मुन्शी प्रेमचंद
कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट कहानी सम्राट लघु कथा, प्रेमचंद जी की रचनाओं में ग्रामीण परिवेश रहन सहन जीवन शैली देखते ही बनती है उनकी किसी भी कहानी लघु कथा या निबंध आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है उनके किसी एक रचना को रुचि कर बताना बहुत ही मुश्किल कार्य है उनके कहानी या लघु कथा के पात्र के साथ पाठक स्वयं को सहज जोड़ लेता है, कहानी के पात्र के साथ-साथ स्वयं को अनुभव करने लगता है।
प्रेमचंद की कहानियों में जो विवशता महिलाओं की.. मजदूरों की, और दलितों की दिखाई गई है उनमें आज भी कोई खास बदलाव नहीं दिखता है…
मुन्शी जी की कहानी “बूढ़ी काकी” मुझे बहुत प्रभावित करती है, क्यूँकि आज भी हमारे समाज में, बुद्धि राम जैसे अनेक लोग हैं जो अपने बुजुर्गों की संपत्ति हड़प कर उनके जीवन को नर्कमय बना देते हैं बूढ़ी काकी के पति के स्वर्गवास के बाद उसकी सारी संपत्ति उसका भतीजा अनेक वादों के साथ अपने नाम कर लेता है जैसे ही संपत्ति हाथ आती ही बूढ़ी काकी को दाने दाने का मोहताज कर देता। यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आए। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी ।
। लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख़ मारकर रोतीं परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती। इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव-शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।…..
ब्राह्मणों के विशेष भोज के आयोजन के दौरान बूढ़ी काकी का बार-बार रेंग कर चूल्हे तक आना और बुद्धि राम और उसकी पत्नी द्वारा घसीट कर जलील करते हुए वापिस बूढ़ी काकी को कोठरी पर वापिस पटक देना संवेदनहीनता की पराकाष्ठा मालूम पड़ती है….. वहीं दूसरी तरफ बुद्धि राम की छोटी बेटी लाडली बूढ़ी काकी के प्रति निश्छल प्रेम और दया भाव रखती है।
एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निष्कृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता मानो ज़मीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई आपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा– परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।…..
जब रूपा को अपनी गलती का एहसास होता है तो वह पश्चाताप की ज्वाला में धधक रही होती है हर बार भगवान के सामने हाथ जोड़कर क्षमा याचना करती है और भंडार में जाकर सभी व्यंजन एक थाली में सजाकर बूढ़ी काकी को खिलाने लगती है बूढ़ी काकी सारे दुख दर्द भूल कर, रोम रोम से मानो स्वादिष्ट भोजन का रसास्वादन कर रही होती है….. इस कहानी की हर पंक्ति अत्यंत मार्मिक और भावविभोर कर देने वाली है……
अनिता वर्मा
साहित्यकार