पूर्ण स्वराज के प्रणेता

पूर्ण स्वराज के प्रणेता

“मरण” और “स्मरण”- इन दो शब्दों में यों तो “स्” अक्षर का ही अंतर है, परन्तु, इस छोटे से शब्द को कमाने के लिए जीवनपर्यंत लोकहित और आदर्शवादी विचारधाराओं पर चलना पड़ता है,जिसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक।1अगस्त,2020 को उनके पुण्यतिथि की शताब्दी मनायी गयी।बहुआयामी प्रतिभा के धनी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक शिक्षक, अधिवक्ता, पत्रकार  समाज सुधारक, चिंतक, दार्शनिक, प्रखर वक्ता, नेता, स्वतंत्रता सेनानी एवं भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के सशक्त पथ प्रदर्शक थे। “स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा”- उनके लिए इस मूल सिद्धांत ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सही मायने में भारतीय बना दिया था। इस मंत्र ने स्वतंत्रता आंदोलन को लोक- आंदोलन में बदल दिया, उसकी गति बढ़ा दी और एक नई दिशा दे दी। इसी वजह से बाल गंगाधर तिलक को “लोकमान्य” की उपाधि मिली। उनके सपनों का भारत पूर्णरूपेण स्वतंत्र और लोकतंत्र के सिद्धांतों पर खरा उतरने वाला भारत है। “पूर्ण स्वराज”पर आधारित भारत की संस्कृति और सभ्यता को वह अग्रणी पंक्ति में देखना चाहते थे।

लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र राज्य के रत्नागिरी जिले के गाँव, चिखली में हुआ था। अंग्रेजी शिक्षा के घोर आलोचक लोकमान्य तिलक यह मानते थे कि अंग्रेजी शिक्षा भारतीय सभ्यता के प्रति अनादर सिखाती है इसीलिए उन्होंने दक्कन शिक्षा सोसायटी की स्थापना की ताकि शिक्षा का स्तर सुधरे। अंग्रेजी समाचार पत्र ” मराठा दर्पण” और मराठी समाचार पत्र ” केसरी” को आरंभ कर उन्होंने लोगों में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति जागरूकता जगाने की कोशिश की। बाद में, वह राजनीतिक क्षेत्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के सदस्य के रूप में जाने गए। भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान और समाज को पूर्णतया आंदोलन से जोड़ने के लिए तथा लोगों में राष्ट्रप्रेम की भावना उत्पन्न करने के लिए उन्होंने गणेश उत्सव और शिवाजी जयंती की शुरुआत की। उनका यह मानना था कि अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गौरव करना ही लोगों को एकजुट करेगा और देश प्रेम की भावना को इससे बल मिलेगा। श्रीमद्भागवत गीता के सन्यास भाव से लोग अवगत तो थे ही,परंतु लोकमान्य तिलक ने “गीता- रहस्य” लिखकर गीता के कर्म योग के भाव को भी जनता के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। उनकी यह पुस्तक अपने चिंतन से आज भी लोगों का मार्गदर्शन कर रही है।भारत,भारतीय दर्शन और भारतीय जनमानस को पूर्णतया समझने वाले लोकमान्य तिलक के स्वभाषा और स्वसंस्कृति के प्रति जो विचार थे,वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और वर्तमान समाज के लिए मार्गदर्शक हैं। उनका कहना था कि सच्चा राष्ट्रवाद पुरानी सभ्यता और संस्कृति की मजबूत नींव पर ही स्थापित हो सकता है,इसीलिए अपनी संस्कृति और अपनी भाषा पर गर्व करना जरूरी है। अस्पृश्यता के प्रबल विरोधी तिलक ने जाति और संप्रदाय में बैठे समाज को एक करने के लिए एक बड़ा आंदोलन चलाया। उनका कहना था कि यदि ईश्वर अस्पृश्यता को स्वीकार करें तो मैं ऐसे ईश्वर को भी अस्वीकार कर दूँगा। गणेश उत्सव और शिवाजी जयंती जैसे सार्वजनिक लोकोत्सव से उन्होंने समाज के हर वर्ग को आंदोलन से जोड़ा, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा और दशा ही बदल दी। लोकमान्य तिलक की ऊर्जा से ही जहाँ महात्मा गांधी को स्वदेशी का मंत्र मिला,मदन मोहन मालवीय को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण की प्रेरणा मिली तो वहीं सावरकर एवं अरविंदो घोष क्रांति के मार्ग पर निकल पड़े।एक समाज सुधारक के रूप में बाल विवाह जैसी कुरीतियों को भी उन्होंने समाज से उखाड़ फेंका। अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिए जाने जाने वाले तिलक का कहना था कि सिर्फ अन्याय और अत्याचार करनेवाला ही दोषी नहीं ,अन्याय सहने वाला भी उतना ही बड़ा दोषी होता है। लोकमान्य तिलक को श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने उन्हें “आधुनिक भारत का निर्माता” कहा,तो जवाहरलाल नेहरू ने “भारतीय क्रान्ति का जनक” कहा।यह तो सर्वसिद्ध है कि उनकी विचारधारा ने स्वतंत्रता आ़ंदोलन को सही मायने में जन-आंदोलन बना दिया,जिसकी वजह से हर व्यक्ति इस स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक अद्भुत और तेजस्वी व्यक्तित्व थे,जिनकी ‘पूर्ण स्वराज’ की विचारधारा आज भी हमारे लिए पथप्रदर्शक बनी हुई है।आज हमारे संविधान में सार्वभौमिकता,स्वतंत्रता और अधिकारों का उल्लेख बहुत हद तक लोकमान्य तिलक के विचारों से प्रभावित है।आज हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को उनके विचारों से मार्गदर्शन लेने की जरूरत है और समस्याओं का समाधान जन आंदोलन की तरह एकजुटता के साथ करने की आवश्यकता है।कुछ समस्याओं जैसे स्वच्छता अभियान और पर्यावरण सुरक्षा आदि को लोकमान्य तिलक के अनुरूप ही जन आंदोलन के रूप में चलाए जाने का प्रयास किया गया है, परन्तु सबसे ज्यादा जरूरी है अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को आगे लाना और उनपर गर्व करना,जो लोकमान्य तिलक के अनुसार किसी भी देश के विकास की पहली सीढ़ी है।अपने सभी स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति नतमस्तक होते हुए हम सदा लोकमान्य तिलक द्वारा बताए मार्ग पर चलकर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहें।

✍️अर्चना अनुप्रिया
पटना, बिहार

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