हामिद के बहाने आज का विद्रूप समाज !!
जब भी टी वी पर मैं हवेल्स केबल का विज्ञापन देखता हूँ, जिसमे माँ का हाँथ रात का खाना(रोटी) बनाने के क्रम में जलने जैसा होता है, और पास ही खाने के लिए बैठा एक नन्हा सा बालक इसे देखता है….अनुभव करता है और अचानक उठ कर चला जाता है तथा पास ही पड़े एक लोहे की छड को मोड़कर चिमटा का आकार देता है और फिर उसे वह अपनी माँ को दे देता है। इस विज्ञापन को देखकर मुझे प्रेमचंद की कहानी ईदगाह के हामिद की अनायास ही याद आ जाती है। व्हात्ट्स एप पीढ़ी को छोड़ कर अधिकतर लोगों ने इस कहानी को पढ़ी होगी, मगर जब याद आ ही गई है तो आज गृहस्वामिनी द्वारा प्रेमचंद को श्रद्धांजलि अर्पित करने के अवसर पर अपने नजरिये से अपनी इस पसंदीदा कहानी को पढाता हूँ…..
‘बाल मनोविज्ञान’ पर आधारित ‘ईदगाह’ कहानी प्रेमचंद की उत्कृष्ट रचना है। ईदगाह कहानी मुसलमानों के पवित्र त्यौहार ईद पर आधारित है जो की शीर्षक से स्पष्ट है। पवित्र माह रमज़ान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आने पर मुसलमान परिवारों में विशेषकर बच्चों में त्यौहार का उत्साह बहुत अधिक प्रभावशाली दिखाई देता है। किसी छोटे से गांव मैं एक छोटा सा प्यारा बच्चा हामिद अपनी बूढी दादी माँ के साथ रहता था। एक बार की बात है ईद आने वाली थी और इसलिए पास के गांव मैं मेला लगा, रविवार का दिन था गाँव के सारे बच्चे खुशी–खुशी मेला देखने के लिए तैयार हो रहे थे और अपने–अपने माता–पिता के साथ मेला देखने जाने वाले थे। नन्हे हामिद का भी मन किया मेला देखने के लिए उसने अपनी दादी से कहा दादी मैं भी अपने दोस्तों के साथ मेला देखने जाऊंगा। गरीब दादी अमीना के पास पैसे नहीं थे इसलिए उसने हामिद को समझाने का प्रयास किया किन्तु हामिद के जिद करने पर उसकी दादी ने 3 पैसे हामिद को देते हुए कहा बेटा ये पैसे संभाल कर रखना और इसे अच्छी तरह से खर्च करना। कोई अनाप–शनाप खर्च न करना। जब तुझे भूख लगे तो कुछ पैसे खाने पर खर्च करना और बाकी पैसों से अपने लिए कोई खिलौना खरीद लेना। मेले की अनुमति और पैसे पाकर हामिद की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह भी अपने मित्रों के साथ खुशी–खुशी मेला देखने चल दिया। मेले मैं पहुंचकर सभी बच्चे खूब मजे कर रहे थे, जगह–जगह, खाने–पीने की चीजें थीं और खिलौनों की दुकाने थीं सभी बच्चे कुछ न कुछ खा रहे थे और खिलौने खरीद रहे थे, हामिद का मन भी बहुत कर रहा था मगर हामिद के पास सिर्फ 3 पैसे ही थे और उसे अपनी दादी की सीख याद आ रही थी बेटा इसे बहुत सोच समझकर खर्च करना, इसीलिए हामिद ने अब तक अपना पैसा बचा कर रखा था, मेले मैं घूमते हुए हामिद को एक बर्तन की दुकान दिखाई दी। हामिद उस ओर बढ़ चला उसने पूरी दुकान मैं देखने के बाद एक लोहे का चिमटा उठाया और दुकानदार से उसका दाम पूछा।
दुकानदार ने उसका दाम 3 पैसा बताया मासूम हामिद बहुत मायूस हो गया, क्योंकि उसके पास सिर्फ 3 पैसा ही था, और उसकी भी इच्छा थी कि वह भी और बच्चों की तरह खाए–पिए और खिलौने ले, किन्तु वह अपनी दादी के लिए चिमटा भी खरीदना चाहता था क्योंकि हामिद की आँखों में तबे पर रोटी सेकती उसकी दादी का चेहरा आ रहा था जिसकी उँगलियाँ चिमटा न होने की वजह से रोज ही तबे से जल जाती थीं, इसलिए हामिद अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदकर उसकी उँगलियों को जलने से बचाना चाहता था। मगर इसके लिए हामिद को अपनी खुशियों का त्याग करना पड़ेगा, एक तरफ हामिद की अपनी खुशिया थीं दूसरी ओर रह–रह कर उसकी दादी की जलती उंगलियों का ख्याल। अंत में नन्हे हामिद ने दुकानदार से वह चिमटा खरीद लिया, और शान से उसे अपने काँधे पर रखकर पूरे मेले में यों ही घूमता रहा। शाम हो चली थी सभी लोग एक जगह एकत्र हो वापस गाँव की ओर लौटने लगे। हामिद के सभी मित्र हामिद का मजाक उड़ा रहे थे कि उसने ये क्या ले लिया- चिमटा! कोई उसे मिट्टी का शेर दिखाता, तो हामिद उससे कहता तुम्हारा ये मिट्टी का शेर 2 दिन मैं टूट जायेगा किन्तु मेरा चिमटा असली शेर से भी लड़ने का काम आएगा। यूँ ही हंसी मजाक करते करते सभी बच्चे अपने गाँव वापस आ गए। घर मैं हामिद की दादी अमीना बेसब्री से हामिद का इंतजार कर रही थी, आते ही उसने हामिद से बड़े उल्लास से पूछा मेरे लाल ने मेले मैं क्या–क्या किया और अपने लिए कौन सा खिलौना ख़रीदा? हामिद ने झट से चहकते हुए दादी के हाथ में चिमटा थमा दिया। चिमटा देखते ही दादी आग–बबूला हो उठी, बोली कमबख्त ये क्या उठा लाया तेरे पास 3 पैसे ही थे फिर तूने ये चिमटा क्यों ख़रीदा। इसका क्या करेगा तू और दादी ने हामिद का चिमटा गुस्से से दूर फेंक दिया। मासूम हामिद ने चिमटा उठाया और फिर से अपनी दादी से लिपट गया और बोला दादी ये मैं अपने लिए नहीं आपके लिए लाया हूँ। अब रोटी सेंकते वक्त कभी भी आपकी उँगलियाँ नहीं जलेंगी। हामिद की बात सुनकर बूढी दादी की ऑंखें डबडबा उठीं, दादी अपने पोते के प्यार से भाव बिभोर हो उठी और हामिद को अपने कलेजे से लगा लिया। बेटा इतने बड़े मेले में भी तू अपनी बूढी दादी को नहीं भूला और अपनी खुशियों का त्याग करके तुझे तेरी बूढी दादी की उँगलियों को जलने से बचाने के लिए चिमटा खरीद लाया। बूढी दादी की आँखों मैं खुशी देखकर मासूम हामिद भी खुशी से चहक उठा और बोला दादी मुझे बहुत भूख लग रही है आज आप इसी चिमटे से सेंक कर मुझे रोटी खिलाना। दादी ने एक बार फिर हामिद को अपने सीने से लगा लिया…….. ।
इस कहानी की जब भी याद आती है और आज जब ये विज्ञापन देखता हूँ, तो सोचता हूँ क्यों, आखिर क्यों आज हम अपनी आने वाली पीढ़ी को हामिद जैसी त्याग और स्नेह की कहानियों से दूर और दूर करते जा रहे हैं, और आज के बच्चों को सिर्फ पाने की संस्कृति सिखा रहे हैं……त्याग करने की नहीं। इसका असर ये होता जा रहा है कि समाज में आज हर कोई एक दूसरे से पाने की अभिलाषा रखता है, जिसकी वजह से आज समाज में काफी कुरीतियाँ फ़ैल रही हैं, यदि त्याग का एकांश भी व्यक्ति में बचपन से ही प्रवेश कर जाए तो वह ताउम्र उसको एक अच्छा नागरिक बनने मैं सहायक होगा। आज की कुछ पीढ़ी भी त्याग कर रही है अपनी संस्कृति का। अपने सादा जीवन का और कहीं-कहीं तो अपने जन्म देने वाले माता-पिता का भी। ऐसी घटनाएं जब भी सुनता हूँ तो मुझे ये कहानी याद आती है और सोचता हूँ जब नन्हा सा हामिद भूखा प्यासा रहकर, अपनी खुशियों को त्याग कर अपनी दादी की परेशानी दूर करने के लिए त्याग कर सकता है तो फिर क्यों आज के कई लोग माँ–बाप और अपने बुजुर्गों के लिए त्याग तो दूर उनका ही त्याग कर रहे हैं। क्यों वे अपनी कमाई का एक छोटा सा हिस्सा भी अपनों के लिए त्यागना नहीं चाहते। त्याग एक ऐसी चीज है जो आज के युग मैं सिर्फ किताबों मैं ही रह गई है, और आज के युग मैं त्याग करने वाला शायद कुछ मुश्किलों में भी रहे, किन्तु अपने छोटे से छोटे त्याग से वह अपनों के चेहरे पर सदा के लिए खुशियाँ ला सकता है और खुद भी जब अपना आत्म विश्लेषण करेगा तो अपने आप मैं आत्म सुख का अनुभव करेगा।
हामिद ने यहाँ पर बूढ़े हामिद का रोल निभाया है और बूढ़ी अमीना ने बालिका का रोल निभाया। वह रोने लगी और दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देने लगी। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस रस और स्वाद से भरा हुआ।
प्रेमचंद ने हामिद के चरित्र में वो सारी विशेषताएं भर दी हैं जो एक मुख्य किरदार निभाने वाले के चरित्र में होनी चाहिए।
कुल मिलाकर अंत में यही कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने आर्थिक विषमता के साथ-साथ जीवन के आधारभूत यथार्थ को हामिद के माध्यम से सहज भाषा में पाठक के दिलो-दिमाग पर अंकित करने की अद्वितीय कोशिश की हैं और काफी हद तक कामयाब भी रहें।
डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार