माता और पिता
मैं अपने पिता की सबसे बड़ी आलोचक रहीं हूँ,
मेरी अति सौम्य मृदुभाषिनी माता की तुलना में,
वे काफी रूखे, सख्त, अहंकारी और अनुशासित इंसान दिखते रहें हैं।
अगर प्रतीकों की भाषा में कहा जाए तो,
माँ एक कोमल कविता सी हैं,
तो पिता एक राष्ट्र गान जैसे,
माँ के नर्म – गर्म गोद में बैठना,
मानों चारों तरफ मधुर संगीत की लय का गूंजना,
और पिता के आसपास भी फटकना,
मानों किसी अभेद्य किले को भेदना।
लेकिन जैसे – जैसे माँ की गोद से निकलकर,
दुनियादारी के झमेलों में फंसती गई,
यह बात समझ में आ गयी,
कि जबतक राष्ट्र – गान सुनाने वालों की आवाज में शक्ति है,
तबतक ही कोमल कविता में माधुर्य है।
माँ की सौम्यता का अस्तित्व तब तक है, जब तक पिता के व्यक्तित्व का दबदबा है,
और अब मैं पिता की आलोचक के बदले,
इस हद तक प्रशंसक अवश्य हो गईं हूँ,
कि चाहतीं हूँ कि उनके कुछ गुण,
मुझमें नहीं तो मेरी संततियों में अवश्य आ जायें,
क्योंकि इस दुनिया ने मुझे यह सिखा दिया है,
कि चाहे कोई भी युग हो,
या कोई भी मौसम,
घी निकालने के लिये उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।
ऋचा वर्मा
अनिसाबाद, पटना