वीरता और विद्वत्ता का अद्भुत समन्वय
मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक…
भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग है। भारत की धरती पर जितनी भक्ति और मातृभावना उस युग में थी, उतनी कभी नहीं रही। 1857 की क्रांति के बाद हिंदुस्तान की धरती पर हो रहे परिवर्तनों ने जहां एक ओर नवजागरण की जमीन तैयार की, वहीं विभिन्न सुधार आंदोलनों और आधुनिक मूल्यों की रोशनी में रूढ़िवादी मूल्य टूट रहे थे। हिंदू समाज के बंधन ढीले पड़ रहे थे और स्त्रियों की दुनिया चूल्हे चौके से बाहर नए आकाश में विस्तार पा रही थी। इतिहास गवाह है कि इस से पहले इतने बड़े पैमाने पर महिलाएं सड़कों पर नहीं उतरीं थी। पूरी दुनिया के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं। ऐसे ही समय में महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में उतरने वाली महिला सेनानियों में सरोजिनी नायडू जी का नाम बहुत गर्व से लिया जा सकता है।सरोजनी नायडू भारत कोकिला के साथ-साथ एक क्रांतिकारी देशभक्त और कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। उन्होंने राजनीतिक क्षितिज को विशेष आभा प्रदान की। सरोजनी नायडू उन रत्नों में से एक थीं जिन्हें गोखले और गाँधी जैसे महान नायकों ने गढ़कर महिमामण्डित किया था।
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और माता वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे।मात्र 14 वर्ष की उम्र में सरोजिनी ने सभी अंग्रेजी कवियों की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था। 1895 में हैदराबाद के निजाम ने उन्हें वजीफे पर इंग्लैंड भेजा। 1898 में उनका विवाह डॉ. गोविन्द राजालु नायडू से हुआ, जो कि एक अंतर्जातीय विवाह था। उस समय जब समाज में महिलाओं की स्थिति कोई ज्यादा सम्मानजनक नहीं थी। महिला समाज में की कुप्रथाओं का चलन जोरों पर था। छोटी उम्र में शादी,सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं के दौर में यह फैसला निस्संदेह एक साहसिक कदम था। उन्होंने चार बच्चों को जन्म दिया। उनकी दूसरी संतान कुमारी पद्मजा नायडू स्वतंत्र भारतमें पश्चिम बंगाल की राज्यपाल बनीं।
इस युग में महिलाओं का राजनीति में आना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी।श्रीमती सरोजिनी नायडू की महात्मा गांधी से प्रथम मुलाकात 1914 में लंदन में हुई और गांधी जी के व्यक्तित्व ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और उसके बाद वह उनके हर आंदोलन में कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ चलती रहीं और 43 साल बाद उनकी मृत्यु तक उनके साथ रहीं। उन्हीं ने गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ कहना शुरू किया था। एक बार उन्होंने गांधी जी को जमीन पर बैठे देखा था। वे पिचके हुए टमाटर, जैतून के तेल और बिस्किट से रात का भोजन कर रहे थे। वे उनकी ओर देखकर हंसीं और कुछ व्यंग्यात्मक टिप्पणी की। उनके विनोदी स्वभाव के कारण उन्हें ‘गांधी जी के लघु दरबार में विदूषक’ कहा जाता था। दक्षिण अफ्रीका में वे गांधीजी की सहयोगी रहीं। उन्होंने स्वयं के लिए अपना एक जीवन-दर्शन बनाया था- दूसरों की सेवा करना और सादा जीवन बिताना।
इस दौरान उन्होंने भारतीय समाज में फैली कुरीतियों के लिए भारतीय महिलाओं को जागृत किया। सरोजिनी नायडू ने अस्पतालों में स्त्री-रोगियों की सहायता करना¸लड़कियों के लिए विद्यालयों की संख्या बढ़ाना आदि सामाजिक कार्य भी किये। महिलाओं के लिए वोटिंग के अधिकार को लेकर भी उन्होंने आवाज़ उठाई। उन्होंने भारतीय महिलाओं के बारे में कहा था,’जब आपको अपना झंडा संभालने के लिए किसी की आवश्यकता हो और जब आप आस्था के अभाव से पीड़ित हों तब भारत की नारी आपका झंडा संभालने और आपकी शक्ति को थामने के लिए आपके साथ होगी और यदि आपको मरना पड़े तो यह याद रखिएगा कि भारत के नारीत्व में चित्तौड़ की पद्मिनी की आस्था समाहित है।’
भारत की स्वतंत्रता के लिए विभिन्न आंदोलनों में सरोजिनी नायडू जी ने काफी महत्वपूर्ण सहयोग दिया। काफी समय तक वे कांग्रेस की प्रवक्ता रहीं। 1905 में बंगाल के बंटवारे के समय इंडियन नेशनल मूवमेंट में वह सक्रिय रहीं। इस दौरान वह गोपाल कृष्ण गोखले जी से भी मिलीं। वे गोपालकृष्ण गोखले को अपना ‘राजनीतिक पिता’ मानती थीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने 1908 में मिला ‘कैसर-ए-हिन्द’ सम्मान लौटा दिया था। भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें आगा खां महल में सजा दी गई। 1925 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनीं।उन्होंने 1930 में नमक कानून तोड़ने के लिए महात्मा गाँधी की डाँडी यात्रा में भाग लिया।गोपाल कृष्ण गोखले¸ सरोजिनी नायडू और महात्मा गाँधी-तीनों ही हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे।तत्पश्चात् भारत स्वतंत्र हुआ। उसके बाद सरोजिनी नायडू को उत्तर प्रदेश का प्रथम राज्यपाल नियुक्त किया गया, जो उस समय ब्रिटिश ताज के तहत एक प्रभुत्व रखती थीं। सरोजिनी नायडू का निधन 2 मार्च 1949 में हुआ था।
एक सहृदय कवयित्री सरोजिनी नायडू का जिक्र आते ही एक ऐसी महिला की भी छवि उभरकर सामने आती है जो कई भाषाओं में महारत रखती थी। जिसकी लिखी कविताएं हर तरफ धूम मचाती थीं। जिसकी सुरीली आवाज की वजह से महात्मा गांधी ने उसे ‘भारत कोकिला’ की उपाधि दी थी। देश की इस महान स्वतंत्रता सेनानी के साहित्यिक जीवन के बारे में अब उतनी चर्चा नहीं होतीं, पर उनकी लेखकीय मेधा का लोहा किशोरवय में ही बड़े- बड़े लेखकों ने मान लिया था. वह अंग्रेज़ी, हिंदी, बंगला और गुजराती में दक्ष थीं. हालांकि उनका शुरुआती लेखन अंग्रेजी में था, पर कालांतर में अपनी मातृभाषा से उनका लगाव जगजाहिर है।लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की ‘लेडी ऑफ़ दी लेक’ यानी ‘झील की रानी’ नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अपनी शिक्षा के दौरान वह इंग्लैंड में केवल दो साल तक ही रहीं, किंतु वहां के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों पर अपनी रचना प्रतिभा की छाप छोड़ दी।उनके मित्र और प्रशंसकों में ‘एडमंड गॉस’ और ‘आर्थर सिमन्स’ जैसे लोग शामिल थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। सरोजनी ने इस बात को बेहद गंभीरता से लिया। आजादी के आंदोलन के साथ वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएं और लेखन कार्य करती रहीं। उनके कुछ सुप्रसिद्ध काव्य-संकलन थे- ‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ (1905)¸¸‘ द फायर ऑफ लंदन’ (1912)¸ ‘द बर्ड ऑफ टाइम’ (1912) तथा ‘द ब्रोकेन विंग’ (1917)। अपनी इन्हीं कविताओं के कारण लोगों ने उन्हें भारत कोकिला की उपाधि दी थी। मातृभूमि को समर्पित उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां यों हैंः
‘श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल.’
पर ‘भारत कोकिला’ को देश की आजादी पुकार रही थीं. उन्होंने अपने को कवि मानने की बजाय हमेशा राष्ट्रभक्त ही माना। और इसीलिए वह एक कवयित्री, देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनेता के रूप में अपने योगदान के लिए हमेशा याद रखी जाएंगी।
✍️सीमा भाटिया