नन्हा फरिश्ता
राम-लक्ष्मण जैसे दो भाईयों के बीच जमीन- जायदाद को लेकर लड़ाई हुई थी और बंटवारा हुआ था। बड़ा भाई सुखदेव यूँ तो बहुत समझदार था और अपने छोटे भाई ज्ञानदेव को प्यार भी करता था परंतु जबसे दुलारी पत्नी बनकर उसके घर आई थी,एक-दो सालों में हालात कुछ ऐसे होने लगे थे और दुलारी की बिगड़ती मानसिकता उस पर इतनी नकारात्मक रूप से हावी होने लगी थी कि वह बहुत खुलकर भाई से प्रेम नहीं जता पा रहा था।
हालाँकि, पहले ऐसा नहीं था। माँ-बाप की मृत्यु के बाद सुखदेव ने बाप बनकर ज्ञानदेव को पढ़ाया लिखाया था। ज्ञानदेव भी अपने पिता सरीखे बड़े भाई की बड़ी इज्जत करता था। क्या मजाल कि उसका कहा टाल दे।सुखदेव जैसा चाहता था,ज्ञानदेव वैसा ही करता था। छोटा सा कस्बानुमा गाँव था- खेसरपुर… इसीलिए वहाँ के रहने वाले लगभग सभी लोग इन दोनों भाईयों को जानते थे और उनके आपसी प्रेम पर रश्क करते थे। पास-पड़ोस वालों में ही कोई चाचा था तो कोई मामा; कोई बुआ थी तो कोई मौसी..। दुलारी से सुखदेव की शादी भी आस-पड़ोस के लोगों ने ही तय कराई थी। दुलारी पास के ही कस्बे मधुपुर की रहने वाली थी।तीखे नाक नक्श, गेहुँआ रंग, अच्छा कद काठी….कुल मिलाकर सुखदेव के सूने घर में दुलारी के आने से मानो बाहर आ गई थी। वक्त पर खाना मिलता,जली हुई रोटियाँ नहीं खानी पड़तीं, घर साफ सुथरा रहता, कपड़े धुले हुए और सलीके से रखे हुए मिलते–कुल मिलाकर देखें, तो दोनों भाईयों की मौज हो गई थी। ज्ञानदेव भी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने लगा था।माँ जैसी भाभी पाकर वह भी घर की छोटी-छोटी चिंताओं से मुक्त हो गया था। ज्ञानदेव का ध्यान भी दुलारी बड़ी अच्छी तरह रखती थी।इसीलिए सुखदेव भी छोटे भाई की छोटी मोटी चिंताओं से मुक्त हो चुका था। उसे अब समय भी काफी मिलने लगा था.. कभी दोस्तों के साथ ताश पार्टी होती, कभी चाय पार्टी होती तो कभी यूँ ही दालान में बैठकर अड़ोस-पड़ोस वालों से गप्पें मारा करता था। एक-दो साल तक तो सब बहुत अच्छा चलता रहा लेकिन, धीरे-धीरे कस्बे के लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई- “सुखदेव के घर अब तक कोई बच्चा क्यों नहीं हुआ है?… क्या बात है?….सुखदेव और दुलारी के बीच तो कोई मनमुटाव नहीं लगता, फिर क्या बात है…? कहीं दुलारी बाँझ तो…?”
धीरे-धीरे यह बात दुलारी और सुखदेव के कानों तक भी पहुँची।सुखदेव ने तो हँस कर टाल दिया-“अरे कहाँ इन बातों को तूल देती हो?जब होना होगा तब हो जाएगा बच्चा…. पूरी दुनिया के पेट में कुलबुली हो रही है तो होने दो, हम क्यों परेशान हों..?”
पर दुलारी एक औरत थी और ऐसी बातें उसे अपमानजनक लगतीं…वह नहीं मानी- “घुमा फिरा कर आखिर ऊँगली तो मुझ पर ही उठ रही है ना..? मर्दों का क्या… खी-खी करके उड़ा देंगे बात…पर औरतों पर तो धब्बा लग जाएगा ना बाँझ होने का… नहीं नहीं मुझे डॉक्टर के पास जाना ही है, आखिर मुझे भी तो बच्चा चाहिए…।” उसी रात दुलारी ने सुखदेव से मन की बात कह दी थी। पहले तो वह ना-नुकुर करता रहा फिर दुलारी को लेकर डॉक्टरनी के पास जाने को तैयार हो गया।
शहर खुसरूपुर से ज्यादा दूर नहीं था, सो अगले ही दिन दुलारी को लेकर सुखदेव डॉ मैडम के पास गया। दोनों के कई तरह के टेस्ट हुए।डॉ मैडम ने सारी रिपोर्ट की जाँच- पड़ताल के बाद बताया कि दुलारी के कुछ शारीरिक परेशानी है इसलिए उसे बच्चा नहीं हो सकता। सुनते ही दुलारी तो धम्मम से वहीं जमीन पर बैठ गई और माथा पीट-पीटकर विलाप करने लगी– “हाय-हाय,ये भगवान ने आज कैसा दिन दिखाया है… इत्ती अगरबत्तियाँ जलायीं, मंदिर में कित्ता भोग चढ़ाया और अब ये सुनना पड़ रहा है… सच में, ईश्वर तो पत्थर का है..इतनी डरी हुई थी और सचमुच ऐसा काला दिन देखना पड़ रहा है…हे भगवान अब मेरा क्या होगा..?”वहीं पर दहाड़ें मार-मारकर रोने लगी दुलारी।किसी तरह सुखदेव उसे समझा-बुझाकर घर वापस लाया।
अब तो दुलारी का किसी काम में मन ही नहीं लगता। न तो वह सवेरे उठती, न समय पर खाना बनाती, न घर के दूसरे काम ढंग से करती… धीरे-धीरे चिड़चिड़ी सी हो गई। ज्ञानदेव उसे हँसाने के लिए कोई मजाक करता या चुटकुला सुनाता तो चिढ़ जाती और दुनिया भर की बातें उसे कह डालती… बात-बात पर दोनों भाईयों को ताने देती रहती-“हाँ हाँ..निपूती हूँ तो बुरी हो गई हूँ,सोचते होंगे कोई दूसरी ब्याह लायें,खूब समझती हूँ मैं भी…हुँहहह..।” गलती से भी अगर सुखदेव या ज्ञानदेव से कोई गलती हो जाती तो न जाने कितनी बातें सुना डालती। दोनों भाईयों का आपसी प्यार भी उसे चुभने लगा था-“मैं बोलूँ तो सुनते नहीं हैं और भाई बोले तो दस फीट दूर से ही सुनाई देने लगता है… कैसे मजे ले-लेकर सुनते हैं… हाँ भाई…क्यों न सुनें..मैं तो इस घर के लिए बेकार ही हूँ न…।”दोनों भाई दुलारी की मनोदशा को बखूबी समझते थे और इसीलिए चुप रह जाते थे।
धीरे-धीरे समय बीता। ज्ञानदेव को पास के ही शहर में सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई। सुखदेव ने कस्बे में सबको मिठाई खिलाई पर दुलारी ने मिठाई खाने से मना कर दिया। शहर में ही एक अच्छी लड़की देख कर सुखदेव ने ज्ञानदेव की शादी कर दी।ज्ञानदेव ने अपना फर्ज समझा और खेसरपुर के पास ही अपनी पोस्टिंग ले ली ताकि दोनों भाई साथ-साथ रह सकें और प्रमिला के साथ दुलारी भाभी का मन लग जाए।शायद तब दुलारी इस सोच से बाहर निकल पाए।
प्रमिला यूँ तो शहर की पढ़ी-लिखी लड़की थी पर संस्कारी परिवार से थी, समझदार थी, इसीलिए दुलारी उसे बुरा भला कह भी देती तो बुरा नहीं मानती थी।
सब कुछ एक बार फिर से पटरी पर लौटने लगा था, तभी एक नई बात हो गई। हुआ ये कि रात का खाना खाते समय प्रमिला को उल्टियाँ शुरू हो गयीं।ज्ञानदेव घबरा गया।नया खून और पढ़ी लिखी बुद्धि-देशी इलाज के चक्कर में न पड़कर उसी वक्त अपनी स्कूटर निकाली और प्रमिला को डॉक्टर के पास ले गया। पता चला कि प्रमिला गर्भवती है।ज्ञानदेव बहुत खुश होकर घर लौटा और चहकते हुए उसने यह खबर भईया- भाभी को सुनाई पर न तो सुखदेव को इतनी खुशी हुई न ही दुलारी को। दोनों ने खुशी जाहिर तो की पर अनमने होकर।प्रमिला को यह देख कर बुरा तो लगा पर वह चुप रह गई..। दुलारी की मनःस्थिति वह अच्छी तरह समझ सकती थी। लेकिन, दुलारी के तो कलेजे पर जैसे साँप लोट रहा था। अब तो प्रमिला उसे एक आँख नहीं सुहाती थी। बात-बात पर उसे झिड़कती, बिना कारण उसकी गलतियाँ निकालती…और तो और,प्रमिला के लिए जो फल- मेवा आदि आते, वह भी छुपा देती या खा जाती।सुखदेव दुलारी की हरकतों को देखकर दुखी होता… कुछ कहता तो दुलारी छाती पीट-पीटकर रोती, तमाशा करती। इसीलिए, अधिकतर वह बाहर ही किसी काम में अपना मन लगाने की कोशिश करता। ज्ञानदेव और प्रमिला सब समझ रहे थे पर कुछ कहते तो और बखेड़ा होता, इसलिए चुप कर जाते थे। उन दोनों ने आपस में यह तय किया कि पहला बच्चा वे दुलारी को गोद दे देंगे। लेकिन,दुलारी के मन की कड़वाहट इस कदर बढ़ गई थी कि उसने अलग होने का फैसला कर लिया। सुखदेव ने लाख समझाया पर वह नहीं मानी और जमीन जायदाद का बँटवारा हो गया। एक ही घर में दो चूल्हे जलने लगे, आंगन में दीवार खड़ी हो गई… एक घर दो टुकड़ों में बँट गया। बस, बाहर दालान को बीच से घेरना बाकी रह गया था।प्रसव का समय नजदीक आ गया था, इसीलिए प्रमिला और ज्ञानदेव को तकलीफ तो बहुत हुई परन्तु,दुलारी की खुशी के लिए उन्होंने कुछ नहीं कहा।
समय अपनी गति से चलता रहा और जल्दी ही ज्ञानदेव के घर बेटा पैदा हो गया। कस्बे के सारे लोग बधाईयाँ देने आए पर न तो दुलारी आयी, न ही उसने सुखदेव को आने दिया। आस-पड़ोस वाले कुछ कहते तो मुँह बनाकर कहती- “कौन जाएगा उस पिल्ले को देखने…. माँ-बाप हवा में उड़ रहे होंगे कि बेटा जना है….हुँहहह… मुझे उनसे कोई सरोकार नहीं रखना है।”
बच्चे की किलकारी और हँसना-रोना सुनकर सुखदेव का रोम-रोम मचल जाता उसे गोद में लेकर खेलाने के लिए पर दुलारी के डर से वह मन मसोसकर रह जाता था। सुखदेव के दोस्तों और आस पड़ोस वालों ने भी बहुत समझाया पर उसने दुलारी के डर से सबकी बात अनसुनी कर दी।
इधर, प्रमिला और ज्ञानदेव दोनों इस ताक में थे कि कैसे भी करके भैया और भाभी को मना लें और समय आने पर बच्चे को दुलारी की गोद में सौंप दें तो छोरे को घर के बड़ों का आशीर्वाद मिले। पर,दुलारी कहाँ मानने वाली थी।वह तो उनकी तरफ देखने से भी परहेज करती थी। उसकी हीन भावना ने तो उसके मस्तिष्क में बुरी तरह से जहर भर दिया था। जब वह प्रमिला और ज्ञानदेव को बच्चे को खिलाते या घुमा घुमा कर सुलाते देखती तो उसकी छाती पर साँप लोटने लगते थे। मन ही मन वह बड़बड़ाती थी-“जानबूझकर मुझे नीचा दिखाने के लिए मुए पिल्ले को गोद में ले-लेकर घूमाते रहते हैं दोनों… ईश्वर करे बच्चे को कोई रोग हो जाए…. माँ- बाप बनने का बड़ा घमंड हो गया है..हुँह…” और फिर बुरा सा मुँह बनाकर घर के अंदर चली जाती और कुंडी लगा लेती। सुखदेव ने कई बार कहने की कोशिश की कि चलो चल कर एक बार छोरे को देख आते हैं… आखिर अपना ही खून है,पर दुलारी तो सुनते ही शेरनी की दहाड़ने लगती– “जाये मेरी जूती… बड़ा खून में उबाल आ रहा है तो जाओ, उसी घर में रहो जाकर… रह लूँगी मैं अकेली किसी तरह से.. नहीं चाहिए मुझे कोई भी..” और फिर दहाड़ें मार-मार कर रोने लगती–” मैं तो हूँ ही अभागिन…नहीं तो मेरा मरद मेरे बारे में नहीं सोच कर अड़ोस- पड़ोस के लोगों के बारे में सोचता.?…. हे भगवान, मुझे मार ही डालो.. नहीं रहना है मुझे ऐसे घर में..” और फिर जमीन पर अपना सिर पटक-पटक कर रोने लगती। दुलारी को इस तरह करते देखकर सुखदेव का मन बहुत दुखता था पर वह कर ही क्या सकता था। किसी तरह दुलारी को समझा-बुझाकर शांत करता और दिल में बच्चे को देखने और गोद में खेलाने की हसरत लिए चुपचाप सो जाता था।
