छत से छाये पिता

छत से छाये पिता

माँ के आशीष-फूल में तुम
मनका से जड़ते रहे पिता
मौसम की बौछारों में भी
तुम छत से छाये रहे पिता

रोके थे अपने दम-खम से
दिन के सब झंझावातों को
गिरने से बचा लिया हरदम
तुमने सपनों के पातों को

विपरीत दिशा से धूलों की
रोकते रहते आँधियों को
जगते तो रहे रात भर तुम
नींद में हम ढल गये पिता

बचा लिया है आँचल माँ का
आँखों के बहते पानी से
हम रमे रहे नादानी में
उबरे न कभी मनमानी से

तुम मिले कितने ईश्वर से
तुमने आभा दी बचपन को
हम युवा हुए तो जान गये
तुम जो सिरजे थे सही पिता

अपने रोम-रोम में हम तो
उन गरिमाओं से भरे रहे
तेरे ही श्रम-संघर्षों से
मन से इतने हम हरे रहे

तुम नदियों की जलधारा में
लय में हरदम गाते रहते
तुम अनहद नादों में जैसे
दूरागत धुन से मिले पिता।

शांति सुमन
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर, झारखंड

0
0 0 votes
Article Rating
270 Comments
Inline Feedbacks
View all comments