युगदृष्टा प्रेमचंद
प्रेमचंद युग भारत की दासता का युग था। उस समय देश का जीवन जीर्ण शीर्ण हो गया था ।आडंबर और सामंतवाद का बोलबाला था। वह भारत की अधोगति का समय था किंतु धीरे धीरे अंग्रेजों के अधीन होते हुए भी देश में पुनरुत्थान की भावना जागृत होने लगी।प्रेमचंदजी ने एक सजग, ईमानदार और प्रगतिशील कथाकार होने के कारण इन परिस्थितियों को आंखों से ओझल नहीं होने दिया वरन पूर्ण कलात्मकता के साथ इन्हें अपने साहित्य में चित्रित करने का प्रयत्न किया ।प्रेमचंद जी ने कहा कि साहित्य समाज और राजनीति के संबंध अटूट हैं और तीनों मनुष्य के कल्याण के लिए हैं। प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य इस विचार का प्रमाण है कि वह राजनीतिक संकट , संघर्ष तथा देश की स्वतंत्रता को अपना प्रमुख लक्ष्य मानकर मार्ग दिखाने वाली मशाल की तरह निरंतर जलते रहे और साहित्य के द्वारा जन जागरण करते रहे। प्रेमचंद ने यद्यपि अपने साहित्य में समाज, धर्म, अर्थ संस्कृति, इतिहास, शहर और गाँव आदि अनेक विषयों का विस्तार से चित्रण किया है किंतु सभी के मूल में है विदेशी दासता से मुक्ति और स्वराज की स्थापना। उनके जीवन और साहित्य दोनों का लक्ष्य स्वराज ही था। प्रेमचंद जीवन भर इस लक्ष्य पर केन्द्रित रहे। प्रेमचंद अपने राजनीति दर्शन में गरीब किसानों और मजदूरों का स्वराज देखते थे। हिंदू, मुस्लिमों में सांप्रदायिक एकता चाहते थे। हरिजनों को शोषण मुक्त कर एक ऐसा राष्ट्र बनाना चाहते थे जिसमें सभी धर्मों, जाति, भाषा के भेद के बावजूद सब बराबर हों। उनके मन में स्वतंत्र भारत की एक कल्पना थी जो राम राज्य से मिलती है। वह गांधी को अहिंसा, सत्य, न्याय,सत्याग्रह और स्वाधीनता संग्राम में साक्षी और अपने साहित्य को महान स्वाधीनता संग्राम का आईना बनाने में सफल थे। स्वतंत्रता के बाद समय के साथ परिस्थितियां बदली हैं और मन:स्थिति भी। पहले हमारा जीवन धर्म से परिचालित था। उसमें पाखंड और अंधविश्वास होने के बावजूद कुछ मूल्य थे। आज धन का बोल बाला है सुख की परिभाषा बदल गई है।अधिक से अधिक धन कमाना मनुष्य के जीवन का उद्देश्य हो गया है। जीवन के हर क्षेत्र में बाजारवाद ने कब्जा कर रखा है। वर्तमान युग बाजार और उससे उत्पन्न सांस्कृतिक, सामाजिक परिवर्तनों का है।साहित्य में बाजार को लेकर जितनी उलझन आज हैं पहले नहीं थी जबकि बाजार पहले भी थे साहित्य में भी और समाज में भी ।
मानव द्वारा निर्मित बाजार मानव पर ही हावी क्यों हो गया? इसका मुख्य कारण है कि तकनीकी विकास के साथ जैसे-जैसे सपने यथार्थ से दूर होते गए बाजार हमारे मानव मस्तिष्क पर हावी होता गया। पारंपरिक बाजार जरूरतों का सौदागर था, आधुनिक बाजार सपनों का सौदागर है। यहां तक कि मनुष्य खुद वस्तु बन बाजार में पहुंच गया है। इंसान, इंसानियत यहां तक कि आत्मा भी। यह बाजार की सबसे दुखद स्थिति है जो भविष्य के लिए नई चिंताएं पैदा करती है और जिन्हें हम साकार रूप
में देख भी रहे हैं और भोग भी रहे हैं।
‘ईदगाह’ और ‘कफन’ कहानी में प्रेमचंद जी ने भविष्य के दो रूपों का पूर्वानुमान किया था ।प्रेमचंद जी मानते थे परिवार समाज का आधार है।’कफन’ में परिवार के विखंडन की जो झलक मिलती है तो इसके पीछे समाज दोषी है । ‘ईदगाह’ जैसी कहानी में सब कुछ टूट बिखर गया है और दो ही सदस्य बाकी है। एक बुढ़ी दादी और दूसरा नन्हा सा पोता हामिद। हामिद जब मेला देख कर लौटता है तो खिलौने और बताशे की जगह वह दादी के लिए एक चिमटा खरीद लाता है। यह चिमटा दादी की तकलीफ को दूर करने के लिए है जो वह आग की चिन्गारियाँ हाथ से उठाते समय झेलती है। चिमटा आग की उन चिंगारियों को पकड़कर रखने के लिए है जिस पर परिवार की परंपरा अभी जीवित है और दूसरी ओर वह शस्त्र भी है जो समाज से रक्षा भी करता है।
प्रेमचंद जी की यह धारणा थी कि मानव अर्थपिशाच का दास है ।अर्थ के अभाव में भूखा प्यासा मानव पशुतुल्य हो जाता है। निरंतर की भूख प्यास एवं अभाव उसे मानव से राक्षस बना देते हैं ।उनकी कहानी ‘कफन’ शिल्प एवं संवेदना की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। घीसू और माधव बाप बेटा हैं और जाति के चमार हैं।वे जिन्दा लाश की तरह जीते हैं। उनमें कोई मानवीय संवेदना बाकी नहीं है। दुर्गणों का भंडार हैं दोनों।घर में गर्भवती बुधिया के प्रसवपीड़ा से मर जाने पर कफन के नाम पर आए पैसों की वे शराब पी जाते हैं और इसका उन्हें कोई पश्चाताप भी नहीं हैऔर न ही बदनामी का कोई डर। इन भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था ।कफन यथार्थवादी कहानी है और मानव मनोविज्ञान पर सटीक बैठती है।
उस समय का भविष्य अर्थात आज का वर्तमान ‘ईदगाह’ के बजाय ‘कफन’ का अनुगामी बना। आदर्शों का अवमूल्यन और निर्मम वास्तविकता की प्रतिष्ठा हुई और उसका परिणाम हम झेल भी रहे हैं।आज साहित्य की भूमिका यह बताना भी है कि वह युवा समाज को बाजार
के खतरों से सावधान करे।जो भी हो परिस्थितियाँ कितनी भी विकट क्यों न हो निराश होने की जरूरत नहीं है। ‘है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?’सच तो यही है कि जहाँ प्रेमचंद जी का साहित्य परतंत्र भारत में मुक्ति का आधार बना वहीं स्वतंत्र भारत में भीवह मनुष्य की मुक्ति और निर्माण का मंगलकारी दर्शन बन सकता है।
आनन्द बाला शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड