जुगनू अम्मा

जुगनू अम्मा

आज सुबह से ही मन उदास सा है। रात भर नींद नहीं आई थी और अब सात बजने पर भी आंखें खुल नहीं रही हैं। फटाफट फ्रेश होकर गैस पर चाय चढ़ा दी और तेज पत्ती डालकर कप में छानकर बाहर बालकनी में आ गया। आजकल सुबह कितनी सुहानी हो गई है। चिड़ियों का मधुर कलरव,हल्की धूप के साथ साथ कंपनी की ओर से मिले मुंबई के पव्वई के इस फ्लैट की बालकनी में समुद्र तट से आते हवा के झोंके मन की उदासी को कम तो नहीं कर पाए, पर एक सुकून सा भर गए भीतर तक कहीं और मैं वहीं आराम कुर्सी पर बैठ गया । लॉकडाउन के चलते दफ्तर का सारा काम घर पर ही निपटाना पड़ता है, इसलिए कोई जल्दी नहीं होती तैयार होने की। भीड़भाड़ के चलते फ्लैट से दफ्तर जाने में लगने वाला एक घंटा बच जो जाता है। अब तो ठाठ से नाश्ता करके तैयार होकर लैपटॉप के सामने बैठना होता है दस बजे। अभी काफी समय है मेरे पास, तो रात को गांव से आए मामा जी के फोन ने मुझे स्मृतियों के समुद्र में गोते लगाने के लिए फुर्सत दे दी है। हालचाल पूछने के बाद फोन काटने से पहले थोड़ा रुक कर बोले थे मामाजी, ” अरे हां यार योगी, तुम्हें बताना ही भूल गया कि तेरी जुगनू अम्मा नहीं रही।”

और इसी खबर ने रात की नींद उड़ा दी थी मेरी। सारी रात करवटें बदलते हुए निकल गई थी। क्या रिश्ता था मेरा जुगनू अम्मा से जो इतनी बेचैनी महसूस होती रही सारी रात। आंखों के सामने बस वही शीशे के चमचमाते जार और उनमें रखी रंग बिरंगी मीठी गोलियां घूमती रही, जिनमें उनकी बेशुमार ममता भरी हुई दिखाई पड़ती थी। जुगनू अम्मा, यह असली नाम नहीं था उनका। असली नाम तो केसरी बाई था। जब मैं पहली बार उनसे मिला, तब वह मुश्किल से पैंतालीस साल की रही होंगी। रंग एकदम गोरा, दुधिया; जैसे अभी अभी-अभी चांदनी की रोशनी में धुला कर आया हो। कद काठी सामान्य था, पर गांव की ही महिलाओं की तरह एक दम तंदरुस्त व चेहरा लाली से भरा हुआ। मेरे मामा जी के गांव में एक दो कमरे के छोटे से मकान में वह अपने बच्चों के साथ अकेली रहती थीं । इससे पहले भरा पूरा परिवार था उसका। पति का साया तो खैर बहुत साल पहले ही सिर पर से उठ गया था। तब मुनिया पांच साल का रही होगी और गोद में भवानी था तब दूध पीता छोटा सा बच्चा। सास ससुर ने बहुत कोशिश की मनाने की कि वह देवर से चादर डलवा ले ताकि बच्चों को सहारा मिल जाए। पर शराबी और निट्ठल्ले आदमी के साथ घर बसाने से बेहतर केसरी को यही लगा कि अपने ससुर के साथ खेतों में जाकर काम करके पति की निशानी उस दो बीघा जमीन को हरा भरा करे और बच्चों का पेट भर सके।

गाड़ी धीरे धीरे पटरी पर आने लगी थी,और दोनों बच्चे गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भी जाने लगे थे। पर एक दिन घर में तूफान मच गया, जब देवर सोहने ने शराब पी कर हंगामा खड़ा कर दिया,” बापू! मैनूं कुछ नहीं पता। बस मुझे मेरे हिस्से की जमीन दो। सारी उम्र का ठेका नहीं ले रक्खा हमने भरजाई और इसके बच्चों का।” बूढ़े बाप की कमर तो पहले ही टूट चुकी थी अपने बड़े बेटे के असमय चले जाने से, और अब यह बवाल। खूब हंगामा हुआ। केसरी और बच्चे सहमे हुए एक तरफ खड़े हो सारा तमाशा देखते रहे। बात गाली गलौज से बढ़कर हाथापाई तक आ पहुंची और इसी चक्कर में सोहने ने जोर से धक्का मारा, तो बापू का सिर दीवार पर जा लगा। कमजोर शरीर यह सब सह नहीं सका, और खून ज्यादा बह जाने से कुछ ही दिनों में साथ छोड़ गया। किस्मत ने अभी और जाने कितने रंग दिखाने थे। पंचायत बैठी और केसरी के दावे को खारिज करते हुए सारी जमीन सोहने के नाम कर दी। यह तो गनीमत रही कि मकान में रहने का मालिकाना हक केसरी को मिल गया। सोहना अपना हिस्सा बेच कर बूढ़ी मां को भी बिलखते छोड़ दूसरे किसी गांव चला गया, जिसके बाद उसने कभी अपने परिवार की सुध तक नहीं ली।

मजबूरी जो न कराए, कम है। पापी पेट बहुत कुछ करवा लेता है। भवानी और मुनिया की परवरिश के साथ साथ बूढ़ी सास की जिम्मेदारी ने वो सब भी करने पर मजबूर कर दिया, जो कभी सपने में भी नहीं सोचा था। बच्चों के स्कूल में ही साफ सफाई और छोटे बच्चों को पानी पिलाने का काम मिल गया था उसे। उसके बाद वह मिड डे मील बनाने में पारो और रानी की मदद भी कर देती थी। इसके बदले सारे परिवार का खाने का जुगाड़ भी हो जाता था और घर खर्च के बाद बचे हुए पैसे वह डाकखाने में जमा करवा देती थी, ताकि भविष्य में बच्चों के काम आ सकें। भवानी और मुनिया बचपन की दहलीज लांघ कर युवावस्था में पहुंच चुके थे, वहीं बूढ़ी सास अपनी जीवन यात्रा खत्म कर साथ छोड़ जा चूकी थी। मुनिया देखने में अपनी मां से भी ज्यादा सुंदर और जवान निकली थी, तो सत्रह साल की होते होते ही दसवीं कक्षा पास करते ही उसकी शादी तय कर दी थी।

वक्त का पहिया घूमता जाता है, आखिर वह कोई थकता थोड़ी है इंसानों की तरह। सुख की बौछारें हों, या गमों की आंधियां..इस पहिये को तो घूमना ही है अपनी धुरी पर। हां, हम इंसानों को इसकी गति के कम या ज्यादा होने का आभास होता रहता है और वह आभास सिर्फ हमारे मन का होता है, वरना घड़ी तो पूरे चौबीस घंटे बाद अगले दिन का एलान कर ही देती है। यहीं वो पल थे, जब मेरी जिंदगी थम सी गई थी ‌। उन्हीं दिनों मैंने अपनी मां को खो दिया था। तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। पिता जी गहरे अवसाद में डूब गए थे और मैं ..मैं तो कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उस भगवान ने मुझे किस बात की सजा दी थी? जिंदगी ढर्रे पर चलने लगी थी, तो पिता जी का तबादला दिल्ली हो गया। पर नए परिवेश में स्थापित होने में कुछ समय लगना था, इसलिए मामा जी मुझे अपने घर ले आए थे। तभी मामा जी के साथ मुनिया की शादी में जाने का अवसर मिला था और अपने हमउम्र भवानी से दोस्ती का भी। हम रोज शाम को नदी के किनारे पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर बंटे खेलते थे। कभी कभी वह मुझे अपने घर ले जाता, जहां केसरी ताई अपने हाथों से बनाकर मक्की की रोटी और उस पर ढेर सारा मक्खन लगा कर खिलाती थी और वापसी पर मुझे घर में रखे शीशे के चमचमाते जार में से कुछ चूसने वाली खट्टी मीठी गोलियां निकाल कर जरूर देती। वे संतरे के स्वाद वाली छोटी छोटी गोलियां बिल्कुल जुगनू की तरह चमकती हुई प्रतीत होती थी जार में। कुदरत का भी खेल अनोखा है, जहां एक बच्चे को असमय मां की ममता से महरूम कर दिया था, वहीं उसकी जगह एक दूसरी मां ने अपने स्नेह और वात्सल्य से भर दिया था जो जुगनुओं की तरह जीवन को रोशन करने लगा था फिर से। दसवीं की परीक्षा देते ही पिता जी ने मुझे अपने पास दिल्ली बुला लिया था। बस तभी से स्मृतियों के पटल पर केसरी ताई जुगनू अम्मा बन कर अंकित हो गई थी।

धीरे धीरे पढ़ाई लिखाई में व्यस्त हो जाने पर स्मृतियां कुछ धूमिल होने लगी थीं। मैंने बारहवीं कक्षा की पढ़ाई समाप्त करने के बाद इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला ले लिया था। तभी एक बार फिर से गांव जाने का अवसर मिला। मामा जी की अचानक तबीयत खराब होने की वजह से मुझे पिता जी के साथ उन्हें देखने जाना पड़ा क्योंकि तब मैं आखिरी सेमेस्टर की परीक्षा के बाद कुछ दिनों के लिए फ्री हुआ था। हम लोग शाम को पहुंचे, तो मामा जी की तबीयत ठीक न होने की वजह से और दवा के असर की वजह से नींद में होने के कारण ज्यादा बात नहीं हो सकी उनसे। पिता जी थोड़ी देर आराम करने के लिए लेट गए और मैं थोड़ा बहुत नाश्ता कर टहलने के लिए बाहर निकल आया।

गांव में आकर केसरी ताई से मिलने की अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए मेरे कदम अपने आप ही उनके घर की ओर मुड़ गए। एक पल के लिए तो हैरान रह गया था घर का बदला हुआ नक्शा देख कर। घर के दरवाजे के साथ लगने वाले कमरे की दीवार तोड़ कर वहां एक छोटी सी दुकान तैयार कर दी गई थी जिसके बाहर लकड़ी का दरवाजा निकाल दिया गया था। काउंटर के नाम पर एक बड़ा ऊंचा सा मेज लगाया गया था, जिस पर तरह-तरह के बिस्कुट, नमकीन और वे रंग बिरंगी गोलियों के जार चमचमा रहे थे। अंदर एक छोटा स्टूल पड़ा था, जिस पर कुछ थैलियों में कुछ छिटपुट दालें वगैरह भी पड़ी थी। भीतर केसरी ताई बिल्कुल अकेली एक टूटी फूटी चारपाई पर गुमसुम सी बैठी थी। दुकान के अंदर जाने का रास्ता बाहर के दरवाजे से ही होकर जाता था। मैं बिना किसी झिझक के अंदर चला गया और सत श्री अकाल बोलकर चारपाई के पास ही खड़ा हो गया। केसरी ताई तो पहचान में ही नहीं आ रही थी। इन आठ सालों में वह बिल्कुल बदल गई लग रही थी। सुडौल शरीर वाली , हट्टी कट्टी केसरी ताई इन छह सात सालों में ही बूढ़ी लगने लगी थी। बदन पर लटकते ढीले ढाले कपड़े, जिसमें ऊपर एक झबला और नीचे पेटीकोट रहता था हमेशा और सिर पर शॉल की तरह ओढ़ा हुआ सफेद दुपट्टा।

“कौन हो बेटा तुम? क्या चाहिए?” वह मुझे देख सकपका कर उठ खड़ी हुई, शायद मुझे पहचानने की कोशिश कर रही थी।

“केसरी ताई, मैं योगेश..मेरा मतलब योगी। पहचाना नहीं?”

“अरे बेटा तू..माफ़ करना बेटा, नजर कमजोर हो गई है और तू तो गबरू निकल आया है रे।” मेरी पीठ पर सहलाते हुए बोली,”चल आ जा अंदर के कमरे में बैठ। वैसे भी बंद करने लगी थी इसे। इस टाइम वैसे भी कौन सा गाहक ने आना। चल तू अंदर चल, आ रही हूं मैं।” थोड़ा सा झिझक कर मैं अंदर चला गया। मेरी आंखें भवानी को ढूंढ रही थी। पांच सात मिनट में ही केसरी ताई अपनी छोटी सी दुकान बाहर से बंद कर भीतर आ गई।

“अरे खड़ा क्यों है? बैठ न योगी बेटा। कब आया सहर से? सब ठीक है न? पढ़ाई पूरी हो गई तेरी। अरे बैठ न, मैं तब तक तेरे खाने के लिए कुछ लाती हूं।” एक ही सांस में बोल गई केसरी ताई। मुझे इतने सालों बाद मिलने की खुशी के साथ साथ एक अव्यक्त पीड़ा भी थी उनके चेहरे पर।

“नहीं ताई, मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है। मैं मामी के घर से अभी खाकर ही आया हूं। भवानी दिखाई नहीं दे रहा? कहीं बाहर गया है क्या?”

केसरी ताई पता नहीं कब से भरी बैठी थी। सारा किस्सा लेकर बैठ गई “मैंने उसे घर से निकाल दिया। कम्बख्त के सारे लच्छन अपने चाचा जैसे ही निकले! कितने अरमान थे कि पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बनेगा, तो मेरी जून भी सुधर जाएगी। बारहवीं कक्षा में आते आते ही अपने रंग दिखाने लगा। नशा भी करने लगा था और गांव के सरपंच की लड़की के पीछे पागल हो गया था। बथेरा समझाया, पर इश्क का भूत सिर पर सवार था। उसे भगा के ले गया सहर। मेरे सारे जेवर निकाल कर लें गया कम्बख्त।पर वो लोग थोड़ी छोड़ने वाले थे उसे। पकड़ लाए दोनों को। खूब पिटाई करी और अंदर करवा दिया भवानी को बेटी को अगवा करने का आरोप लगा कर। बड़ी मुश्किल से तरले मिन्नत कर छुड़वा कर लाई, पर अपनी हरकतों से बाज नहीं आया फिर भी। इसलिए बेदखल कर दिया मैंने सारी पंचायत के सामने।”

