मशाल

मशाल

दरवाजे की घंटी बजी।मैंने किवाड़ खोला और सामने श्यामा खड़ी थी। वह चुपचाप घर में प्रवेश कर गई। मेरी निगाहें उसका पीछा करती हुई उसके मुखमंडल पर छाई भाव -भंगिमा को पढ़ने लगी। आज उसके चेहरे पर मुझे उल्लास की कोई रेखा दिख नहीं रही थी। उसकी चुप्पी में उदासी के बादल छाए हुए थे। इसके पहले मैं घटनाक्रम को आगे बढ़ाऊँ, अपने पाठकों को श्यामा का परिचय दे देती हूंँ ।श्यामा- मेरी सहायिका , जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में नौकरानी कहते हैं।चौबीस-पच्चीस साल की नवयुवती ,अपने नाम के ही अनुरूप श्याम वर्ण, दुबली -पतली काया, साधारण नैन- नक्श की स्वामिनी परंतु सलीकेदार पहनावा-ओढ़ावा उसके रूप को आकर्षक बना देता है। पिछले एक साल से मेरे घर में मेरी सहायिका बन वह मेरे जीवन में भी शामिल हो चुकी है और मैं भी उसके अनेक स्वाभावगत विशेषताओं तथा उसके जीवन क्रम में अब तक के उथल- पुथल से कुछ हद तक परिचित हो चुकी हूंँ।

अब बारी मेरे द्वारा प्रश्न किए जाने की थी, “क्या बात है?” और इतना कहते ही वह आवेशित होकर बोलने लगी,” मांँ के सिवा कोई अपना नहीं होता।” उसके चेहरे पर दुख की फैलती रेखा मुझे असमंजस में डाले जा रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि आगे प्रश्न करूंँ या उसकी निजता का सम्मान करते हुए चुप रहूंँ। इस अनिर्णय की स्थिति से मुझे निकालते हुए वह खुद ही बोल पड़ी,” सुलेखा के फोन पर कोई बार -बार फोन कर अश्लील बातें कर रहा है। नंबर ब्लॉक कर देने पर भी उसके मैसेजेस आ रहे हैं। बहुत गंदे- गंदे हैं अंटी।” मैं भौंचक, कहा” किसी पुरुष से क्यों नहीं बात करवा देती। “अब वह बोली,” हांँ,कराया था एक रिश्तेदार से। उसे भी वह गंदी – गंदी बातें बोल रहा था। सुलेखा अभी पुलिस- स्टेशन जाएगी।” यकीनन शिकायत दर्ज करवाने। बात सिर्फ इतनी होती तो श्यामा मेरे आगे न रो पड़ती। वास्तव में सुलेखा ने इन सब बातों के लिए श्यामा को जिम्मेदार ठहराते हुए कह दिया था कि यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है। तुम्हारे ससुराल वालों की ही करतूत है।

आप सोच रहे होंगे कि सुलेखा कौन? जी सुलेखा, श्यामा की छोटी बहन, अविवाहित। अब पाठकगण को यहाँँ यह बताना जरूरी हो गया है कि श्यामा विवाहिता है,तीन बच्चों की मांँ। अबोधावस्था में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई थी और इस कारण उसकी मांँ ने तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही उसका विवाह कर दिया था। ससुराल में पति के अलावे सास- ससुर और अपना पक्का मकान। ससुर ने सारी जिम्मेदारियाँ संभाल रखी थी एवं श्यामा की जिंदगी को भी। बालिका वधू श्यामा के साथ अगर कोई अनुचित व्यवहार करता तो उसके पिता समान ससुर उसके संरक्षक बन खड़े हो जाते, हमेशा। परंतु ससुर की मौत के बाद स्थितियांँ बदलने लगीं। अकर्मण्य पति, शराब पीना और सैर – सपाटा ही जिसके उत्तरदायित्व में आते थे, के कारण श्यामा को दूसरों के घरों में चौका- बर्तन का काम करने के लिए अपने पांँव बाहर निकालने पड़ें। दिनभर की जी -तोड़ मेहनत- बाहर ,दूसरों के घरों में और लौटकर घर की सारी जिम्मेदारियांँ उठाने के बाद भी बदमिजाज पति के हाथों उसे हमेशा ही शारीरिक प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता था। कहने को शारीरिक प्रताड़ना, परंतु शरीर से अधिक तो स्त्री का मन घायल होता है, अपमान और तिरस्कार को लात -घूँसों के रूप में पाकर। ऐसे अनेक घावों को तो भरने की क्षमता समय के हाथ में भी नहीं होती। जब शराबी एवं संवेदनहीन पति की प्रताड़ना दिनचर्या में शामिल हो गई, तब एक दिन वह अपने ससुराल का त्याग कर अपनी मांँ के घर आ गई, हमेशा के लिए। यहांँ आकर भी वह अपनी मांँ पर बोझ ना बने, इसलिए कुछ घरों में चौका – बर्तन का काम ढूंँढ लिया। इस कठोर निर्णय के बाद भी उसने अपनी ढहती वैवाहिक जिंदगी को संभालने की कोशिश न की, ऐसी बात नहीं। बच्चों की ममता उसे बार-बार खींचकर उसके ससुराल ले जाती रही और शायद कहीं ना कहीं बहू का कर्तव्य भी। जब भी वह वहांँ जाती, इकट्ठे किए हुए पैसों से अपने बच्चों की जरुरत के ढेर सारे सामान लेकर जाती, लेकिन पति के कटु व्यवहार और उपेक्षा की ठोकर खा पुन: उसी घर में वापस लौट आती, जहांँ उसकी मांँ और छोटी बहन रहती है। उसके जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आए, जब ससुराल पक्ष के रिश्तेदारों ने उस पर ससुराल वापस आने के लिए दबाव बनाया। श्यामा खुद भी तो यही चाहती थी कि वह अपने घर में अपने पति और बच्चों के साथ रहे। पर इन सारी चीजों के बीच एक पक्का आश्वासन भी चाहती थी कि उसका पति उसके साथ अमानवीय और हिंसक व्यवहार और न करे । यह तो हर स्त्री चाहेगी, परंतु न तो श्यामा को अपने पति के द्वारा और ना ही किसी रिश्तेदार के द्वारा यह आश्वासन मिल पाया और जीवन के ऐसे हीआरोह- अवरोह के बीच श्यामा ने अलग रहने का दृढ़ निश्चय कर लिया। समय के इस चक्र में श्यामा दाम्पत्य जीवन तो क्या,अपनी ममता को भी बचा नहीं पाई। उसके पति ने छल- कपट का सहारा ले उसके तीनों बच्चों को भी उससे छीन लिया। इसके पीछे उद्देश्य शायद यह रहा होगा ,श्यामा को बिल्कुल अकेला कर तोड़ देना या अत्यधिक दबाव बनाकर फिर से उसी नारकीय जीवन का चुनाव करने के लिए बाध्य कर देना।

मेरी कथा में ऐसी कोई घटना नहीं है, जो समाज में अनोखे रूप से घटित हो गई है। घरों के दायरे के अंदर रिश्तों में छिपे हिंसा भाव किस तरह शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना का रूप धारण कर व्यक्ति विशेष के जीवन को अधोमुखी कर देते हैं, ऐसे एक-दो किस्से या अनुभव सभी के पास होंगे। तो फिर कथा को लिखने के पीछे कारण क्या है?

मुझे श्यामा की कहानी व्यथित तो करती है ,पर एक पहलू जो सबसे ज्यादा कचोटता है, वह है- श्यामा मेरे अलावा मोहल्ले के कुछ और घरों में भी चौका -बर्तन का काम करती है। तकलीफ तो तब होती है, जब वह आकर दूसरी महिलाओं के वक्तव्य को मेरे सामने आहत भाव से रखती है। “शर्मा भाभी कह रही थी- श्यामा तुम कब तक मांँ के सिर पर बैठी रहोगी।” इसी तरह मिश्राइन ने कहा–” घर- गृहस्थी चलाने के लिए औरत को बहुत कुछ सहना पड़ता है।” किसी ने तो यहांँ तक कह दिया-” ससुराल छोड़ कर आई हो, तुम्हें ही लोग चरित्रहीन कहेंगे।” पंडिताइन कहांँ पीछे रहने वाली थी, बोल पड़ी-” अरे, जब मारता है तो बाहर भाग जाती। कोई अपना ससुराल छोड़ कर आता है क्या।”

मैं उसे तो यह कह कर समझा देती हूंँ कि बेकार की बातों पर ध्यान नहीं देते। परंतु खुद कुछ प्रश्नों में उलझ कर रह जाती हूँ। वैवाहिक जीवन की सफलता या असफलता किसी स्त्री के चरित्र को मापने का पैमाना कैसे बन सकता है? श्यामा या अन्य कोई स्त्री विशेष अगर परिवार के अंदर घरेलू हिंसा का शिकार होती है, वह भी जी- तोड़ मेहनत और ईमानदार समर्पण के बदले; तो क्या उसे अपने लिए अलग राह पर चलने की इजाजत नहीं है? क्यों उसके आत्मबल और आत्मसम्मान की कद्र हम महिलाएंँ ही नहीं कर पाती? क्यों ऐसी शोषित, पीड़ित महिलाओं का संबल बनने के बजाय उन्हें फिर से मानसिक क्लेश की आग में झोंक देना चाहती हैं, जिससे वह हीन भावना से ग्रस्त हो आत्मग्लानि में डूब जाएँँ। इनके उत्तर क्या हैंं- किसी वयक्ति विशेष की निजी सोच, उनका परिवेश या यह कहावत,” जाके पांँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।”

वजह चाहे जो भी हो, जब आप एक सभ्य समाज का अंग हैं, तो आपको दूसरों की निजता और आत्मसम्मान की कद्र करनी चाहिए। किसी को पूर्णरूपेण जाने- समझे बिना अपनी टिप्पणी चिपका देना कहांँ तक न्यायोचित और तर्कसंगत है?

श्यामा मुझे बरबस प्रभा की याद दिला देती है जो हिंदी के महान विभूति, अमर रचनाकार प्रेमचंद की एक कहानी “प्रेमसूत्र” की नायिका है। प्रभा पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे पशुपति नाथ वर्मा, कहानी के एकमेव पुरुष पात्र की धर्मपत्नी है। पशुपति , जो एक नन्ही बच्ची का पिता भी है, एक नवयौवना कृष्णा के प्रति अत्याधिक अनुराग और वासना रखता है और अंत में प्रेमोन्मत्त पशुपति नाथ कृष्णा से विवाह करने के अपने फैसले को प्रभा को सुनाता है और यह भी कि वह कृष्णा को दूसरे घर में रखेगा और प्रभा के यहांँ दो रात और एक रात उसके यहांँ रहेगा। स्तंभित प्रभा,जो इस स्थिति का पूर्वानुभव कर , बहुत पहले से भावनाओं के ज्वार- भाटे में डूब रही थी, अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ती है और जब होश आता है, तब वह अपनी बेटी शांता के साथ अपनी मांँ के घर जाने की इच्छा व्यक्त करती है।” बहुत अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन मुझे छोड़ दो, मैं अपनी मांँ के घर जाऊंँगी, मेरी शांता मुझे दे दो।” बस इतना ही कह पाती है प्रभा अपने पति पशुपतिनाथ को।

प्रेमचंद ने अपनी इस कथा में नायिका प्रभा को भावनात्मक रूप से आहत और सशंकित तो दिखाया है, जैसा इस कहानी के घटनाक्रम में किसी भी औरत का ऐसा होना स्वाभाविक है। परंतु उसे गिड़गिड़ाते हुए चित्रित नहीं किया। उनकी नायिका, अगर अपने पति से बहुत प्यार करती है, तो समय आने पर स्वाभिमान की रक्षा करना भी जानती है और वह भी मर्यादित व्यवहार के साथ। प्रेमचंद ने अपनी कथा में अपनी नायिका को इतना सशक्त बनाया है कि जीवन -संगी की धृष्टता पर वह अपने लिए एक पृथक राह के चयन हेतु दृढ़निश्चयी भी दिखती है। कथा में इसी तथ्य को समर्पित करते हुए एक जगह प्रभा के पक्ष में प्रेमचंद ने लिखा भी है,” इसमें संदेह नहीं कि प्रभा को अपने पति से सच्चा प्रेम था, लेकिन आत्मसमर्पण की तुष्टि आत्मसमर्पण से ही होती है। वह उपेक्षा और निष्ठुरता को सहन नहीं कर सकता।” प्रेमचंद का रचनाकाल 1908 ईस्वी से 1936 ईस्वी तक रहा है। अगर आज से अस्सी से सौ वर्ष पूर्व वह नारी के स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपनी कलम से प्रभा का ऐसा चरित्र निरूपित कर सकते हैंं, तो भला आज के समााज मेंं हम नारी के स्वाभिमान हेतुु उसके न्यायोचित संघर्ष में उसका निष्पक्ष सहयोग क्यों नहीं कर पाते। नारी ही क्यों, किसी भी पीड़ित के साथ हमारा व्यवहार सदभावनापूर्ण तो हो, कम- से -कम हमारे शब्द तो संघर्ष की राह में लघुता का बोध उन्हें न दें।

मुझे खुशी है कि प्रेमचंद् की” प्रभा “की तरह मेरी नायिका ” श्यामा “भी खुद्दारी की राह की पथिका है, जो अपने कटु अनुभवों को पीछे छोड़ परिश्रम को अपना हमराही बना नई डगर की राही बन चुकी है।स्त्री चेतनाऔरस्वाभिमान की जो मशाल प्रेमचंद्र ने प्रभा के हाथ में पकड़ाया था, आज उसी मशाल के प्रकाश से श्यामा का जीवन दीप्त हो रहा है|

रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड

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