मुक्तिधन
प्रेमचंद की हर कहानी अपने आप में बेजोड़ है। कोई न कोई सामाजिक संदेश उसमें छिपा ही होता है। लेकिन पिछले बरस भिन्न-भिन्न समुदाय के लोगों के गौमांस खाने संबंधी स्वीकारोक्तियों पर हिंदुस्तान जितना उबलता जाता था, मुंशी प्रेमचंद की लिखी ‘मुक्तिधन’ कहानी मेरे दिल को उतना ही ज्यादा याद आती गई । इस कहानी में एक हिंदू लाला दाऊदयाल के पास आर्थिक जरूरतों के चलते कोई मुसलमान आदमी अपनी गाय बेच देता है । जरूरतें फिर भी पूरी नहीं होती तो उसके बाद वह व्यक्ति एक-दो बार फिर आता है उनसे उधार मांगने। किन्तु चुकाने में एक अरसे बाद भी असमर्थ।अंत में लाला दाऊदयाल ये कहकर स्वयं उसका कर्जा माफ कर देते हैं कि अपना मुक्तिधन तो तुम बहुत पहले ही अदा कर चुके हो ये गाय मुझे बेचकर। जितना दूध हमने इतने वर्षों में इससे पी लिया है , उसका दाम ही तुम्हारे ऊपर चढ़े कर्जे से कहीं अधिक होगा। और ब्याजस्वरूप इससे बछड़े भी मिले, सो अलग!
क्या कभी सोचा होगा किसी ने कि एक दिन गाय के नाम पर इतने खून-खराबे होंगे?। लेकिन प्रेमचंद वास्तव में अपने समय से कहीं बहुत आगे के साहित्यकार थे। इसीलिए झूरी के दो बैलों के बाद उन्होंने गाय को भी अपनी सोच में यथासंभव शामिल किया। वह जानते थे शायद कि कलयुग का चरम आएगा तो लोग गाय के दूध से कहीं ज्यादा उसका मांस खाने पर आमादा हो जाएंगे । कहानी के पात्र भी समुदाय विशेष से ही चुने गए हैं। ताकि समाज में संदेश व्यापकता से पहुंचने में कामयाब रहे।
‘मुक्तिधन’ के माध्यम से वास्तव में कथा सम्राट ने अपने पाठकों को समझा दिया -“गाय में इतनी सकारात्मक ऊर्जा होती है कि वातावरण में उपस्थित सारी नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास अपने-आप हो जाता है”।
“ईश्वर ने अपने बाद मनुष्य को ही सबसे ऊंचा ओहदा प्रदान किया है। अब वह ईश्वर को भी माने या न माने परन्तु उसकी श्रेष्ठता इसी में है कि प्रकृति के सभी छोटे – बड़े जीवों को अपनी जिह्वा लोलुपता का शिकार न बनाऐ वरन उनका संरक्षण करे”।
प्रतिभा नैथानी
देहरादून, उत्तराखंड