एक पाती पिता के नाम
देखा है आपने कभी?
फल-भार से युक्त किसी विटप को,
मीठे बीज-कोशों को अपने,
जो भूमि पर बिखेरकर,
खुश होता है बच्चों को चखता देख।
उसके पल्लव बयार संग डोल,
दर्शा रहे हों मानो उसी आमोद को।
उसी पुष्पद की तरह विशाल,
छायादार छवि पिता की ,
जिसकी छाँँव तले पलता बचपन।
जो बचाता धूप, बारिश से,
यथाशक्ति संतति को आजीवन।
मुक्त हस्त से लुटाता वह,
बाल गोपालों पर अपना अनुराग-कोष,
उसकी आँँखों में भी हैंं सपने,
पर वह तो हैंं, औलाद के ही सुख-स्वप्न।
उसकी काया भी गर्वित होती है,
पर सिद्धि निज तनय की देख-देख।
वक्त के शकट पर निज सुत को,
भेज आलय के परिसर से दूर,
नयन कोरों में आगंतुक अश्रुकणों को,
चुपके से पोंछ, सबसे छुपाकर।
डोली पर बिठा अपनी गुड़िया को ,
चैन से सो पाया क्या वह?
राह तकी होगी उसने,
सलामती के खबरों की उसकी,
तब कहीं उसने भरी होगी लंबी श्वास।
सूनापन घर का ,रिक्तता आँगन की,
प्रतिबिंब बनाते उसके आनन पर भी,
पर हमेशा की तरह दबाए अपने मनोभावों को,
चुपचाप डूबा जो अपनी जिम्मेदारियों में,
पिता जो जतलाता नहीं, बोलकर जो बतलाता नहीं,
पूरे घर की रागिनी वह, शशि रूपिणी माँँ की चाँँदनी वह।
सृष्टि कर्ता के समकक्ष कद दिखती है जिसकी मुझे,
जिजीविषा उसकी सिखाती रही हमें,
बढे़ चल तू, मैं हूँ तेरे साथ खड़ा।
मत डर ,चल बढ़, मैं हूँ तेरे साथ खड़ा।
वामन जैसा विराट व्यक्तित्व तेरा,
मेरी क्षुद्र लेखनी की सीमा से है बाहर ,
हे पिता! तुम्हें नमन, तुम्हें नमन।
रीता रानी