“पर यह दुकान..आप तो स्कूल में नौकरी करती थी न ताई?” मेरी उत्सुकता चरम सीमा पर थी।

“पुत्तर दिन खराब हों, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। एक आंख की रोशनी चली गई मेरी मुआ ब्लड प्रेसर बढ़ने से, तो स्कूल वालों ने भी थोड़े पैसे देकर चलता कर दिया।बस उसी से यह दुकान खोल कर बैठ गई।”

“और भवानी कहां है आजकल?”

“बेदखल तो कर दिया, पर एक मां के लिए अपने बच्चों को छोड़ना कोई आसान नहीं होता। सहर जा कर मजदूरी करने लगा था, पर अपनी बुरी आदतों से बाज नहीं आया। नशे ज्यादा लेने की वजह से शरीर खराब हो गया था उसका, तो नशा छुड़ाओ केंद्र में भर्ती करवा आई थी पिछले साल और बचे खुचे पैसों से बेटी और जंवाई यह दुकान खोल कर दे गए। आखिर पेट तो भरना ही है न?” केसरी ताई ने मेरी तरफ सवालिया नज़रों से देखा, पर मैं निशब्द सा हो गया था। कुछ भी सूझ नहीं रहा था। थोड़ी देर अपना हाल चाल बता कर मैं वहां से निकल आया।

अगले दिन मामा जी की तबीयत कुछ संभल गई थी। दोपहर के खाने पर मैंने केसरी ताई की बात छेड़ दी,”इतनी जीवट महिला मैंने अपनी सारी जिंदगी में नहीं देखी योगी। किस्मत ने कितनी ठोकरें दिलाई, फिर भी डटी हुई है और जूझ रही है उनसे।”

“पर मुनिया अपने पास क्यों नहीं ले जाती उसे?” पिता जी ने सवाल उठाया था।

“जीजाजी ! इस बात का जवाब आप मुझ से बेहतर जानते हो। आप तो शहरों के पढ़े लिखे लोग इन दकियानूसी सोच से आगे बढ़ गए हो। पर गांव में आज भी कुछ लोग बेटी के घर का पानी तक नहीं पीते। केसरी भरजाई को हम लोगों ने भी खूब समझाया, पर वह अपने बेटी जंवाई पर बोझ नहीं बनना चाहती। कहती है जब तक हाथ पांव चलते हैं, करूंगी, उसके बाद रब्ब राखा।” उसके बाद भी मैं आने से पहले केसरी ताई से मिलने गया और उसके हाथ की मक्की की रोटी का फिर इतने सालों बाद आनंद लिया था। बाद में मजाक मजाक में बोली,”योगी, अभी भी वो संतरे के स्वाद वाली गोलियों का एक जार दे दूं?” और मैं हंस पड़ा। आते आते जबरदस्ती मेरे हाथ में सौ रूपए रख दिए और कांपते हाथों से आशीर्वाद दिया। उस समय हम दोनों की आंखें नम थी।बस यही आखिरी मुलाकात थी केसरी ताई से मेरी।

उसके बाद नौकरी लगते ही मैं महानगर की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में मसरूफ हो गया। पिता जी की रिटायरमेंट में अभी वक्त है, इसलिए वह अभी दिल्ली में ही रह रहे हैं। मामा जी से भी ज्यादा बात नहीं होती थी। बस दो महीने पहले ही एक बार फोन पर इतना ही बताया था कि भवानी ठीक हो कर घर आ गया है और अब सुधर भी गया है। गांव वालों के समझाने पर पंचायत ने भी केसरी ताई से उसे बेदखल करने के फैसले को वापस करने को तैयार कर लिया था। पर अक्सर कुछ फैसले अपने हाथ नहीं होते। तभी तो उसके बाद कल रात मामा जी के इस फोन ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। कोई खास रिश्ता नहीं था मेरा केसरी ताई से, पर उस ज़िंदादिली से भरपूर देवी ने मेरे मन मस्तिष्क पर एक गहरी छाप छोड़ दी थी। जुगनुओं से भी तेज प्रकाश से देदीप्यमान ऐसा व्यक्तित्व विरले ही देखने को मिलता है, तभी तो जुगनू अम्मा जैसी कोई खूबसूरत कहानी पन्नों पर उतरती है।

सीमा भाटिया
लुधियाना, पंजाब

0
0 0 votes
Article Rating
137 Comments
Inline Feedbacks
View all comments