मेरी प्रिय, प्रथमा

मेरी प्रिय, प्रथमा

” हमारी सभ्यता, साहित्य पर आधारित है और आज हम जो कुछ भी हैं, अपने साहित्य के बदौलत ही हैं।”- यह उद्गार है महान साहित्यकार प्रेमचंद का, जो उनकी रचनात्मक सजगता और संवेदनशील साहित्यिक प्रेम को दर्शाता है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य का एक ऐसा नाम है, जिसने हिंदी कथा लेखन के संपूर्ण स्वरूप को ही परिवर्तित कर दिया। प्रेमचंद के पूर्व हिंदी कथाओं की विषय वस्तु काल्पनिक, अय्यारी, धार्मिक , पौराणिक क्षेत्रों से ही जुड़ी हुई थी, लेकिन प्रेमचंद ने जीवन और कालखंड की सच्चाई को कागज पर उतार कर आम आदमी को अपनी कहानियों का नायक बना दिया। आदर्शोन्मुख यथार्थ परक उनकी कहानियों ने हिंदी कहानी की ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी की हिंदी साहित्य कथा लेखन का मार्गदर्शन किया है। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न , हिंदी कहानी लेखन के पितामह प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से लगभग 300 हिंदी कहानियों को आकार दिया और हिंदी कहानी को इस लायक बनाया कि विश्व के किसी भी दूसरी भाषा की कहानी के समक्ष खड़ी हो सके। अब जब प्रश्न यह हो कि ऐसे संवेदनशील रचनाकार, जिनकी कहानियों में जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं,की कौन सी कहानी को सर्वाधिक पसंद का बता चयनित करूँ, उतना ही मुश्किल है जितना सागर में एक मोती खोजना।

मैं हिंदी साहित्य के इस विशिष्ट शिल्पी के कथा लेखन के शिल्प कला के प्रथम प्रतिमान के रूप में स्थापित कथा” सौत” का चयन करूंँगी। स्पष्टत: “सौत” प्रेमचंद् की कलम से लिखी गई पहली हिंदी कहानी थी, जो सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर 1915 के अंक में प्रकाशित हुई। इस कथा के चयन के पीछे इसकी अनेक विशिष्टताएँ तो हैं ही, पर सर्वप्रमुख कारण यह है कि मैं इस कथा को वह पहला पायदान मानती हूंँ, जो हमें उस मंच पर पहुंँचाता है, जहांँ 1936 ईस्वी में अमर कहानीकार प्रेमचंद की अंतिम कहानी” कफन” से हमारा परिचय होता है।अद्वितीय कथाकार प्रेमचंद ने हिंदी कहानी की जिस यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी, उसका पहला पत्थर है- “सौत”, जो इस कहानी का विशिष्ट परिचय है और कोई भी दूसरी कथा इस परिचय को प्राप्त नहीं कर सकती।

” सौत ” कहानी के मुख्य रूप से तीन पात्र हैं- रामू, उसकी पहली पत्नी रजिया और दूसरी ब्याहता दासी लेकिन कहानी की पूरी आत्मा एक तरह से रजिया में ही बसती है। रजिया कहानी की धुरी है। यौवन की दहलीज से बाहर आ गई निसंतान रजिया रामू की उपेक्षा और प्रताड़ना तो सह ही रही थी, लेकिन उसकी तकलीफ चरम सीमा पर तब जा पहुंँची, जब उसका पति बड़ी -बड़ी आंँखों वाली नवयौवना दासी को ब्याह कर घर ले आया। स्वाभाविक था रजिया की झोली में उपेक्षा और तिरस्कार और भर -भर कर आने लगे। मन की असंतुष्टि वाद- विवाद का उग्र रूप धारण करने लगी और ऐसे ही क्रम में एक दिन स्वाभिमानी रजिया अपना घर छोड़ दूसरे गांँव चली जाती है। अपनी कुशलता और परिश्रम से रजिया ने धन संपदा और प्रतिष्ठा जुटा ली। दूसरी ओर रामू बीमार पड़ ईश्वर को प्यारा हो गया और तब यही रजिया अपने पुराने गांँव वापस लौट दसिया को बेटी की तरह अपना लेती है और घर की सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले लेती है।

मानवीय रिश्तों और उनसे जुड़े मूल्यों को कहानीकार प्रेमचंद ने उनकी पराकाष्ठा पर ले जाकर चित्रित किया है। सारी मानवीय संवेदनाएंँ यथार्थ रूप में चित्रित हुई हैं। कहानी के प्रारंभ में ही पुरुष प्रवृत्ति के अनुरूप रामू का सौंदर्य लोलुप होना और इस कारण अपनी पहली पत्नी के साथ अनुचित व्यवहार करना कहीं भी अस्वाभाविक नहीं दिखता। परंतु चूँकि उसने रजिया के साथ अपने प्रारंभिक गृहस्थ जीवन को जिया है, इसलिए कहीं ना कहीं रजिया के परिश्रम और जुगत से बने अपने घर के लिए वह दिल ही दिल मेंउसका शुक्रगुजार भी है और यही कारण है कि रजिया के घर छोड़कर जाते समय दासी तो उस पर व्यंग करती है, परंतु रामू सिर झुका लेता है। हम ऊपर से जितना भी दंभ भर लें, लेकिन हमारा अंतर्मन सच्चा निर्णायक होता है और रचनाकार प्रेमचंद ने इस तथ्य को बखूबी चित्रित किया है। आपत्ति काल में पुरुष के सिर से यौवन का नशा उतर जाता है और यथार्थ की जमीन पर उसके पांँव दृढ़ता से खड़ा होना चाहते हैं। इस कहानी में भी रामू रजिया के जाने के बाद घर की बिगड़ी अर्थव्यवस्था से परेशान हो दासी को कोसता है और रजिया को याद करके बार- बार रोता है। मृत्यु- शय्या पर कहानीकार ने उससे पूरा पश्चताप करवाया है और कहानी को ऐसा मोड़ दिया है कि जब रजिया उसके अंतिम समय में उससे मिलने आती है तो वह हाथ जोड़कर निशब्द हो क्षमा याचना करते हुए अंतिम सांँस लेता है। प्रेमचंद् ने रामू के माध्यम से बहुत सुंदर संदेश दिया है कि इंसान तो गलतियों का पुतला है परंतु अपने अंतर्मन की सुन अपनी गलतियों को मान पश्चाताप की जो आग उसे जलाती है, कुंदन बना देती है।

अब कहानी के दूसरे पात्र दासी पर नजर डाली जाए। अपने यौवन की गिरफ्त में अपने पति को जकड़ा देख विजयोन्मत्त दासी भी काल के प्रहार से पराजित होती है, तब अहम और अन्याय के अपने दुर्गुण पर अत्यंत शर्मिंदा होती है और रजिया के देवी रूप के आगे नतमस्तक हो जाती है। पात्रों के मुख से जीवन का सत्य कहलवाना प्रेमचंद्र की अद्भुत शैली है, जैसा कि रजिया ने घर छोड़ते हुए कहा था-” दस्सो रानी, तुम भी बहुत दिन राज न करोगी। ईश्वर के दरबार में अन्याय नहीं फलता। वह बड़े- बड़े घमंडियों का घमंड चूर कर देते हैं।” और हुआ भी यही, दसिया का घमंड ऐसा टूटा, उसके हृदय में पश्चाताप की ऐसी ज्वाला जली, कि वह विलासिनी सेवा की मूर्ति बन गई। लेखक ने दसिया का ऐसा हृदय परिवर्तन दिखाया है कि वह अपनी व्यथा रजिया की गोद में सिर रखकर मिटाती है और उसे अपनी माता का स्थान देती है। चारित्रिक उज्जवलता की पराकाष्ठा को रचा है रचनाकार ने।

अब कहानी की केंद्रीय भूमिका में स्थित रजिया के चरित्र के माध्यम से लेखक ने जो संदेश देने की कोशिश की है, उस पर नजर डालते हैं। रजिया के माध्यम से लेखक यह बताने की कोशिश करते हैं कि रिश्ता वही सच्चा है, जो विपत्ति काल में साथ ना छोड़े। जिस रामू और दासी ने रजिया के साथ दुर्व्यवहार कर उसे घर से निकाल दिया था, वही रजिया पति की बीमारी की बात सुन क्षमा का दान लिए हुए रामू के सिरहाने आकर खड़ी हो जाती है। रामू की मृत्यु के बाद भी वह अपनी सौत का साथ नहीं छोड़ती और दाह्य -संस्कार से लेकर मृत्यु- भोज तक का सारा खर्च अपनी जमा पूंँजी से उठाती है। वह चाहती तो मुंँह मोड़ कर जा सकती थी, लेकिन उसने आजीवन दसिया और उसके बेटे का उत्तरदायित्व अपनी जिम्मेदारी समझ उठाया। प्रेमचंद ने स्त्री चरित्र की उदात्ता की पराकाष्ठा अपनी इस कथा में दिखाई है, जो समाज को एक व्यापक संदेश देती है। स्त्री में देवी का ही रूप होता है- रजिया के माध्यम से उन्होंने इसी तथ्य को निरूपित करने की कोशिश की है।

रजिया का स्वाभिमान जहांँ नारी समाज को अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए दृढ़ होने की सीख देता है,वहीं दूसरी ओर यह भी सिखाता है कि जीवन की विषम परिस्थितियों केऊपर अपने परिश्रम, कुशलता और ईमानदारी से जीत हासिल की जा सकती है। रजिया का आत्मविश्वास सभी औरतों के लिए प्रेरणा स्रोत है। अपनी सौत दसिया को वह यूँ ही नहीं कहती,” मेरा आदमी मर गया। तुम्हारा तो अभी जीता है’ ।मतलब रामू के मरने के बाद दसिया के लिए वह उसके पति रामू की भूमिका निभा रही है और जोखूं के लिए उसके पिता रामू की। नाइन से एक जगह रजिया कहती है-” जब मैं मर जाऊंँ, तब कहना जोखूं का बाप नहीं है।” नारी के सशक्त, दृढ़ प्रतिज्ञा, कर्तव्य परायण स्वरूप का इससे उम्दा उदाहरण और क्या हो सकता है? प्रतिशोध की कोई ज्वाला नहीं, क्षमा ही क्षमा, विपत्ति आने पर अपनों के लिए बरगद की छांँव बन जाना, उच्च संस्कारों की ऐसी प्रतिमूर्ति का चित्रण प्रेमचंद की नारी की आदर्शवादी छवि का सुंदरतम रूप है जो हर नारी को सद्गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करता रहेगा।

पात्रों के चरित्र से परे यह कथा पाठकगण को यह संदेश भी देती है कि बुरे का परिणाम बुरा ही होता है। रजिया के साथ दुर्व्यवहार कर रामू और दासी भी कहांँ फल -फूल पाएँ? कहानीकार ने कहानी में रजिया के मुख से कहलवाया भी है-” जो जैसा करेगा, आप भोगेगा।”

इस कहानी में लेखक ने अपने हर पात्र को कहानी के अंत तक चारित्रिक दृष्टिकोण से निर्मल कर दिया है और समाज के आगे आदर्शवाद की सुंदर और भव्य कल्पना प्रस्तुत की है, जिससे कहानी सोउद्देश्यपूर्ण हो जाती है। नमन है रचनाकार की कला को, उनकी कलम को।

रचनाकार प्रेमचंद ने अपने बारे में लिखा है,” मैं तो नदी किनारे खड़ा नरकुल हूंँ। हवा के थपेड़ों से मेरे अंदर भी आवाज पैदा हो जाती है, बस इतनी सी बात है। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है, उन हवाओं का है, जो मेरे भीतर बजीं।” और जो हवाएंँ इस महान साहित्यकार के भीतर बजीं, वही उनका साहित्य है, भारतीय जनता के दुख- सुख का साहित्य, हमारे अपने दुख -सुख का साहित्य, जिसे कथाओं के रूप में हम पढ़ते हैं और प्यार करते हैं।

रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड।

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