मै हूँ ना
हाँ, जिंदगी सिर्फ यादों का खेल ही तो है। एक उम्र के बाद ऐसा लगने लगता है जैसे जीने के लिए अब ज्यादा कुछ बचा ही नहीं ।बस अतीत की लम्बी गहरी सुरंग जैसी राहों पर मन भटकता रहता है हर-पल, हरदम ।
तनु के जीवन में भी ऐसा ही कुछ धा। प्रवीण उसके जीवन में वसंत की तरह आया और पतझड़ की तरह चला गया ।आखिर पन्द्रह वर्ष हो गये प्रवीण को गुज़रे हुए । लगता था कि कई सदियाँ बीत चुकी है। अबतक तनु अपनी उम्र के पचपनवें वर्ष में पहुँच चुकी थी। कहने को उसके पास वह सबकुछ है जो एक स्त्री को भरे पूरे परिवार की स्वामिनी के गर्व से भर दे मगर उसका मन तो है नितांत एकाकी। अपनेपन के स्पर्श, सम्मान और प्रेम की अनुभूति से वह कोसों दूर थी। चार बहनों में वह सबसे छोटी थी। एक मध्यवर्गीय अध्यापक पिता के लिये पुत्री का विवाह किसी युद्ध जीतने जैसा ही था। पिता ने उसके लिए प्रवीण का चयन किया था और अपनी हैसियत से बढ चढ़कर विवाह में खर्च भी किया। प्रवीण का कपड़ों का पुश्तैनी कारोबार था जो ज्यादातर उसके दो भाई और पिता मिलकर चलाते थे। शादी के कुछ ही दिनों में वह प्रवीण के स्वभाव के बारे में जान गई थी। पति का प्यार सिर्फ उसके अपनी खुशी, अपने स्वार्थ तक ही सीमित था और जिस रिश्ते की जड़ में प्यार की जगह स्वार्थ की खाद हो, वहां भला प्रेम का अंकुर कैसे पनप सकता था? किंतु इस कृत्रिम बगिया में भी बेटों के रूप में दो फूल खिल ही गये और तनु को जैसे जीने का सहारा मिल गया। मगर प्रवीण की आदतें बिगडती ही जा रही थीं , पहले वह शराब पीता था फिर धीरे-धीरे स्मैक जैसे ड्राय नशा करने लगा जिसने उसे अंदर से खोखला कर दिया था। अब वह बात बात पर तनु पर हाथ भी उठाने लगा। तनु इसी उम्मीद पर सब दुख सहती गई कि एक दिन उसके बेटे बड़े हो जाएँगे और प्रवीण की अक्ल ठिकाने आएगी तब हो सकता है उसमें सुधार आ जाए। मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन जब प्रवीण नशे मे धुत होकर गाडी चला रहा था तभी उसकी कार दुर्घटना ग्रस्त हो गई और वह आईसीयू में भर्ती हो गया। तनु के जीवन में वैसे भी रंगों की कमी थी अब तो सबकुछ बदरंग हो गया ।प्रवीण उसकी दुनिया से बहुत दूर जा चुका था। समय कहाँ किसी के रूका है, धीरे-धीरे तनु के दोनों बेटे अच्छी नौकरी में आ गए और उनकी शादी भी अच्छे घरों में हो गई।
यादों की गलियों में खोया उसका मन फोन की घंटी की आवाज़ पर वर्तमान में लौट आया। बड़े बेटे का फोन था,जिसने उसकेलिए 6 दिन की सुन्दरवन घूमने की ट्रिप बुक करवा दी थी। कई दिनों से दोनों बेटे उसके पीछे पड़े थे । “मम्मा, अब आप खूब घूमा करो, इंडिपेंडेंट बनो,अपना हर काम खुद करना सीखो।आखिर हम दोनों दूर हैं ,कभी कोई जरूरत होगी तो कैसे करोगी? सबसे पहले तो सुंदरवन घूम कर आओ, कुछ सीनियर सिटीजन्स का ग्रुप इस ट्रिप पर जा रहा है तुम भी चली जाओ ,सुरक्षित रहोगी और अच्छा भी लगेगा “। खैर, तनु तो पहले से ही मन बना चुकी थी कि बेटों के ऊपर वह बोझ नही बनेगी। तभी तो जब दोनों बहुओं का रवैया अपने प्रति उदासीन देखा तो उसने उनके साथ न रहकर अपने घर में ही अकेली रहने का फैसला ले लिया ।
सुन्दरवन आकर तनु को अच्छा ही लगा। रोज की दिनचर्या की एकरसता से हटकर कोई नयापन अच्छा ही लगता है । सुन्दरवन में गहरे बांस के प्राचीर जल प्रहरी बनकर किनारों पर खड़े एक अद्भुत संसार रच रहे थे। विश्व के सबसे विशाल प्राकृतिक डेल्टा की खूबसूरती को आंखों में बसा लेने के प्रयास में वह बार बार जलपोत के किनारे की तरफ चली जाती जहाँ काफ़ी देर से एक समवय का सैलानी काॅफी का मग हाथ में लिए खडा था।
” हलो मैम, मैं आनंद, शांति निकेतन का प्राध्यापक ,अभी चार महीने पहले रिटायर होकर यहाँ घूमने आया हूँ ।क्या आप पहली बार यहाँ आयी हैं”? उस सज्जन ने बात बढायी। “जी, मैं पहली बार ही आयी हूँ और आप?”
” मैं तो आता रहता हूँ । इस जगह की खूबसूरती मुझे बहुत भाती है। जब भी मन होता है चला आता हूँ, वैसे भी रिटायर्ड लोगों के पास ज्यादा कुछ काम तो होता नही। ” उसकी बातों की बेतकल्लुफी तनु को बड़ी आत्मीय लगी। कुछ संक्षिप्त बातों बातों के साथ ही आनंद ने उसे दूसरे दिन साथ घूमने चलने की रिक्वेस्ट की। तनु भी तो यही चाहती थी।आखिर इस चारों तरफ़ जंगलों से घिरे इलाके में वह खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी ।आनंद सर की उपस्थिति उसे अच्छी लगी । दूसरे दिन राॅयल बंगाल टाइगर्स को देखने का कार्यक्रम था। जलपोत किनारे लग चुका था । आनंद सर उसे ढूंढते हुए उधर ही आ रहे थे। तनु चुपचाप उनके साथ चलने लगी। श्वेत बाघ की तलाश में जब सबकी आंखें एकतरफ लगीं थीं कि अचानक जंगल में कुछ हलचल हुई । आनंद सर ने रोमांचित हो तनु का हाथ पकड़ लिया “तनु देखो वह श्वेत बाघ “। बाघ तो वह नही देख पायी मगर एक अजीब सी हलचल तनु के मन को मथने लगा। इतना अपनापन तो उसके पूरे जीवन के सफर में कभी महसूस नहीं किया। आनंद सर बिलकुल सहज होकर उसके साथ थे जैसे कोई पूर्व परिचित। अगले दो दिन भी सागर की लहरों के बीच दोनों ने गपशप करते ही बिताए। हाँ यह जरूर कि दोनों सुबह की चाय से लेकर डिनर तक साथ लेने लगे।
आज आनंद सुबह चाय की प्याली लेकर उसकी तरफ आ रहे थे।दो कुर्सियां आमने-सामने लगाकर तनु को बिठाया फिर खुद बैठे ।आज आनंद गुनगुनाने के मूड में थे कि तनु ने उनके परिवार के बारे में पूछ लिया । ” तनु, मेरी एक अच्छी गृहस्थी चल रही थी पत्नी और एक बेटे और बेटी के साथ । करीब आठ वर्ष हो गये पत्नी कैंसरग्रस्त हो गई और फिर सदा के लिए मुझे छोड़ गई । बच्चे दोनों विदेश में सैटल्ड हैं।चूंकि मैं युनिवर्सिटी का प्रोफेसर था तो एक अच्छी पेंशन मुझे मिलती है जिससे कि मुझे बच्चों से कुछ लेना नहीँ पडता । हाँ, उम्र के इस पडाव में अकेला हो गया हूँ ।आगे की जिंदगी कैसे जीनी है इसके लिये हमेशा नई जगहों पर जाता हूँ और कई वृद्धाश्रम भी देख चुका हूँ जहाँ कि अपने जैसे लोगों के साथ समय गुज़र जाए।” तनु की आंखें नम हो आयी। आनंद के पूछने पर उसने अपने बारे मे सबकुछ बता दिया । अब वे दोनों रिलेक्स्ड थे और एक दूसरे की कंपनी में खुश भी।
आखिरकर छठा दिन भी आ गया जो इस पर्यटन का आखिरी दिन था। गाईड ने सारी जगहों को बखूबी घुमाया था, अब जलपोत किनारे पर लग गया। तनु उतरने को हुई तो लडखडा गयी। आनंद ने आगे बढ़कर उसे थाम लिया। आनंद ने आंखों में आंखें डालकर धीरे से बस इतना कहा ” मैं हूँ न”। जाते जाते आनंद आश्वस्त हो जाना चाहता था । जरा ठहर कर उसने तनु से पूछ ही लिया “मेरा साथ दोगी?” तनु की आंखों में मौन स्वीकृति थी। दोनों की परिस्थितियां एक जैसी थीं ।
इस दो पल के साथ ने उनके जीवन में नयी उम्मीदों को जन्म दे दिया। दोनों ने जल्दी मिलने का वादा लिया। आखिर एक नया सवेरा इंतजार में खडा था।
डॉ तारिका सिंह ‘तरु’
लखनऊ, उत्तर प्रदेश