आते जाते अगर कभी ज्ञानदेव और सुखदेव का आमना सामना हो भी जाता था तो दोनों एक पल के लिए ठिठकते, एक दूसरे को देखते और बिना कुछ कहे अपनी-अपनी राह चल देते थे। बाप न बन पाने का दुख तो सुखदेव को भी था, इसीलिए, कभी-कभी वह भी अपने छोटे भाई के प्रति ईर्ष्या से भर जाता था।
धीरे-धीरे समय गुजरता गया और बच्चा तीन-चार महीने का हो गया। इस बीच प्रमिला और ज्ञानदेव ने भी बहुत कोशिश की उन दोनों से बात करने की या भाई के घर आने की पर ना तो दुलारी कोई मौका देती थी ना ही सुखदेव कभी उत्सुकता दिखाता था।
एक दिन जाड़े की दुपहरी में प्रमिला ने तेल-वेल लगाकर बच्चे को नहलाया-धुलाया और कपड़े पहनाकर पाउडर-काजल लगाकर दालान में लगी एक चौकी पर खेलने के लिए लिटा दिया। खुद भी वहीं बैठकर सूखे कपड़े एक-एक कर तह करने लगी। ज्ञानदेव अपने दफ्तर गया हुआ था। इधर सुखदेव किनारे रखे गमलों की खुरपी लेकर गुड़ाई कर रहा था। साझे की दालान थी, बीच में कोई दीवार नहीं उठी थी, इसलिए बच्चे की किलकारियाँ रह-रहकर सुखदेव के कानों में पड़ रही थीं। नन्हा सा बच्चा पैर फेंक-फेंक कर खेल रहा था।रह-रह कर कुछ अस्फुट से स्वर में बोलता रहता, जोर जोर से किलकारी मारता और खिलखिलाता। सुखदेव न चाहते हुए भी चोर निगाहों से बच्चे को देख लेता और मन मसोसकर नजरअंदाज करने की कोशिश करने लगता था। दालान में गूँजती किलकारियाँ उसे बेबस किए दे रही थीं। तभी प्रमिला को ध्यान आया कि उसने चूल्हे पर दूध चढ़ा रखा है। कहीं उबल कर गिर न जाए, यह सोचकर वह कपड़ों को वहीं छोड़कर लगभग दौड़ती हुई सी अंदर चली गई। इसी बीच दुलारी सुखदेव को भोजन के लिए बुलाने आयी। सुखदेव को उसने कई बार पुकारा पर सुखदेव का ध्यान तो बच्चे की किलकारियों पर था, सो उसने सुना ही नहीं। दुलारी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। दनदनाती हुई दालान में पहुँच गई और सुखदेव को खुरपी लिए चुपचाप बैठा देखकर गुस्से से आगबबूला हो उठी–“इतनी देर से खाने के लिए पुकार रही हूँ,कान में तेल डालकर बैठे हो क्या..?खुरपी लेकर बैठे क्या दिखा रहे हो..?”
सुखदेव जैसे नींद से जागा– “हाँ भाई, आ तो रहा हूँ… जरा बच्चे की किलकारी सुनकर मन उधर चला गया था…चलो”– कहते हुए खुरपी वहीं फेंककर वह खड़ा हो गया। सुखदेव की बात सुनकर दुलारी का ध्यान अनायास ही बच्चे की तरफ चला गया। बच्चा अभी भी अपने नन्हें पैर फेंक-फेंक कर किलकारियाँ भरता हुआ खेलने में मगन था। दुलारी के मन में हूक सी उठी– “मुआ सांप का बच्चा… देखो तो, कैसा प्यारा लग रहा है।”दुलारी तड़प उठी।बच्चे की किलकारी में मानो मिसरी भरी थी। दोनों पति-पत्नी व्याकुल होने लगे।दोनों ने एक दूसरे को देखा और इधर उधर देखते हुए चुपचाप उस चौकी के पास जा पहुँचे। उस वक्त उन दोनों और बच्चे के सिवा वहाँ कोई नहीं था। दोनों ने खुद को संयत करने की बहुत कोशिश की पर बच्चे की मोहक लीला देखकर खुद को रोक न सके और बच्चे को पुचकारने लगे।बीच-बीच में चोर नजरों से देख भी रहे थे कि कहीं प्रमिला न आ जाये या उन्हें बच्चे के साथ लाड़ करते देख न ले। उन दोनों से नजरें मिलते ही बच्चा जोर-जोर से खिलखिलाने लगा और अपनी दोनों बाँहें जल्दी-जल्दी हिलाने लगा.. मानो गोद में आना चाहता हो। दुलारी और सुखदेव नन्हें से गोपाल की हरकत को देखकर मचल उठे। तभी दुलारी के मन के किसी कोने से एक आवाज आयी– “भाड़ में जाये सँपोला… हम क्यों इतने उतावले हों इसके लिए”… पर अगले ही क्षण बच्चा फिर खिलखिला उठा मानो उसने दुलारी के मन में उठने वाले भाव पढ़ लिए हों। बच्चे को इस तरह से किलकारियाँ मारते और खिलखिलाते देखकर सुखदेव से रहा नहीं गया और उसने बच्चे की तरफ हाथ बढ़ा दिया..फिर..फिर क्या था..?सब्र का बाँध टूट गया और लपककर सुखदेव ने बच्चे को गोद में उठाकर चूम लिया और इससे पहले कि दुलारी कुछ सोचती या कहती,सुखदेव ने बच्चे को उसकी गोद में डाल दिया।
दुलारी तो न जाने कबसे इस पल के सपने संजोए बैठी थी,बस अहंकार और हीन भावना की वजह से अपना ममत्व दबाये हुए थी।गोद में खिलखिलाते बच्चे को देखकर जोर से छाती से लगा लिया और बेतहाशा चूमने लगी। आँखों में आँसू भर आए थे और खुशी से बोले जा रही थी–“मेरा मुन्ना, मेरा लल्ला.. छाती जल गई थी तुझे देखने के लिए, मेरा लाल, मेरा बच्चा..।” कभी सुखदेव गोदी लेकर उसे दुलारता था तो कभी दुलारी उसे अपने से चिपका लेती थी। इसी बीच प्रमिला कब आकर वहाँ खड़ी हो गई, उन दोनों को पता ही नहीं चला। अचानक जब उनकी नजर प्रमिला पर गई तो वह दोनों एकदम से ठिठक गए… लगा, जैसे उनकी चोरी पकड़ी गई हो। दुलारी धीरे से बच्चे को चौकी पर लिटाने लगी, तभी प्रमिला दौड़ कर आयी और बच्चे को उठाकर दुलारी की गोद में डालती हुई आँसू भरी आँखों से देखती हुई बोली– “न..न..जीजी, यह बच्चा मेरा नहीं, आप दोनों का ही है.. आपकी ममता और प्यार के बिना भला यह क्या पलेगा..? आप दोनों ही इसके मां-बाप हैं.. हम दोनों तो इसके छोटे माता-पिता हैं। जिस दिन से यह मेरे पेट में आया है,उसी दिन से हमने यह तय कर लिया था कि आप दोनों ही इसके माँ-बाप रहेंगे… मुझे कहाँ आता है बच्चा पालना..”, फिर सुखदेव के पैर छूकर बोली-“जेठ जी, जैसे आपने इसके पिता को पाला, पढ़ाया, लिखाया,उसी तरह इसे भी अपनी छाया दे दो।”
दुलारी तो जैसे आसमान से गिरी…”क्या-क्या सोचती रही थी वह..कितना कोसती रही प्रमिला और ज्ञानदेव को और देखो तो, मुझसे छोटी होने पर भी कितना बड़ा दिल है प्रमिला का…”
महीनों के दबे जज्बात उमड़ पड़े।दोनों गले मिलकर रो पड़ीं…मन के अंदर भरे नफरत के बादलों से पानी बरसकर आँखों के रास्ते बहने लगा.. रिश्तों पर पड़ी धूल पूरी तरह से साफ हो गई। सुखदेव बच्चे को सीने से चिपकाए उन दोनों को गले मिलते देखता रहा। उस नन्हें फरिश्ते ने सबके मन की मुराद पूरी कर दी थी। दुलारी ने सुखदेव से बच्चे को लगभग छीन लिया और डाँटने के अंदाज में सुखदेव से बोली– “इतनी जोर से बच्चे को चिपकाया जाता है क्या..? लाओ..दो मुझे..”और फिर मेरा गोपाल, मेरा बच्चा, मेरा लाल कहती हुई उसे बेतहाशा चूमने लगी। उस नन्हीं सी जान, उस नन्हे फरिश्ते ने दुलारी के अहंकार और हीन भावना के पहाड़ को गिरा कर प्यार का झरना बहा दिया था।
मुस्कुराता हुआ ज्ञानदेव मजदूर बुलाने चल पड़ा,घर के अंदर बनी बँटवारे के बीच की दीवार जो गिरानी थी।
अर्चना अनुप्रिया
पटना, बिहार