यही कारण है कि मेरी संस्तुति है कि यदि पूर्व के छोर पर “स्टेचू ऑफ लिबेर्टी” है तो पश्चिम छोर पर “स्टेचू ऑफ रेस्पॉन्सिबिलिटी” स्थापित कर उसे संपूरित किया जाये…।
जय हिंद !!
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामना
डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार