ऊंगली पकड़ कर तुमने….
साठ के दशक में जन्में हम सब एक ऐसी बिरादरी का हिस्सा हैं, जो कि न बहुत पुरानी सोच के मोहताज हैं, और न ही बहुत नई तड़क-भड़क में विश्वास रखते हैं। और हमारी ऐसी सोच को बनाया, सजाया संवारा और एक रूप रेखा दी है हमारे माता-पिता ने। दहलीज के आगे जाओ लेकिन धरती से जुड़कर। पतंग को धागे सा उड़ाओ लेकिन डोर थामकर रखो। ऐसा शायद इसीलिए था कि हमारा देश अभी-अभी आजाद हुआ था और देश उमंगों से भरा था। लेकिन हमारे पहले की पीढ़ी फूँक-फूँक कर कदम रख रही थी। भारत एक नई पहचान के रूप में उभर रहा था।
मध्यवर्गीय परिवार रूढ़ीवादी भी हैं और सतर्क भी। इसी तरह के परिवार में जन्में अपने पिता पर मुझे गर्व है। कभी हमें बताया करते थे कि बी.ए. तक उन्होंने हाफ पैंट ही पहनी, क्योंकि घर में बच्चे ज्यादा थे और संसाधन कम। उस पीढ़ी ने स्वतंत्रता संग्राम को झेला था। पिता कभी जेल में, तो कभी सत्याग्रह में। दस छोटे भाई-बहनों को संभालने की जवाबदारी भी उनके और उनके बड़े भाई के कंधों पर थी। शैाक-मौज का प्रश्न ही नहीं था। तब शायद सभी मध्यम वर्गीय परिवारों के घर-घर की यही कहानी थी। कहते हैं कि मंझला या बीच वाला बच्चा स्वभाव से ही सामंजस्य रखने वाला होता है। उन्होंने कभी भी अपने को जिम्मेदारियों से अलग नहीं किया। पढ़ते-लिखते अच्छी सरकारी नौकरी में आ गए। विषम परिस्थितियों में भी अपने स्वभाव को कोमल रखने का उनका एक हुनर हमेशा सबको प्रभावित करता रहा।
हमारे तीन भाई-बहन में मैं मंझली हूँ। जब बिहार के एक छोटे शहर में हमारी पढ़ाई शुरू हुई तो लड़कियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान देने का चलन शुरू हो गया था। बराबरी का हक सबको मिले, लड़कियां आगे पढ़ें और कदम से कदम मिलाकर चलें। हमारे खानदान में लड़कियों की पढ़ाई आगे तक चले, हमेशा पारिवारिक चर्चाओं में वो कहा करते थे। हर एक शिक्षित लड़की के साथ उसके पिता होते हैं, ये मैं बखूबी जानती भी हूँ और मानती भी हूँ। जिस तरह का एक संरक्षण उन्होंने मनोवैज्ञानिक स्तर पर हमें दिया, वह शायद अद्वितीय था। घर में साथ लूडो-कैरम साथ खेलने से लेकर, बाहर बैडमिंटन खेलने तक, उनका साथ मिला। कभी भी छिपकर हमने कुछ नहीं किया। एक मूलमंत्र उन्होंने दिया था, काम के समय काम और खेल के समय खेल। हमारे घर में अभिव्यक्ति की आजादी थी, अनुशासन हीनता की नहीं। हमारे एक परिचित के यहां बाप-बेटी साथ बैठकर खाना नहीं खाते, यह हम दोनों बहनें समझ हीं नहीं पाई। हमारे घर का माहौल स्वच्छंद था। सिनेमा से लेकर संगीत तक सभी विषयों पर खुलकर चर्चा होती थी। साठ और सत्तर के दशक में भारत बदल रहा था। हर क्षेत्र में नए आयाम स्थापित हो रहे थे। बांग्लादेश का युद्ध तभी समाप्त हुआ था। हम अपने पिता के साथ रोड के किनारे खड़े होकर भारतीय सेना का अभिवादन करने पहुँचे। वो गर्व, वो भीड़ का हिस्सा, शायद किसी कंसर्ट में भी ना मिले। उनके व्यक्तित्व की एक खासियत थी कि जमीन से जुड़ो, समझो और खुद देखो। उनके इसी स्वभाव के कारण हम हर वर्ष एक राज्य का दौरा करते थे। एक लंबी लिस्ट है। कानपुर, लखनऊ, बनारस, जयपुर, जोधपुर जैसे शहरों की। उनका कहना था भारत के इतिहास को समझने के लिए भ्रमण जरूरी है। घर के आगे स्टेशन था, जहां से राजधानी ट्रेन गुजरती थी। हम सबको चार बजे उठकर राजधानी ट्रेन दिखाने ले जाते। हम कभी नहीं कुनभुनाए क्योंकि ये सब हमारी धरोहर थी और देश सेवक पिता की संतान। मेरे पिता देश की तरक्की को लेकर बहुत उत्साहित रहते थे। ‘देखना एक दिन हम बहुत तरक्की करेंगे और चांद तक जाएंगे’- चंद्रयान की सफलता शायद उनको बहुत खुश करती थी।
हमारे देश में पुरुषों को उनकी भावनाओं को दिखाने का अधिकार नहीं है। इसी कारण से शायद उस जमाने में पिता को एक खौफ बनाकर रखते थे। ‘‘आने दो पापा को’’ यह वाक्य अच्छे से अच्छे शैतान की सिट्टी – पिट्टी गुम कर देता था। हमारे पिता हमेशा गुनगुनाते हुए घर आते थे और मां की यह धमकी हम पर शायद बेअसर होती थी। लड़कियों वाले घर, जब वो बड़ी हो रही होती हैं, बहुत संवेदनशील बातें होती हैं। कैसे दिख रहे हैं, कोई क्या बोलेगा, क्या हम जैसे हैं वैसे समाज हमें स्वीकार कर लेगा। लड़कियों को अपने पिता से शायद यही शिकायत अब भी है और तब भी थी- ‘‘हमारी बात कोई नहीं सुनता’’। सब बस ये करो की हिदायत देते हैं। हमने भी कितनी शामें इसी कुड़कुड़ में गुजारी हैं कि हमारी तो कोई सुनता ही नहीं। ये उम्र का दौर ही ऐसा था।
पढ़ते हुए, आगे बढ़ते हुए छोटे शहर से राज्य की राजधानी और फिर देश की राजधानी का सफर पता ही नहीं चला, क्योंकि हर कदम में वो हमारे साथ थे। उन्होंने कभी ये नहीं सोचा कि वो लड़की है, अलग हैं और उसकी एक लक्ष्मण रेखा है। अस्सी के दशक में माहौल बदल रहा था। ‘संपूर्ण क्रांति’ से हम दोबारा अपने माहौल में वापस आ गए थे। हमें अपना रास्ता अब दुनिया के साथ बनाना था। इस माहौल में देश एक नए मोड़ पर खड़ा था। फिल्में भी अलग किस्म की बनने लगी थी जिसका हीरो अब ‘‘एंग्री यंग मैन’’ था। फिल्मों को समाज का दर्पण कह सकते हैं। रविवार को फिल्म देखना हमारे परिवार का एक कार्यक्रम था। सुंदर कपड़े पहनकर, रिक्शे पर बैठकर फिल्में देखी जाती थीं। चाय, समोसे खाते हुए। मेरे पिता फिल्में पूरी नहीं देख पाते थे। शायद ‘‘उन’’ दृश्यों को सहन करना उनके वश की बात नहीं थी। उनके इस असमंजस पर हम सब बहुत हंसते थे। लेकिन वो हमारे साथ आते थे ताकि परिवार एक साथ बंधकर रहे। एक पिता न केवल कर्ता है, वह परिवार को सुरक्षा प्रदान करता है। उनके संवेदनशील व्यवहार से बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं। बचपन की बहुत यादें ऐसी हैं जो कि मानस-पटल पर गहराई से अंकित रहती हैं। जैसे कि उनका सुबह उठकर अपना सब काम करना, जूता पालिश करना, घर के नौकर को स्कूल भेजकर पढ़ाना, कभी भी किसी से एक ग्लास पानी भी नहीं मांगना। ये शायद उनके संस्कार थे। अपना काम करने में क्या शर्म। हमें हमेशा मीठी घुड़की मिलती थी। कैरम बोर्ड खेलते हुए हम कभी चोरी नहीं कर सकते थे। इस सीखने, बढ़ने, पढ़ने में बचपन शायद निकल गया।
जब आप दहलीज पर होते हो तो आपको सोचना पड़ता है- आगे क्या। लेकिन शायद उन्होंने हमारे लिए सोच रखा था। स्कूल से दबाव था कि मैं विज्ञान पढ़ूं। गणित और बायलॉजी से मुझे कभी प्रेम नहीं रहा। बड़ी उहापोह के बाद मैंने उनसे कहा कि मैं तो कला की सेवा करुंगी। लगता है जैसे उनको इसका ही इंतजार था। बड़ी जल्दी ही मान गए। कोई पत्थर उतर गया। बच्चों को माता-पिता का संबल मिलना बहुत ही जरूरी है। खासकर लड़कियों को। लड़कियां बराबर हैं, उनके अरमान, उनकी जरूरतें भी बराबर हैं-उनके मुँह से हमेशा ऐसा ही सुनती थी। शायद वे अपने समय से आगे थे। पढ़ाई एक रास्ता खोल देती है, यह भी शायद उनके जीवन का एकमात्र ध्येय था। उनका स्नेह और भी कई बातों से झलकता था। निरामिष होते हुए भी अपने रुमाल में कबाब बांधकर लाना- भले ही उनकी नाक बंद हो उनकी उंगली से। हमारी उपलब्धियों को सुनकर आराम कुर्सी पर आंखें बंद कर लेट जाना गोया आत्मसात कर कर रहे हों। हम दोनों बहनें उनकी हमेशा ऋणी रहेंगी। मां तो पेड़ा-बर्फी के बंटवारे में थोड़ा भेदभाव कर देती थीं, और भाई को एक हिस्सा ज्यादा दे देती थीं, उनकी तरफ से हमें कभी ऐसा नहीं लगा। कभी हमने कॉलेज की तरफ से दक्षिण भारत यात्रा करने की इच्छा जताई तो अगले ही दिन, मितव्यतिता पर रोज भाषण देने वाले पिता ने, छह सौ रुपए हाथ में थमा दिए। हमारे घर के दीवार पर एक बड़ी सुंदर तस्वीर थी। मां की बी.ए. की डिग्री के साथ। बड़ी अनिच्छा से मां ने बीस साल के बाद बी.ए. की परीक्षा दी, पास कर गईं। स्टूडियो जाकर डिग्री के साथ फोटो दीवार पर लग गई। ऐसी अनगिनत बाते हैं जो बचपन की हैं, कॉलेज की हैं और अब तो कुछ कुछ भूलने भी लगी हूं।
पिता का साया और वो भी समझदार पिता की छाया बहुत किस्मत वालों को मिलती है। उनके दिए संस्कार, अनुशासन ही मेरी विरासत हैं। उनकी एक छोटी डायरी थी जिसमें वो कुछ लिखा करते थे। हमें उत्सुकता होती थी कि हर रविवार को क्या लिखते हैं। फिर एक मोटे चमड़े के बैग में वह डायरी बंद हो जाती थी। उनके जाने के बाद वह बैग बड़े चाव से खोला और डायरी निकाली। उसमें बड़ी सुंदरता से अपने संचय किए हुए पैसे तथा लाइफ इंश्योरेंस की मासिक किश्तों का विवरण था। तब कम्प्यूटर नहीं थे। लोग अपने हिसाब- किताब खुद रखते थे। उनके जाने के बाद मां को कोई कमी नहीं हो, ऐसा उन्होंने सोचा होगा।
मुझे उनके जल्दी जाने का एक ही दु:ख है, उन्होंने अपने बच्चों की कोई सफलता नहीं देखी। वो शायद इसी में खुश होंगे कि उन्होंने सबको एक राह पकड़ा दी है और उस पगडंडी पर चलकर वो अपने रास्ते पर निकल पड़ेंगे। ‘’ऊंगली पकड़कर तुमने चलना सिखाया था न…’’ ‘राजी’ फिल्म का यह गीत मुझे हमेशा रुला देता है। तब भी मैं इसे बार-बार सुनती हूं। आपकी ऊंगली पकड़कर मैं दहलीज पार कर चुकी हूं। काश आप कुछ दूर और साथ चलते….
डॉ. अमिता प्रसाद