सावन बदला अपना स्वरूप ?

सावन बदला अपना स्वरूप ?

काले काले बदर
धुमड घुमड कर आए
वर्षा रानी भी
जमकर बरसी
बिजली कौन्धी
और जोरों की कड़की भी,
सावन न्यौता जो लेकर आई
मस्ती की,झूमने की
भींगने और भिगाने की
रूठने की, मनाने की
सपनाने की ,अलसाने की।
नहीं, सावन नहीं बदला अपना स्वरूप,
हां, बदला झूमने का रूप जरूर।

पेड़ पौधे भी मस्ती में झूमे
और भले ही सावन के
पड़े ना झूले ,
मन ने
खाये खूब हिचकोले,
लम्बी लम्बी पेंग भी मारी,
आसमां को छू कर आई!
धान की भी हुई रोपाई
चारों तरफ हरियाली है छाई
मेढक भी टरटराये
बारिश की बूँदें
रिमझिम रूमझुम
थिरकी भी।
सड़कों में गड्ढे भी पड़े
पानी के तेज बौछारों से,
पानी से भरे गढ्ढे
इंतजार करते रहे
बच्चों के छपाक छपाक
कूदने की,उनकी
खुशी की किलकारियों की
कागज के नाव चलने की।
इधर बच्चे भी किसी से कम नहीं ,
टब में डाली पानी
चलाया कागज की नाव,
फिर उसी में कूद ,
भीगा लिया तन और मन!
सावन भी झूम उठा
मन ही मन!

इक अकेली छतरी के नीचे
थोड़े सिमटे थोड़े सटे,
प्यार की बातें करते ,
एक दूसरे को
भींगाते ,बचाते
प्रेमी और दम्पत्ति,
अब
समझदारी से
दो छतरियों में
अलग अलग
दूर दूर!
जैसे भींगने की
फॉर्मेलिटी भर निभाते,
पर निकले जरूर
ऐसा है अब भी सावन का जुनून!
इसलिए सावन उठा फिर से झूम!

न भुटटा वाली,न चाय वाला
और न ही कोई फोचका वाला!
चारों तरफ फिक्र का
सन्नाटा सा छाया
बेफिक्री का आलम
जैसे हो गया कहीं गुम।
बाई बिना पकौड़े कहां और
बाई बिना
मेंहदी भी रंग लाई कहां !
और ऐसा भी सावन क्या
जो आराम की एक अंगड़ाई भी नहीं!
पर फिर भी
गृहस्वामिनी ने ठानी
और सिर्फ पकौड़े ही न छानी
पर बनाई फोचका
और उसका खट्टा मीठा पानी!
और झूम उठी वर्षा रानी!!
नहीं, सावन नहीं बदला अपना स्वरूप,
हां, बदला झूमने का रूप जरूर।

कविता झा
कलकत्ता।

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