नर्तक
वह मस्त होकर नाच रहा था। वह नटुआ नाच का अभ्यस्त लगता था. उसने हरे रंग की काँछ दार धोती और सिर पर पगड़ी पहनी थी जिसमें हरे तोते के पंख खोंसे गए थे। उसके शरीर का ऊपरी भाग नंगा था, लेकिन रंग बिरंगी मोतियों की माला और फूलों की माला से वह कुछ ऐसा सुसज्जित था कि कपड़ों का अभाव बिल्कुल भी नहीं कचोट रहा था। लगभग दस और नर्तक उसके साथ नाच रहे थे, लेकिन सबकी ओर नज़रें घूम कर उसी पर जाकर टिक जाती थीं । दीन-दुनिया से बेखबर, उसकी आँखों में एक नशा या खुमारी सी झलकती थी जैसी किसी प्रेमी की आँखों से झलकती है। उसके हाव-भाव, गति, गर्मजोशी और तीव्रता से तेज और वीरता टपक रही थी। वह कलाबाज़ी में भी सिद्धस्त लगता था। कभी नैनों के वाण चलाता तो कभी दुश्मन पर तलवार से वार करने की अदायें दर्शाता। ऐसा जान पड़ता था जैसे श्रृंगार और वीर रस ने नर्तक का वेष धारण कर लिया हो। वह खुश था कि दुखी था, अनुमान लगाना कठिन था।
किसी ने बताया कि उसका नाम विजय विरुली है, और उसे सश्रम कारावास की सजा हुई है। राजधानी में चीफ मिनिस्टर साहब की अगुवाई के लिए, उनके आग्रह एवं नृत्य के प्रति उनकी विशेष रूचि का ख्याल रखते हुए, स्थानीय नृत्य के प्रदर्शन की बात उठी तब विजय विरुली का नाम लिया गया क्योंकि पूरे इलाके में विजय विरुली के टक्कर का कोई भी नर्तक नहीं था। इसीलिए आज के नृत्य-प्रदर्शन के लिए उसे पुलिस की कड़ी निगरानी में कुछ घंटों के लिए लाया गया है।
एक उत्कृष्ट, पहुंचे हुए कलाकार ने ऐसा क्या अपराध कर दिया कि उसे सश्रम कारावास की सजा सुनानी पड़ी। कलाकार तो स्वभाव से कोमल प्राणी होता है। क्या किया उसने? और क्यों? जानने के लिए मन बेचैन हो उठा। जितने मुँह उतनी बातें।
” झोपड़ी की औकात नहीं, सपने महलों के …”
“मजनूँ और फरहाद की औलाद बनता है साला ..”
“काला अक्षर भैंस बराबर और अरमान साहब बनने के …”
मैं समझ गई यहाँ मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं मिलने वाला। बात की गहराई तक जाने के लिए मुझे उससे या उसके किसी अन्तरंग से बात करनी होगी, अतः मैं समारोह के बाद पूछ-पूछकर ढूंढती हुई जा पहुँची उसके घर।
नदी किनारे अवैधानिक रूप से बसी हुई अनेक बस्तियों में से एक बस्ती जिसका नाम गांजा-टोला बस्ती था उसमें झोपड़ीनुमा दो कमरों के घर के बाहर झूले जैसी खटिया पर बैठा उसका बाप अपनी मरियल सी हथेली पर खैनी घिस रहा था। मुझे आते देखकर दो ताली बजाकर उसने खैनी झाड़ी और जीभ के नीचे व् बाएं गाल और दांत के बीच में फंसाकर आदरभाव से खड़ा हो गया।
मेरे कंधे पर झूलते बैग और हाथ में लिए कैमरे से शायद उसे आभास हो गया कि मैं अखबार या टी. वी. से आई हूँ और विजय के बारे में जानना चाहती हूँ।
अपनी किस्मत को कोसते हुए उसने मुझसे उसी अधमरी खटिया पर बैठने का आग्रह किया। आस-पास के घरों से, जो लगभग एक दूसरे से जुड़े हुए थे, दस-पन्द्रह बच्चे,…. नन्हें शिशुओं को गोदी में लटकाए कमउम्र की स्त्रियाँ और दो या तीन साफ़ पैंट-शर्ट पहने युवा लड़के हमें घेरकर खड़े हो गए।
बेचारा बाप जिसके एकलौते बेटे को कारावास का दंड मिला है … क्या प्रतिक्रिया होगी उसकी,…….. बात कहाँ से शुरू की जाए, …… मेरे असमंजस को समझते हुए उसी ने कहना शुरू कर दिया।
“मैडम जी वीजय के बारे में जानना चाहती हैं न ……” मैं ने स्वीकारोक्ति में सर हिला दिया।
“यह पिरेम … बहुत खतरनाक बीमारी है मैडम जी …. किसी का घर-द्वार छुड़वा देती है तो किसी के माँ-बाप, कोई डूब के मर जाता है तो कोई जेहल में चक्की पीसता है।”
बातें अभी शुरू ही हुई थी कि मैंने देखा कोठरी से एक प्रौढा निकली और हमारे पास आकर बैठ गई। वह बार-बार अपने सर के पल्लू को संभाल रही थी, जो पहले से ही अपनी जगह पर था, शायद यह उसकी आदत थी। मेरी प्रश्नसूचक निगाहें उसके चहरे को टटोल रही थीं। बिना किसी भूमिका के उसने बोलना शुरू कर दिया था और मैंने रिकॉर्ड करना।
“हमने सर पर ईंटा ढोकर और इसके बाप ने गारा-पलस्तर में हाथ मैले करके उसे पढ़ाया …. आठ किलास तक ….. फिर डिरायवरी सिखाने की खातिर, लाइसेंस के खातिर उधारी भी लिया, सोचा …. लड़का काबिल हो जाएगा तो दुःख के बादल छंट जायेंगे, ……. काबिल तो हो भी गया मैडम जी …… मेरा
ईंटा ढोना और बाप की कुलीगिरी भी कसम दे-देकर बंद करवा दिया। सारी जमा पूंजी और थोड़ा उधारी लेकर सेकेण्ड हैण्ड वैन खरीदा और लड़का-लड़किन को वैन में बिठा के स्कूल लाने – ले जाने का धंधा करता रहा। एक सबेरे की पारी, … दूसरी दोपहर की पारी लेके जाता था। नाचने का इतना शौक….. शादी-ब्याह में नाच कर भी पैसा कमा लेता था। उधारी भी चुकता कर दिया। हमारा सोना सरीखा बेटा …. नजर लग गई किसी की मैडम जी ……” इतना बताते-बताते वह रोने लग गई थी। फिर अपनेआप चुप हो गई…..”
बेटे की चिंता में असमय आई झुर्रियों और बिखरे बालों को समेटते हुए विजय विरुली के बाप ने अपनी यादों का पिटारा खोला। बोला,
“वह बड़े गर्व से अपने आप को झारखंडी कहता था। अपनी संस्कृति पर नाज था उसे। उसके जैसा नटुआ नाच करने वाला पूरे जिला में नही मिलेगा। दिनभर हाड़ तोड़ मेहनत करता और रात को हड़िया ( देसी शराब ) पीता और नाचता । फिर अपनी माँ के हाथों बनी सोंधी रोटी खाकर उसकी आत्मा तृप्त हो जाती थी मैडम जी।”
बेटे की मधुर याद बाबा को सहला गई, वे तनिक मुस्काये, फिर गम्भीर हो गए बोले,
“ लड़का-लड़किन को स्कूल लाते ले जाते बस एक रोग लग गया उसे …….”
मेरे दिमाग की घंटी बजी … बच्चों को स्कूल छोड़ने और लाने में रोग कैसे लग गया …..
“….. कुछ देर रुकने के बाद बाबा ने दीर्घ निःश्वास छोडी, दोनों हाथ ऊपर उठाकर ईश्वर से शिकायती लहजे में बोला, “सब उसका दोष है ….ज़रा सी खुशी देकर ढेर सारा दुःख डाल दिया झोली में। मैडम जी उसे विद्या का भूत चढ़ गया।”
मैंने आश्चर्य से पूछा, “बाबा पढ़ना-लिखना रोग कैसे हो सकता है?”
“मैडम जी विद्या उस बिना बाप की लड़की का नाम है जिसे बीजय अपनी वैन से स्कूल छोड़ने-लेने जाता था। चार साल तो सब ठीक चला। फिर उस लड़की ने इंटर पास कर लिया और आगे इंजीनियरिंग की पढाई करना चाहती थी। उसकी माँ छोटे-मोटे स्कूल की टीचर ….. कालेज में दाखिला करवाने के लिए कहाँ से जुगाड़ बैठाती। आगे पढ़ाने को मना कर दिया। एक दिन बीजय के सामने खूब रोई तो लड़के का दिमाग फिर गया बोला कि तू मुझसे शादी कर ले तो मै पढ़ाऊंगा तुझे।
”विद्या ने शादी के लिए हाँ कर दी मैडम जी …… उस दिन बीजय ने नशा किया और खूब नाचा, अपनी माँ से बोला ….. दिया जलाओ आज दीवाली है। तेरी लछमी बहू को घर लाऊँगा, उसे इंजीनियर बनाऊँगा, वह पैसा कमाएगी …….ठेर सारा पैसा …….. तेरे दुःख के दिन कट गए समझ। बहुत समझाया हमने ….. जमीन पर रहना सीख …. बिना पंख के उड़ेगा तो सर के बल गिरेगा …… नही माना मैडम जी …. एक बात नहीं सुनी उसने हमारी ……. ”
विजय की माँ कब उठकर दो कप में चाय बना लाई हमें पता न चला। चाय हमें देकर वह वहीं जमीन पर बैठ गई, और कहने लगी,
” सबको अपने-अपने कर्मों का फल तो भोगना ही पडेगा। वैन गिरवी रखकर लोन लिया और विद्या का एडमिशन इंजीनियरिंग कालेज में करवा दिया। लुक्के-छिप्पे मंदिर में शादी भी कर लिया।”
……….इधर-उधर नजर घुमाते हुए मैंने पूछा ”विद्या कहाँ है? क्या मैं उससे बात कर सकती हूँ?”
”अपनी माँ के घर है वह, बीजय बोला था इंजीनियर बनाने के बाद ही इस घर में लाएगा। वही जाता रहता है वहां।”
इस बार बाबा ने प्रश्न किया,”मैडम जी, …बैंक लूटने की कोशिश करने की सजा इतनी होती है क्या ?” फिर कुछ रुक कर बोला, ” बैंक लूट कहाँ पाया, धरा गया. जिन्दगी में कभी लडके ने गलत काम नहीं किया। गलत काम करने के लिए भी तजुर्बा चाहिए। पिरेम जानवर को आदमी तो आदमी को जानवर बना देता है, मैडम जी …..
मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। मैंने पूछा, ”और कितनी सजा बाक़ी है विजय की।”
“यही कोई छः महीने” विजय की माँ ने कहा
“हमने अपनी जमीन गिरवी रख कर कोरट-वकील किया। लडके का अच्छा चाल-चलन और अपने पांच-परगना में उसके जैसा नटुआ नाच का कलाकार होने की खातिर सजा की मियाद आधी हो गई थी। सुना है आज कोई मिनिस्टर के सामने नाचने के लिए जेल से छुट्टी मिली है। मिलना चाहता था। खबर भिजवाया था। नही गए हम लोग। मुंह देखने का मन नही करता उसका …….. ”
” मैं वहीं से आ रही हूँ माँ जी …. आपका बेटा सचमुच में बड़ा कलाकार है।”
एक लम्बी चुप्पी ….. एक लंबा अंतराल ……..
विजय विरुली के माँ- बाप अपने बेटे के अलौकिक नृत्य-प्रदर्शन से चमत्कृत एवं उसकी कला पर न्यौछावर जन-समूह का अवलोकन करने मुख्यमंत्री जी की सभा में नहीं गए।
पता नहीं क्यों विजय विरुली को खलनायक मान लेने या अपराधी स्वीकार कर लेने को मेरा मन तैयार न था।
विजय विरुली की कैसी मानसिक स्थिति थी, जब उसने अपराध की दुनिया में कदम बढाया …. ऐसे अनेकानेक प्रश्नों के उत्तर तलाशने मैं जा पहुंची विद्या के घर।
विद्या नाम की जिस लड़की से मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ वह मुझे हतप्रत कर गया। दुर्लभ सौन्दर्य की धनी, कोमलांगी, हिरनी सी डरी-डरी, बड़ी-बड़ी, काली-काली आँखों वाली विद्या अपने चहरे पर प्रश्नवाचक कौतूहल समेटे मेरे सामने खडी थी। सहसा विजय विरुली के भाग्य से मुझे ईर्ष्या हुई। शायद
उसने सपने में भी न सोचा होगा कि वह शादी का प्रस्ताव रखेगा और विद्या हां कर देगी।
विद्या को देखा तो मुझे वह कहानी याद आ गई जिसमें किसी फकीर को खजाने की चाभी मिलती है लेकिन बौखलाहट में चाभी उसके हाथ से छूटकर गहरे कुएं में गिर जाती है, तब वह फकीर खजाने के मोह में अपनी जान की परवाह किये बिना उस कुएं में कूद जाता है और मारा जाता है।
विजय विरुली अपनी प्रियतमा के सपने को सच करने की चाहत में अपराध की बेरहम दुनिया में घुसता चला गया। जेबें काटीं, दूकानें लूटी और जब बैंक लूटने गया तो पकड़ा गया।
विद्या मुझसे कोई भी बात करना नहीं चाहती थी। न अपने विषय में ना ही विजय या ससुराल के विषय में। भारी मन लिए मैं वापस आ गई और जिन्दगी की भाग- दौड़ में विजय- विद्या की कहानी पीछे रह गई.
महीनों बाद समाचार के सिलसिले में गांजा-टोला बस्ती से गुजरना हुआ तो विजय विरुली की याद आई और मैं उसके माँ बाप से मिलने उसके घर जा पहुँची। बाबा ने खुश होकर मेरा स्वागत किया। वे मुझे अपनी बात बताने के लिए व्यग्र नजर आये। ओसारे में खड़ी खटिया मेरे बैठने के लिए बिछाते हुए बाबा बोले,” मैडम जी, बीजय की कहानी लिखिएगा तो यह भी लिखिएगा कि उसे उसके अपराध की सजा मिली तो उसके हुनर का पुरस्कार भी।”
“मैं कुछ समझी नहीं …..कैसा पुरस्कार?”
” उसके हुनर का .. मैंने कहा था न कि पूरे इलाके में उसके जैसा नटुआ नाच नाचने वाला नही है। उसके भाग्य का पिटारा तो उस दिन खुला जिस दिन मिनिस्टर साहब के मनोरंजन के लिए उसे जेल से निकालकर नाचने का मौक़ा मिला था. मिनिस्टर साहब खुश हो गए और उन्होंने ऐलान कर दिया कि उसकी सजा ख़तम होने के बाद उसे विदेश में नाचने का मौक़ा दिया जायेगा और अपने देश में अच्छी नौकरी.”
माँ-बाप की बूढ़ी आँखों को जिसका इंतज़ार था उसकी सजा पूरी होने में बस कुछ दिन ही बाक़ी थे।
बाबा को इतना खुश देखा तो अनायास पूछ बैठी, ‘’बाबा विद्या मिलने आती है?”
बाबा हँस दिए, जैसे मैंने कोई बेवकूफी वाली बात कही हो, बोले, “जिस कालेज में एडमिशन करवाने के लिए हमारे वीजय ने अपनी वैन गिरवी रख दी ….. कर्जा लिया ….., आगे की पढाई के लिए अपराध की गंदी गली में घुस गया, विद्या ने उसी कॉलेज के किसी …… वो क्या कहते हैं …. प्रो..फ़े…..सर से शादी कर ली और अपनी माँ को लेकर शहर छोड़कर चली गई। बहुत आगे बढ़ गई लड़की मैडम जी….
विद्या एक बार भी हमारे वीजय से मिलने जेल नही गई, कहती थी, मैंने बैंक लूटने और डाका डालने को नही कहा था. जिसने जुर्म किया है वही सजा भोगे।
हमारा कलाकार बेटा आजकल के पिरेम को नही समझ पाया मैडम जी……।” बाबा ने एक दीर्घ निःश्वास लिया और चुप हो गये. शायद उसके उज्जवल भविष्य के सपनों में खो गए।
और कुछ पूछना या वहां रुकना बेमानी था। मैंने चुपचाप अपनी राह पकड़ी। मेरी झोली में एक कहानी छटपटा रही थी।
सुधा गोयल “नवीन”
जमशेदपुर