पर्यावरण का करें ख्याल
दुनिया भर में 5 जून का दिन विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में निर्धारित है। 1973 में पहली बार अमेरिका में विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया गया था। इस वर्ष भी हर वर्ष की तरह पर्यावरण दिवस पर दो-चार पेड़ लगाकर हम अपने दायित्व को पूरा कर लेंगे। लेकिन प्रकृति को समझने की कोशिश नहीं करेंगे। देखा जाए तो सृष्टि के निर्माण में प्रकृति की अहम भूमिका रही है। सृष्टि का निर्माण प्रकृति के साथ ही हुआ है। इस दुनिया में सबसे पहले वनस्पतियां आई। जो कि जीवन का प्राथमिक भोजन बना। उसके बाद अन्य जीवों ने अपनी जीवन प्रक्रिया शुरू की। माना जाता है कि मनुष्य की उत्पत्ति अन्य जानवरों के काफी समय बाद हुई है। अगर कहा जाए तो मनुष्य की उत्पत्ति के बाद से ही इस सृष्टि में आये दिन कोई न कोई बदलाव होते आ रहें हैं। मनुष्य ने अपने बुद्धि व विवेक के बल पर खुद को इतना विकसित कर लिया कि और कोई भी जीव उससे ज्यादा विवेकशील नहीं है। यही कारण है कि दिन प्रतिदिन मनुष्य अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति की कुछ अनमोल धरोहरों को भेंट चढ़ाता जा रहा है।
प्रकृति का वह आवरण जिससे हम घिरे हुए है पर्यावरण कहलाता है। आज वही पर्यावरण प्रदूषण की चरम सीमा पर पहुंच चुका है। हर कोई किसी न किसी तरीक़े से पर्यावरण को प्रदूषित करने का काम कर रहा है। जहां कल-कारखानें लोगों को रोजगार दे रहें हैं। वहीं जल-वायु प्रदुषण में अहम भूमिका भी निभा रहें हैं। कारखानों से निकलने वाला धुआं हवा में कार्बनडाईआक्साइड की मात्र को बढ़ा देता है जो कि एक प्राण घातक गैस है। इस गैस की वातावरण में अधिक मात्रा होने के कारण सांस लेने में घुटन महसूस होने लगती है। चीन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों के वातावरण में गैसीय संतुलन बिगड़ने से लोगों को गैस मास्क लगाकर घूमना पड़ता है। अभी अपने देश में यह नौवत नहीं आयी है। लेकिन इस बात से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता कि आने वाले भविष्य में हम भी उन्हीं देशों की तरह शुद्ध हवा के लिए गैस मास्क लगा कर घूमते नज़र आएंगे।
भारतवर्ष में पुरातत्व काल से ही वनों को अत्याधिक महत्व दिया गया है। हम अगर अपने वेद-पुराण उठा लें तो उनमें भी वनों व वृक्षों को पूज्यनीय बताया गया है। हमारे वृक्षों को कागज की जरूरत पूरा करने के लिए काटा जा रहा है और उन स्थान पर पूनः वृक्षारोपण करने के बजाय रिहायसी कॉलोनियाँ व नगर बसायें जा रहें हैं जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।
पृथ्वी पर अनगिनत विविधताएँ हैं, किंतु कुछ भी निरर्थक नहीं है। हर वस्तु की कुछ-न-कुछ सार्थकता है, उपयोगिता है। ऐसी विविधताओं से भरी सृष्टि में मानव उसका चरम निदर्शन है। मानव के साथ शेष प्रकृति का सहचरी भाव भी है और अनुचरी भाव भी। ये दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, यथा- मनुष्य वृक्ष-वनस्पतियों का पौधारोपण करके, उन्हें खाद-पानी देकर उनका पालन-पोषण करता है, तो वे वृक्ष-वनस्पति अपने बीज, फल आदि भोज्य-पदार्थ प्रदान कर मानव के पालन-पोषण का आधार बनते हैं। इसी कारण मनुष्य प्रकृति के प्रति श्रद्धावान होता आया है। दिव्य और उपयोगी शक्तियों के प्रति पूज्य भाव से ओत-प्रोत रहना स्वाभाविक भी है। इसी के परिणामस्वरूप वृक्ष-पूजा सदा से की जाती रही है। वैदिक साहित्य में इसके निदर्शन भरे पड़े हैं।
पेड़-पौधों में देवी-देवताओं का निवास रहता है। लोक में यह मान्यता व्याप्त है कि यदि हम दिव्य शक्तियों के निवास-स्थल इन वृक्षादि को नष्ट कर देंगे तो सम्बद्ध देवताओं के कोप-भाजन भी बन सकते हैं। इस भय ने बड़ी सीमा तक पेड़ों को काटने और उन्हें काटने के कारण बढ़ने वाले प्रदूषण से संसार को बचाये रखा। कुछ वृक्षों पर अध्ययन और प्रयोग करके उनके गुणों को पहचाना गया। पीपल के महत्त्व को भी विशेष रूप से पहचाना गया। वह सर्वाधिक ऑक्सीजन निःसृत करता है।
“बृहदारण्यकोपनिषद” में याज्ञवल्क्य ऋषि ने वृक्षों की तुलना मानव-शरीर से की है यथा ‘वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा। तस्य लोमानि पर्णानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः॥ त्वच एवास्य रुधिरं प्रस्यन्ति त्वच उत्पटः। तस्मात् तदा तृण्णात् प्रैति रसो वृक्षादिवाहतात्॥ मांसान्यस्य शकराणि कीनाट स्नाव तत् स्थिरम्। अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा मज्जोपमा कृता’॥
अर्थात जैसे वन का बड़ा वृक्ष है, ऐसा ही मानव-शरीर है। मानव-देह में रोम हैं, वृक्ष में पत्ते हैं। मानव की त्वचा है, वृक्ष की बाहरी छाल। जैसे मनुष्य की त्वचा से रक्त बहता है, वैसे ही वृक्ष की छाल से उत्पट रस निकलता है, जैसे कहीं कट जाने पर मनुष्य का रक्त निकलता है, वैसे ही वृक्ष को काटने पर उसका रस बहता है। मानवीय मांस और मांसपेशियों की तरह वृक्ष की छाल के भीतर का भाग निकलता है। पुरुष में जैसे नाड़ी-जाल है, वैसे ही वृक्ष का कीनाट (लकड़ी से लगा हुआ कोमल भाग) है। उसकी अन्दर की लकड़ियाँ मानो हड्डियाँ हैं। उसकी मज्जा पुरुष की मज्जा के समान है।
‘मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥
अर्थात सब जीव मेरी ओर मित्रता की दृष्टि से देखें। मैं सबकी ओर मित्रता की दृष्टि से देखू। सब एक दूसरे की ओर मित्रता की दृष्टि से देखें। मृदा संरक्षण की एक प्रार्थना में कहा गया है- ‘ पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हि सीः॥’
अर्थात् मृदा को उर्वर बनायें तथा उसके प्रति हिंसा (प्रदूषण) न करें। एक मन्त्र में ऋषियों ने बादलों से कामना की है कि वे हमारे लिये सुखकारी हों। ‘शं योरभि स्रवन्तु नः’। यजुर्वेद में पेड़-पौधों और पशुओं की रक्षा करने की शिक्षा दी गयी है- ‘स्वधिते मैन हिसी:’ अर्थात् वृक्ष को कुल्हाडी से मत काटो।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि हमारा देश उन्नति कर रहा है। आज हम किसी भी देश से कम नहीं है। लेकिन क्या यह सही है कि हम अन्य विकसित देशों की विकास की दौड़ में तो दौड़ते जा रहें हैं परंतु अपनी धरोहर को नष्ट करते जा रहें हैं। जो देश आज प्रदुषण को कम करने में लगा है। एक ओर हम है कि अपने देश में हरे-भरे जंगलों को तहस-नहस करते जा रहें हैं।
एक दिन ऐसा आने वाला है जब हम अपनी आने वाली पीढ़ी को वन, उपवन की बातें अपने धार्मिक ग्रंथ रामायण व महाभारत में पढ़कर सुनाएंगे। वन होते क्या है, यह आने वाली पीढ़ी नहीं समझ पाएगी? अब अगर बात की जाए प्रदुषण की तो वृक्षों का कटना प्रकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है जिसके कारण वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। वायु में बढ़ती कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा को पेड़ ही कम कर पाते हैं। पेड़ कार्बनडाईआक्साइड को ग्रहण कर शुद्ध ऑक्साीजन छोड़ते हैं जिससे प्रकृति में गैसों का संतुलन बना रहता है। लेकिन अब कार्बन उत्साहित करने वाले श्रोत बढ़ते जा रहें हैं। जबकि ऑक्सीजन बनाने वाले पेड़ों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
जल ही जीवन है लेकिन उस जीवन में भी प्रदूषण नाम का जहर घुलता जा रहा है। पानी इंसान की अमूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। बिना जल के जीवन की कल्पना करना भी बेकार है। आज के दौर में जल भी प्रदूषण की चरम सीमा पर है। जलवायु के नाम से पर्यावरण को जाना जाता है। लेकिन अब न तो जल प्रदूषण मुक्त है न ही वायु। देश की गंगा, यमुना, गंगोत्री व वेतबा जैसी बड़ी-बड़ी नदियां प्रदूषित हो चुकी है। सभ्यता की शुरूआत नदियों के किनारे हुई थी। लेकिन आज की विकसित होती दुनिया ने उस सभ्यता को दर किनार कर उन जन्मदयत्री नदियों को भी नहीं बक्शा।
भारत देश हमेशा से ही धर्म और आस्था का देश माना जाता रहा है। पुराणों में यहां की नदियों का विशेष महत्व वर्णन किया गया है।
हम यह क्यों भूल जाते है कि प्रकृति जीवन का आधार है जिसे हम लगातार दूषित करते जा रहे है। इतिहास साक्षी है कि प्रकृति के अनुकूल चलने वाला ही विकास करता है। जबकि विपरीत चलने वाले जीवन का तो नमोनिशान नहीं मिला। अब वक्त है कि हम इन बातों पर विचार करना होगा। आखिर कब तक आने वाले सुंदर भविष्य के सपने बुनने के लिए अपने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे। एक दिन तो अति का भी अंत हो जाता है। तो हम क्या है?
आज जब समूची दुनिया कोरोना जैसे वैश्विक महामारी से बचने के लिए अपने को अपने-अपने घरों में कैद कर लिया है जिससे सड़कें वीरान हो गईं, उद्योग-धंधे सभी ठप्प हो गए तब प्रकृति को पुनः सदियों के बाद खुद को सँवारने-सुधारने का मौका मिल गया। जिसके सुखद एवं आश्चर्यजनक परिणामों को हम आए दिन समाचार-पत्रों/ टीवी के माध्यम से देख तो पा रहे हैं, विडंबना कि हम इतने अभागे हैं कि आज अपनी करतूतों के कारण इस सुखमय माहौल का अनुभव महज अपने-अपने टीवी स्क्रिन और मोबाइल फोन पर ही देख कर संतुष्ट हो रहे हैं। अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा आज भी समय है चेतने का इस अपने पर्यावरण को शुद्ध रखने और प्रकृति को बचाने का। इसका एक ही उपाय है वो है प्रकृति को बचाना है, प्रदूषण को कम करना है तो हमें ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाने होंगे। वृक्ष हमें लगाने होंगे लेकिन सरकारों की तरह कागजों पर नहीं बल्कि हमें आज से तय करना होगा कि आने वाली पीढ़ी को अगर हँसता-खेलता देखना है तो प्रत्येक को कम से कम एक वृक्ष तो लगाना ही होगा। यदि आज हम बच्चों को पर्यावरण के बारे में सही-सही बातें नहीं सिखाएंगे तो कल हम-और-वे इसके परिणामों के साथ जीने के लिए बाध्य हो जाएंगे।
डॉ नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार