रमजीता पीपर
रमजीता पीपर से गाँव की पहचान है या गाँव से इस पीपल के पेड़ की इसके बारे में दद्दा से ही पता लग सकता है। दद्दा की उम्र बहुत अधिक नही है, यही 70 के लगभग, पर लोग उन्हें दद्दा कहने लगे हैं, शायद उनके ददानुमा कहानियों और बातों के कारण हो, या गाँव में जिसका नाम जो पड़ जाता है, लोग उसे उसी नाम से पुकारने लग जाते हैं।
दद्दा जब 1971 की लड़ाई के बाद पूर्वी बॉर्डर से सही सलामत लौट आये थे, तो लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया था, जैसे वे बंगलादेश में पाकिस्तान के पूर्वी कमांड के सेना प्रमुख नियाज़ी को सरेंडर कराकर लौटे हों। गाँव के लोगों का अपार स्नेह देखकर वे भी फौज से सेवा निवृत्त होने के बाद अपने परिवार के साथ गाँव में ही रहने लगे।
रमजीता पीपर और गाँव के बीच में पइन है, जो बड़ी नहर से जुड़ा है, इसलिए उसमें हमेशा पानी रहता है। रमजीता पीपर के सामने बड़ा सा घास का मैदान है, जिसमें गाँव के जानवर दिनभर घास चरते हैं। घास के मैदान के पश्चिमी छोर पर देवी स्थान है।
इस पीपल की जड़ पूरे मैदान को पार कर देवी स्थान तक पहुँच चुका है। गाँव के जो लड़के ज्यादा पढ़ाकू किस्म के नहीं थे पर शारीरिक गठन और डिल डौल ठीक है, उन्हें इस मैदान में वह दौड़ लगवाते और वे सारा प्रशिक्षण देते जो सेना में भर्ती के लिए जरूरी होता है। इसके परिणामस्वरूप गाँव के कई नवयुवक सेना और अर्ध सैनिक बलों में चयनित होकर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं।
अब तो गाँव भी सड़क मार्ग से शहर से जुड़ गया है। शहर के पाँव लंबे होते जा रहे हैं। गाँव सिकुड़ता जा रहा है। सड़क मार्ग से जब शहर गाँव के नजदीक आता है, तो वह अपने साथ शहर की सड़ांध भी लाता है। अब पइन के साफ पानी में शहर का कचरा भी घुलेगा।
उस दिन रमजीता पीपर के चबूतरे पर गाँव के लोग जूटे हुए थे। शिवपूरण के पास ऐसी-ऐसी सूचनाओं का पुलिंदा होता था कि लोग सुनकर दंग रह जाते थे।
नन्हकू बोला था, “देख रहे हैं ना दद्दा, शिवपूरणवा अभी बस से उतरकर इधर ही आ रहा है। जरुर कोई उल्टी- सीधी उटपटांग खबर लेकर आ रहा है।”
सबलोग सशंकित हो उठे थे।
दद्दा को संबोधित करते हुए और अन्य लोगों को सुनाने के लिए उसने कहा था,
“जानते हैं, दद्दा, यह रमजीता पीपर और सारा मैदान सहित सड़क तक की पूरी जमीन का बंदोबस्त सरकार एक भवन निर्माण के कार्य में संलग्न व्यवसायी के नाम करने जा रही है।”
“ये शिवपूरण, ऐसी मनहूस खबर तुम्हीं क्यों लाते हो? तुमने इन खबरों को फैलाने की एजेंसी ले रखी है, क्या?” घनश्याम ने व्यंग्यपूर्ण अंदाज में पूछा, तो शिवपूरण अकचका गया और वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।
दद्दा ने सबको संबोधित करते हुए कहना शुरु किया, “देखो भाइयों, ईश्वर करें, शिवपूरण की इस खबर में कोई सत्यता नहीं हो। या किसी ने शिवपूरण को ऐसी खबर फैलाकर गाँव वालों की प्रतिक्रिया जाननी और समझनी चाही हो।”
“जी दद्दा, हमें इसपर विश्वास तो नहीं हो रहा, पर हमें सतर्क तो हो ही जाना चाहिए।” धनेसर ने भी सामुहिक कार्ययोजना बनाने की पहल पर अपनी मुहर लगाई थी।
दद्दा बोले, “कल सुबह आपमें से जितने लोग समय निकाल पाते हों, इसी पीपल वृक्ष के नीचे जमा हों और हमलोग सामुहिक एकजुटता के लिए क्या कर सकते हैं, इसकी योजना बनाएंगे।
सभी लोग अपने-अपने घरों को तो चले, पर दद्दा आज सचमुच व्यथित मन से लौट रहे थे।
दद्दा को रात भर नींद नहीं आई थी।
सुबह चार बजे ही वे रमजीता पीपर के पास पहुँच गए थे। उन्होंने दोनों हाथों को फैलाकर पीपल के मुख्य तने को अपनी छाती से लगा लिया। इसके बाद वे फफककर रो पड़े। वे नहीं चाहते थे कि उनका रुदन कोई देखे इसलिए वे अपने पूर्वज पीपल से बाते करते हुए रोते रहे।
पूर्व क्षितिज अरुणाभ होना ही चाहता था। पीपल वृक्ष पर पक्षियों का कलरव आरम्भ हो गया था। निशा का अवसान निकट था। पीपल के चिकने पत्तों की सरसराहट और पाखियों के समवेत ध्वनि में प्रकृति के आनंद – कण बिखर रहे थे। सूर्य रश्मियों के धरा पर अवतरण का समय हो रहा था। लोगों का रमजीता पीपर की ओर आना शुरू हो चुका था। सबों के आ चुकने के बाद दद्दा ने ही पहला संबोधन शुरू किया, “भाइयों एवं नौजवान साथियों, आप लोगों को तो मालूम होगा कि हमलोग यहाँ किसलिए एकत्रित हुए हैं?”
सबों ने समवेत स्वर में कहा, “हमें मालूम है, पर आप एक बार फिर विस्तार से बताइए।”
“तो आप सुनिए: हमारा गाँव शहर के विस्तारीकरण की चपेट में शीघ्र आने वाला है। हमें शहर के विस्तार से कोई आपत्ति नहीं है। किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन हर शहर अभी स्वयं असंतुलित विकास के दुष्परिणामों का दंश झेल रहा है। शहर के कचरे का कहाँ निष्पादन हो रहा है? शहर की नालियों से बहती गंदगी बड़े नालों में जमा होती हैं और उन्हें कहाँ छोड़ दिया जाता है, हम सब जानते हैं? कहाँ मिला दिया जाता है?”
सबों ने जवाब दिया, “नदियों या पास के नहरों में!”
“हम सबों को मालूम है। शहर का कचरा हमारे हरे – भरे मैदानों और खेतों में डंप कर दिया जाएगा। हमारे नहरों में शहर के नालों को छोड़ा जाएगा। आप बताएँ, क्या आप अपने गाँवों को शहर का मल-विसर्जन स्थल बनायेंगें।”
समवेत स्वर में आवाज आई, “कभी नहीं!”
“तो इसके लिए हमें जागरूकता अभियान चलाना होगा। क्या आप इसके लिए तैयार हैं?”
नौजवानों ने एक साथ कहा, “हम तैयार हैं।”
“चार नौजवानों के साथ एक बुजुर्ग या प्रौढ़ मिलकर के टोलियाँ बनायेंगें। ऐसे पर्यावरण संरक्षक दूतों की टोलियाँ शहर के चारों तरफ के हर गाँव में जाएगी। गाँव के निवासियों को जागरूक करेगी। शहर के फैलाव को हम रोकेंगे। इसतरह हम गाँव को शहर का डंपिंग ग्राउंड नहीं बनने देंगें।”
किसी नौजवान ने प्रश्न किया था, “क्या इससे विकास के गति धीमी नहीं हो जाएगी?”
“सही प्रश्न किया है, आपने। हमें विकास होने या विकास को गति देने से कोई डर नहीं है। हमें असंतुलित और अंधाधुंध विकास से डर है, जिससे समस्याएँ बढ़ती चली जाँय। सिर्फ कुछ लोगों की जेबें भरने के लिए क्या हम पूरे पर्यावरण को दूषित करना चाहेंगे?”
प्रश्न सारे नौजवानों की तरफ से ही आ रहे थे, “दद्दा, आखिर यह अभियान कबतक चलाएंगे?”
“आपका प्रश्न सही है, आखिर कबतक? हम यह अभियान तबतक चलाएंगे जबतक शहरों में समुचित कचरा प्रबंधन और निष्पादन की विधि विकसित नहीं होती, जबतक शहर के नाले के पानी का परिष्करण कर उसे शुद्धि की गुणवत्ता के मानकों पर सही नहीं पाया जाता। क्या आपलोग तैयार हैं?”
सभी लोग जोर से बोले, “हम सब तैयार हैं!”
“तो आइए हम सब इस पीपल के तने से लिपटकर यह शपथ लें कि शहरों का पर्यावरणीय संतुलन जबतक ठीक नहीं हो जाता, तबतक उसका गाँव की ओर विकास हम रोकेंगे।”
सभी लोग चबूतरे पर चढ़ गए और दोनों हाथों को फैलाकर पीपल के तने से लिपटकर यह सपथ ली। यह समाचार तेजी से आग की तरह फैल गया।
व्यवसायी, जो सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर गाँव में कम भाव में जमीन खरीदकर उसपर गगनचुम्बी इमारतें बनाकर बेचने के सपने देख रहे थे, इस अभियान के कारण सकते में आ गए थे। अब क्या होगा?
उधर गाँव से पर्यावरण संरक्षण दूत दूसरे गाँव में जाकर जागरूकता फैलाने का काम करने लगे। गाँव के लोग पेड़ों के तने से लिपटकर गाँव में पर्यावरण को संरक्षित करते हुए, शहरों को गाँवों की ओर नहीं फैलने देने की शपथ लेने लगे।
भ्रष्ट तंत्र और व्यवसायियों के होश उड़े हुए थे। रमजीता पीपर के सामने के मैदान में मल्टीस्टोरी काम्प्लेक्स खड़े करने की योजना फलीभूत होती नजर नहीं आ रही थी।
उनमें से एक युवा व्यवसायी ने प्रस्ताव रखा कि क्यों नहीं मैदान को छोड़कर गाँव के लोगों की जमीन ही खरीद ले जाय। कुछ दिनों के बाद उसका विकास किया जाएगा।
यह विचार बहुत अच्छा लगा। वे लोग इसी कार्ययोजना पर काम करने लगे।
इसके लिए एक ऐसे एजेंट की जरूरत थी जो लोगों के एक वर्ग को पैसे का लालच देकर लाये और उनका जमीन बेचवाये । जैसे-जैसे लोग आते जायेंगें, और अपनी जमीन की बिक्री करते जायेंगें, उस एजेंट का कमीशन भी बढ़ाते जायेंगें। इसके लिए इस गाँव का शिवपूरण सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है। उससे संपर्क किया गया। पैसे का तो लालची तो वह था ही। वह झट तैयार हो गया।
कुछ दिनों बाद शिवपूरण अपने प्रयास में सफल होने लगा। पहली बिक्री एक छोटे किसान ने की थी, अपनी लड़की की शादी के लिए उसे रुपयों की तत्काल जरूरत थी। जमीन बेचने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी। यह समाचार दद्दा के पास भी पहुँचा। दद्दा ने कुछ नौजवानों को किसानों से मिलकर जमीन नहीं बेचने की सलाह भी दिलवाई। पर जमीन खरीदने के लिए इतनी अधिक रकम दी जा रही थी कि लोग उसके प्रभाव में आते चले गए।
अंतिम कड़ी उस दिन टूट गयी, जब दद्दा के भाई ने ही अपनी जमीन व्यवसायी के हाथों बेच दी। दद्दा का हिम्मत टूटने की कगार पर आ चुका था। जब अपने ही घर के लोग बात नहीं समझेंगे तो बाहरी लोग क्या समझेंगें?
जनवरी की कड़ाके की ठंढ पड़ रही थी। कुछ दूरी पर भी इस घने कोहरे में कुछ भी नहीं दिखता था। रात भींगती रही थी। दद्दा का दर्द बढ़ चुका था।
ऐसा ही एक दिन था। दिन चढ़ चुका था पर सभी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, ताल-तलैया अलसाये हुए थे। मनुष्य इससे अलग कैसे रह सकता था। घनस्याम परेशान – सा धनेसर से पूछता है, “अरे दद्दा को देखा क्या?”
“दद्दा सुबह-सुबह रमजीता पीपर के तरफ गए होंगे। चलो-चलो देखते है।”
रास्ते में रोहन और मदन भी मिल गए। उन्हें दूर से ही धुंध में कुछ दिखा था। वे निकट चले गए। जब चबूतरे के पास पहुँचे, तो उन्होंने पीपल के पेड़ के तने से एक कंबल लिपटा देखा था। देखो किसी ने कम्बल यहाँ पसार दिया है और भूल गया है। चलो कम्बल को ले चलते हैं और जिसका होगा उसे दे देंगे। घनश्याम चबूतरे पर चढ़ गया। रोहन भी चढ़ा। जब दोनों ने मिलकर कम्बल हटायी, तो दद्दा को तने से लिपटा हुआ पाया। घनश्याम दद्दा को कंधे पर पकड़कर जैसे ही दद्दा से कहा, “दद्दा, दद्दा यहाँ अभी तक यहॉं क्या कर रहे हैं?” वैसे ही दद्दा का शरीर पीठ के बल गिरने लगा, तब रोहन ने भी दौड़ कर पकड़ा।
दद्दा का शरीर ठंढा हो चुका था। दद्दा ने रमजीता पीपर और मैदान को तो बचा लिया, परंतु गाँव को नहीं बचा सके!
ब्रजेन्द्र नाथ
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड