छमहु नाथ अवगुण मोरे
हर कहानी को कोई सुनने वाला होना चाहिए। मैं यह कहानी इसीलिए लिख रही हूँ क्योंकि मैं जबसे पूर्णिमा से मिली, मैं उसके जज्बे की कायल हो गई। उसकी कहानी में शक्ति है, संदेश है और एक सीख भी। नैतिकता के प्रश्न को मैंने छुआ ही नहीं।
पूर्णिमा मुझे एक दुकान पर मिली थी। ठीक से कहूँ तो दिल्ली हाट में मधुबनी पेंटिंग की दुकान पर। छोटी बड़ी अनगिनत पेंटिंग। एक लीजिए ना मैडम, बड़ी सुरीली आवाज में उसने कहा था। मैं पशोपेश में थी। घर में जगह है नहीं टांगने की, फिर क्यों लेकर अपने लिए बवाल खड़ा करूं। लेकिन पेंटिंग इतनी सुंदर थी कि छोड़ने का दिल नहीं कर रहा था – केवल काले और लाल रंग की और इतनी सफाई। “ये मेरा ही काम है”, दुकान पर ज्यादा लोग नहीं थे – वो बातें करने लगी। ‘तुमने सीखा है’ अरे नहीं मैडम, हमारे गाँव में सब बनाते हैं’। सिर उठाकर देखा, बिल्कुल पुरानी हीरोइन की तरह। गोरी, पतले नैन नक्श, बड़ी बिंदी, माँग में सिंदूर, सिर पर ऑचल। सिर पर आँचल, पूरे उत्तर भारत में सूचक है सम्मान का, बड़प्पन का और विवाहित होने का। इतनी सुंदर लड़की, जैसे दप्प दप्प कर दिए जल रहे हों। मैंने ले ली एक पेंटिंग। मोलभाव नहीं किया। सुंदरता के कुछ फायदे तो हैं ही आदमी आकर्षित हो ही जाता है। मैं दीवारों पर भी चित्र बनाती हूँ — उसने पीछे से कहा। अच्छा? थोड़ी झल्लाहट हुई कि अच्छे से बात करो तो लोग पीछे ही पड़ जाते हैं। शायद पैसे की जरूरत होगी या लड़की वाकई हुनरमंद है। फोन करके आने को कहा।
सात दिनों के बाद फोन की घंटी बजी। और उसके तीसरे दिन वो हमारे ऑफिस आई एक अधेड़ उम्र के आदमी के साथ। मोटे डील-डौल वाला, थोड़ा तेज तर्रार जैसे दुनियां की ऊंच-नीच से वाकिफ हो। पूर्णिमा ने कहा कि वह उसका पति है। बहुत दुनियांदेखने के बाद हम सभी थोड़ा नाटक कर ही लेते हैं। सामान्य दिखने का नाटक करते हुए मैंने अपनी सहयोगी मुक्ता को कहा कि ऑफिस की एक दीवार दिखाएं, जहाँ हम दीवार पर पेंटिंग करवा सकते हैं। दोनों चले गए और आधे घंटे में लौटकर आए। आज वह चुप रही। वही बोल रहा था। रामेश्वर नाम था उसका। आज से बारह साल पहले शादी की थी। गाँव में काम कम है, इसीलिए दिल्ली आ गए। पूर्णिमा पेंटिंग करती है और वह बेचता है। दीवार पर काम करने के पैसे अच्छे हैं। अच्छी गुजर-बसर हो जाती है। घर भी भेजना होता है, बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना है। पता नहीं सरकारी स्कूलों पर इतना खर्च क्यों होता है जब सब को इंग्लिश मीडियम जाना है।
अगले दो दिनों के बाद पूर्णिमा और रामेश्वर आए। काम शुरु हो गया। उसने एक डिजाइन दिखाया। थोड़े बदलाव के बाद पूर्णिमा ने दीवार पर कुछ खाका खींचा। कितने मन से काम कर रही थी। दोपहर में मेरे कमरे में आई और बोलने लगी खुद-ब-खुद | मेरी शादी एकबार पहले भी हुई थी। उस किसान पति से एक बेटा भी था। पेंटिंग का शौक था। लेकिन पहले पति को रंगों का कोई ज्ञान नहीं था। शुष्क और नीरस बस खेती बारी, तंबाकू पीना। मुझे शायद ठीक से देखा भी नहीं होगा। तभी गाँव में एक दिन रामेश्वर आया। छैल, छबीला, उम्र से कम दिखता था। शहर में आने-जाने के कारण लहजा भी लच्छेदार था। एक रात उसके साथ मैं भाग आई। बिना सोचे समझे। एक बच्चे को छोड़कर | उसकी आँखें डबडबा गई । रामेश्वर ने अच्छे से रखा है। रुपए पैसे की कमी नहीं। इज्जत भी करता है। दोनों फिर उसके गाँव की तरफ नहीं गए। रामेश्वर कभी-कभी अपने गाँव जाता है। पति ने कुछ बरस इंतजार किया होगा। बेटे की शक्ल भी भूल गई हूँ। बटुए से एक तस्वीर निकाली उसने। धुंधली तस्वीर में पूर्णिमा गोद में बेटे को लिए खड़ी थी। बच्चे को नहीं भूल पाई मैडम, भगवान मुझे माफ करे। जीवन के रंगों को खोजती पूर्णिमा को मैं देखती रही। उसको कुछ कहा नहीं मैंने।
डॉ अमिता प्रसाद