बेटी और बैल
बिहार के बेगुसराय में एक गरीब किसान ने अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए अपने खेत और दो बैल बेच दिया- यह कल के राष्ट्रीय समाचार में था। उसे बाद उसके घर नेताओं की लाइन लग गयी, यह दिखने के लिए कि वो कितने सम्बद्ध हैं- उसकी गरीबी से और कितने प्रभावित हैं -उसकी इस ऊँची परिकल्पना से कि किसान ने शिक्षा के महात्व को समझा. किसान का नाम रामबचन था और उसकी बेटी का नाम शीला था. रामबचन एक गरीब किसान था। उसने अपने मालिकों को अपने बच्चों की पढ़ाई पर अथाह खर्च करते हुए देखता था। उसने भी ठान लिया कि अपनी बेटी शीला की शिक्षा के लिए अनवरत मेहनत करेगा। अपने प्रयासों द्वारा उसने अपनी बेटी को अच्छे स्कूल में पढ़ाया लिखाया। बारहवीं की परिक्षा का रिजल्ट आया और वह पूरे जिले में सर्वश्रेष्ठ अंक के साथ उत्तीर्ण हुई। अब शीला की आगे की पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे। अभी तक तो मालिकों से कर्ज में पैसे ले कर जैसे तैसे पढ़ता रहा था। अब आगे की पढ़ाई कैसे होगी यह चिंता उसे खाये जा रही थी। शीला डॉक्टरी पढ़ाई की प्रवेश परीक्षा में पास हो गयी और उसके दाखिले के लिए बहुत पैसों की ज़रुरत थी। सरल स्वभाव का रामबचन अब शिक्षा के महत्त्व को पूरी तरह समझ चुका था। जात का माली था। वह जनता था कि समानता के कितने भी नारें लगें गांव में जाति प्रथा की रूढ़िगत मानसिकता उसे और उसके परिवार को समानता नहीं दिला सकता है। लेकिन शिक्षा न्याय के लिए संघर्ष करने वाला एक ऐसा माध्यम है जो समाज में लोगों के बीच बराबरी पर बिठा सकता है। उसने देखा था कि मालिकों के घर जब जिला प्रशासन के अफसर आते थे तो उनकी बड़ी आव भगत होती थी और कभी भी उनसे उनकी जाति नहीं पूछी जाती थी। उसे महसूस हुआ कि यदि उसकी शीला डॉक्टर बन जाती है तो समाज में शीला का ही नहीं समस्त परिवार का स्तर का उत्थान होगा। लोग उसकी जाति से नहीं बल्कि उसकी उपयोगिता से उसे और उसके परिवार को आँकेंगे। गरीब था मगर समझ बूझ की कमी नहीं थी। उसके पास दो बीघा ज़मीन और दो बैल थे, जिसे बेच कर उसने अपनी बेटी शीला की फीस दे दी। आगे की पढ़ाई कैसे होगी उसने यह भी नहीं सोचा।
उसे ईश्वर पर भी खूब भरोसा था। पूरे जिले में हल्ला मच गया। कच तो उसे अधिक महत्वकांछी मान कर उसका मज़ाक बनाने लगे। मगर उसके साहसिक कदम की सराहना करने वालों की भी कमी नहीं थी। कहाँ गए वो लोग जो ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ ‘का नारा लगते थे! कहाँ गए वो लोग जो जात-पात से परे सामाजिक समानता की बात करते थे ! कहाँ गए वो लोग जो भारत को माता और बेटियों को देवी मानते थे ! वह सब इक्कट्ठा हुए उसके दरवाज़े पर, जब कल रात यह खबर राष्ट्रीय समाचार बनी । कोई उसे कॉलेज आने जाने के लिए साइकिल देने लगा, कोई आगे की पढाई की छात्रवृति। नेताओं का उसके घर पर आना जाना लगने लगा. इलेक्शन था न ! दिखाना था कि वह गरीबों के, बेटियों के कितने बड़े संरक्षक थे।मीडिया को रामबचन ने धन्यवाद दिया कि उस कारण उसका कृत्य समाचार बन गया और सरकार का भी ध्यान आकर्षित हुआ। बेटी को छात्रवृति मिली और वह डाक्टर बन कर समाज सेवा में लग गयी। रामबचन ने अपने हौसलों से जो जीवन का ताना-बना बुना था उसमे उसे आगे बढ़ने के लिए बेटी के रूप में प्रकाश दिखाई देने लगा था. वह बहुत खुश था,मगर सोचता था- काश सभी गरीब बेटियों को ऐसे अवसर प्राप्त हों। मेरी शीला तो भाग्यशाली है, ईश्वर ने उसे आशीर्वाद दिया।
विजय लक्ष्मी सिंह
इतिहास विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय