बदलते स्वरूप में आज के पिता

बदलते स्वरूप में आज के पिता

आज फादर्स डे है। माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं। इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है। पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति प्रेम का इज़हार कई तरीकों से किया जाता है, पर बेटों-बेटियों द्वारा पिता के प्रति इज़हार का यह दिवस अनूठा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि स्त्री-शक्ति का एहसास करने हेतु तमाम त्यौहार और दिन आरंभ हुए पर पित्र-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे की कल्पना अजीब जरुर लगती है।
भारतीय समाज में मध्यमवर्गीय परिवारों से लेकर अभिजात्य वर्गों तक परम्परागत रूप से पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है, जहां पिता अपना प्रभुत्व रखते हुए परिवार के सदस्यों का संरक्षण करते आए हैं। इस प्रचलित सामाजिक-सांस्कृतिक पितृसत्तात्मकता में अन्य रिश्तों से इतर पिता और उनकी संतानों का एक अनोखा रिश्ता रहा है।

बदलते परिवेश में संतानों के प्रति पिताओं की परंपरावादी सोच के मायने बदल रहे हैं। समाज में प्रगतिशील सोच के साथ ही साथ अब बड़े पैमाने पर पिता की सोच में क्रांतिकारी बदलाव आ रहा है। एक ओर जहां मध्यवर्गीय परिवारों में पिताओं की बेटियों के प्रति सोच में सकारात्मक रवैया दिखने लगा है, वहीं पुत्रों के भविष्य को लेकर भी बेहद उत्साहवर्धक प्रवृत्ति देखने को मिलने लगी है। कहीं न कहीं आधुनिक बनते भारतीय परिवारों के युवा पिता अपनी पीढ़ियों से चली आ रही पितावादी परम्पराओं को तोड़ रहे हैं।

पिताओं के इस बदलते स्वरुप और शायद समाज में बेटियों के प्रति उदारवादी और सकारात्मक प्रयासों के कारण भारतीय समाज में बरसों से चली आ रही लैंगिक असमानता समाप्त हो रही है। परन्तु कहीं ऐसा लगता है कि यह बदलाव एक सही दिशा में नहीं जा पा रहा है। बरसों पुरानी बेटे-बेटियों की खाई को मिटाने के चलते कहीं हम बेटों के प्रति वही दोयम व्यवहार न अपनाने लगें जो कभी बेटियों के साथ किया जा रहा था। उद्देश्य असमानता को हटाना होना चाहिए, दोनों का अपना अपना अस्तित्व है और दोनों ही समान रूप से परिवार व समाज के लिए उत्तरदायित्व का अधिकार रखते हैं। आज जिस तरह से स्त्रियों और बेटियों को समाज में स्थान मिल रहा है, वो उनका अधिकार है, जो कहीं दबा दिया गया था। इसके पीछे कहीं न कहीं भारत की पितृसत्तात्मक व्यवस्था उत्तरदायी थी।

‘पिता’ के प्रति सम्मान और श्रृद्धा का भाव भारत में कोई नई प्रवृत्ति या सोच नहीं है, बस फादर्स डे के माध्यम से उसे प्रदर्शित करने का ढंग जरूर बदल रहा है।
व्यासजी ने ब्रह्मवैवर्त पुराण में क्रमश: सात और पाँच प्रकारके ‘पिता’ का उल्लेख किया है–

कन्यादातान्‍नददाता च ज्ञानदाताभयप्रद:।
जन्मदो मन्त्रदो ज्येष्ठभ्राता च पितरः स्मृता:॥
(कृष्णजन्मखण्ड 35 / 57)

अनदाता भयत्राता पत्नीतातस्तथैव च।
विद्यादाता जन्मदाता पज्चैते पितरो नृणाम्‌॥
(ब्रह्मखण्ड 10 / 153)

अर्थात ‘जो धर्म की शिक्षा देते हुआ अधर्म से निवृत्त करे, जो विद्या पढ़ाये तथा लोकव्यवहार में कुशल बनाये, जो सुख-साधनों को उपस्थित करे तथा पुत्र की गलती से किये हुए अपराधों को क्षमा करे, जो अपनी पैदा की हुई समस्त सम्पत्ति पुत्र को दे, जो अपने पुत्र द्वारा दी हुई जलांजलिको ग्रहण करे, जो उत्तम संतान उत्पन्न करने के लिये अपनी धर्मपत्नी से समागम करे, जो अपनी संतान की रक्षा के लिये भगवान से प्रार्थना करे, जो अच्छे कार्यो में प्रेरित करे, जो पुत्र द्वारा की गयी सेवा कों स्वीकार करे, जो पतन के गर्त में गिराने वाले समस्त लोक-विरुद्ध अवगुणों का पानकर अपने पुत्र से अनुराग (प्रेम) करे, जो दोषों से तथा शत्रुओं से बचाये, जो नौकर-चाकर आदि के द्वारा पुत्र की रक्षा का प्रबन्ध करे, उसे ‘पिता’ कहते हैं।’
चाणक्य नीति में पाँच प्रकार के ‘पिता’ का उल्लेख मिलता है। यथा–

जनिता चोपनेता च यस्तं विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृता:॥
(5 / 22)

धर्मशास्त्र के अनुसार
‘सर्वेषामपि पितृणां जन्मदाता परो मतः।’
‘दुर्लभो मानुषो देह:’ के अनुसार मानव-देह अत्यन्त दुर्लभ है, उस अप्राप्य शरीर को प्रदान करने का समस्त श्रेय केवल ‘पिता’ को ही है।

इस संसार में बन्धु-बान्धव, मित्र आदि जितने भी लोग हैं, वे अपने से अधिक अन्य किसी मनुष्य को उन्‍नतिशाली देखना-सुनना नहीं चाहते; किंतु इस स्वाभाविक इच्छा का अभाव सिर्फ एक ‘पिता’ कहलाने वाले व्यक्ति विशेषय में ही पाया जाता है, जो सर्वदा अपने पुत्र को अपने से सर्वतोभावेन उन्‍नत देखना चाहता है। इसीलिये ‘ पुत्रादिच्छेत्‌ पराजयम्‌’ कहा गया है। प्रत्येक पिता अपनी-अपनी संतान के लिये अनेक प्रकार के कष्ट सहन करता है, पग-पग पर लोगों की जी-हुजूरी करता है, अर्थात्‌ अपने पुत्र को सुयोग्य बनाने के लिये यथाशक्ति मानवसाध्य कोई बात उठा नहीं रखता। वह अपने पुत्र के सुख-दुःख में ही अपना सुख-दुःख समझता है। अतः निष्कर्ष ‘यह निकला कि पुत्र के लिये अहैतुक कल्याण चाहने वाला पिता से बढ़कर और कोई नहीं है। अतः पुत्र अपने पिता से जन्म-जन्मान्तर में भी कदापि उऋण नहीं हो सकता अर्थात्‌ पुत्र द्वारा पिता के उपकारों का बदला कभी नहीं चुकाया जा सकता।

पुत्र के लिये पिता सर्वस्व है। अर्थात्‌ वही धर्म, कर्म, स्वर्ग, तीर्थ, जप, तप, पूजा-पाठ आदि है; उससे बढ़कर और कोई देवता नहीं है। लिखा भी है–

पिता धर्म: पिता स्वर्ग: पिता हि परम तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥

विभिन्न धर्म ग्रन्थों में ‘पिता’ —
नास्ति पितृसमो गुरु:। (उशनः संहिता 1/35)
नच मित्र पितुः परम्‌। (ब्रह्मखण्ड 11/18)
मातापित्रो: पर तीर्थम्‌। (व्याससंहिता 4/12)
पिता देवो जनार्दन:। (चाणक्यनीति 10/14)
पितृदेवो भव। (तैत्ति० उप० 1/ 11- 2)

आज की युवा पीढ़ी अपने माता-पिता को पुरानी पीढ़ी कह कर नकारती है। उनकी मन:स्थिति को समझने का बिल्कुल प्रयत्न नहीं करती है। इस बात को हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जिस जगह पर आज हम खड़े हैं, समाज में रहने योग्य हैं और जो हमें आदर प्राप्त हो रहा है, वह केवल हमारी मेहनत का परिणाम नहीं, उसमे हमारे माता-पिता का परिश्रम भी छिपा हुआ है। अगर आज हम अपने माता-पिता को पुरानी पीढ़ी का कहकर उनका अपमान करने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाते, तो उसी तरह जब हम भी उनकी जगह खुद को पाएंगे और हमारी संतान स्वयं को नई पीढ़ी का कहते हुए हमारी परवरिश, संस्कारों को नकारते हुए हमें रूढ़ियों में जकड़ा हुआ कहेगी, तब हमें अपने माता-पिता की मन:स्थिति का आभास होगा।

वृद्ध हो चले माता-पिता को हम बोझ न समझें, उनको पूरा मान सम्मान दें जिसके वह हक़दार हैं ऐसा करके हम उन पर कोई एहसान नहीं कर रहे क्योंकि उन्होंने जन्म से लेके आज तक हम पर अपने निस्वार्थ प्रेम की बारिश की है। उन्होंने हमें समाज में सम्मानित व्यक्ति बनाने और अपने पैरों पे खड़ा करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया, किसी भी मुसीबत से टकरा गए, कभी किसी दुःख दर्द की परवाह नहीं की, खुद भूखे रह कर आपको खिलाया, तभी आज इस रूप में हैं।

……..यह मत सोंचे कि हमारे माँ बाप का व्यवहार हमारे प्रति कैसा है, यह सोंचें कि उनके प्रति हमारा क्या फ़र्ज़ है? मैंने अब तक की जिंदगी में यह देखा और अनुभव किया है कि वे ही घर/परिवार ज्यादा फले-फुले हैं जिस घर में हर रिश्ते को सम्मान मिली है और संवादहीनता की स्थिति नही है। रिश्तों में द्वंद नहीं रखें…..संवाद करें क्योंकि हर समस्या का समाधान संवाद में ही छुपा होता है।

माँ-बाप, बच्चों एवं परिवार/समाज के मध्य एक सशक्त सेतु का काम करते हैं। यदि बच्चे संवाद नही कर रहे हैं तो यह हमारा कर्तव्य है कि हम खुद से पहल करें….संवाद करें बच्चों से।
खलील जिब्रान ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है “तुम उन्हें(बच्चों को) अपनी मुहब्बत दे सकते हो, लेकिन अपनी सोच नही दे सकते क्योंकि उनके पास अपनी सोच है। तुम उन्हें रहने का ठिकाना दे सकते हो, पर उनकी आत्मा को पनाह नही दे सकते, न ही तुम उनके सपनों को चारदीवारी में घेर सकते हो। तुम उनकी तरह बन जाओ, पर कभी भी यह मत कहो कि वह तुम्हारी तरह बने”।
आज हमें इस बात पर बहुत ही शिद्दत से चिंतन-मनन करनी होगी कि ‘नयी पीढ़ी के एक पग आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि पुरानी पीढ़ी एक पग पीछे हटे…. उस पर पूर्ण विश्वाश करे…..और नयी पीढ़ी पूरी तरह सावधान होकर, अपने दृढ़ पगों पर चले, तब ही मातृ/पितृ दिवस की सार्थकता सिद्ध होगी।

पिता एक वट वृक्ष है जिसकी शीतल छांव में सम्पूर्ण परिवार सुख से रहता है। माँ घर का गौरव तो पिता से घर का अस्तित्व होता है, माँ के पास अश्रुधारा तो पिता के पास संयम होता है।
शिक्षा, मीडिया, एकल परिवारों के बढ़ते चलन और भारतीय पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्थाओं में माता-पिता की निरंतर बदल रही भूमिकाओं के चलते भारत में भी फादर्स डे मनाने की विदेशी परम्परा चल पड़ी है। यह सच है कि पिता द्वारा हमारे लिए किये गये उपकारों को हम किसी भी तरह उऋण नही हो सकते। हम उनके द्वारा किये गए हमारी परवरिश के लिए आज आभार तो जता ही सकते हैं।

चलते-चलते
“When a father gives to his son, both laugh; when a son gives to his father, both cry.”
-William Shakespeare

“जब एक पिता पुत्र को देता है तो दोनों हँसते हैं; जब एक पुत्र पिता को देता है तो दोनों रोते हैं।”
विलियम शेक्सपीयर

एक बूढ़े होते हुए पिता के लिए उसकी पुत्री से अधिक प्यारी कोई और नहीं होता। – युरिपीडेस

डॉ नीरज कृष्ण

0