कभी देखा है किसी स्त्री को कर्ण होते..!!

कभी देखा है किसी स्त्री को कर्ण होते..!!

कभी देखा है किसी स्त्री को कर्ण होते..!!
कानो में कुंडल जिस्म पर कवच धारण किए हुए..???
संवेदनाओं का लक्ष्य भेद कुण्डलों सा सामाजिक विचारों को धारण करने की बातें।हाथों में मर्यादाओं की चूड़ियाँ, माथे पर भव्य सुर्ख लाल सौभाग्य की बड़ी सी बिंदी मानो सूर्य को अपने मस्तिष्क पर स्थापित किए हुए..!!

गहरी काली काज़ल से भरे दो नैना जिसमे गर्भ के साथ ही दिखा दी जाती है मर्यादाओं की खाई…!
फिर यौवन की दहलीज में भर दी जाती है एक माँग सर्वस्व के लिए…!!
एक स्त्री का कर्ण होना आसान नही होता..!!

अंगराज को अपना अपने ही देह में करती है फ़िर वह सृजन अपने ही उत्तराधिकारी का।विस्तृत करती है सम्राज्य।उस स्थापना के लिए अक्सर लेती है एक नया जन्म जघन्य पीड़ा के उपरांत सुनो न..स्त्री का कर्ण होना आसान नही..!!

आखेट रूपी जिंदगी को सींचती हैं ख़ुद को ख़ुद के अस्तित्व से देती हुई कई अग्निपरीक्षाऐं..!उस सूत पुत्र की तरह जानती है वे सशक्त है हर मायने में।फ़िर भी हार जाती है वे अपने ही स्व प्रेम के ख़ातिर।
समर्पण और प्रेम के संतुलन में अक्सर जूझती है तरकश में कैद बाणों सी वह।भेदना जानती है वह हर तरह का चक्रव्यूह।
लक्ष्य निर्धारण के साथ चल देती है धारण किये मुनि वेश थामे मर्यादा का कमण्डल…!!

अपने दूसरे प्रेम की लाज के लिए धारण कर लेती हैं एक अज्ञात वास्।पता है क्यों एक जिंदगी वह समाज के लिए जीती हैं और दुसरी उस प्रेम के ख़ातिर जो स्वर्णमृग सा होकर भी उसको अपने मोहपाश में बाँधे रहता है।जिम्मेदरियो से फ़ारिग हो तब फिर भटकती है उस मृग को पाने जो उसकी जिंदगी की पारी का वह कटुसत्य होता हैं पता है कैसे अब वह कर्ण बदलने लगता है अपना स्वरूप अपनेपन का मारा नितांत अकेला बन जाता है वह शायद कौन्तेय की लाज रखने वह समाधिस्थ हो जाती है अपने परिधि से बाहर किए प्रेम के खातिर जो सदियों से अमान्य हैं जो कहलाता हैं एक भटकाव औऱ फिर बन अभिशप्त सी अहिल्या …!!
वही कर्णअपनी माता कुंती सा सहज त्याग देता है उस मुनि भेष धरि हुईं स्त्री को जो सच की परछाईं से दूर भागता सा अस्तित्व विहीन होते कर्ण को एक स्त्री समझ सकती है।क्योंकि उस सा ही वज़ूद जीती आई हैं हम स्त्रियां ..!!
!तो बोलो कहाँ आसान है एक स्त्री का कर्ण हो जाना..!तभी तो अमर अजर हो मरती है सदियों तक लाल रक्तिम आँखो सँग जिसमे भयानक अन्तरनांद के साथ गूँजती है एक युद्ध दुदुम्भी।एक प्रहर से दूसरे प्रहर तक। एक उम्र से उम्र की दूसरी उम्र की दहलीज़ तक। समर्पित किन्तु मन मे दुसरे प्रेम (स्व को जीना)यही दूसरा प्रेम है..!की चिता जलाए जिसे वह ख़ुद मुखाग्नि दें तोड़ देती है सदियों से चले आ रहे रिवाज़ों को।जो वर्जित है स्त्रियों के लिए।सुनो कभी सुना है कर्ण सी बनी स्त्रियों को जो ख़ुद की अन्तयेष्टि के लिए छोड़ देती है दुनियाँ के कट्टर रस्मो रिवाज़..!!
दूसरा कर्ण कोई कहाँ बन पाया अब तक तभी तो संभाल ली स्त्रीयों ने उसकी उत्तराधिकारी का अनाम सिंहासन।तो बोलो कहाँ आसान है स्त्रियों का भी कर्ण हो जाना…!!

स्वरा अग्रवाल

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