मानसिक तनाव-एक मंथन

मानसिक तनावः एक मंथन

दोस्तों, हम सभी इस बात से भली-भाँति वाकिफ हैं कि मानसिक तनाव एक प्रकार का असंतुलन है जो कि हमारे दैनिक वातावरण, साथ रहने वाले लोगों के व्यवहार और इन सब के साथ, हमारे मन मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं का, सामंजस्य न बिठा पाने का परिणाम है, फलस्वरूप मन की शांति, भावनाओं की स्थिरता, गायब हो जाती है और हमारी कार्यशैली, कार्यक्षमता पर बेहद ही गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। साथ ही हमारा जीवन महीनों, सालों के लिए रुक सा जाता है।
दोस्तों, आइए चलें सबसे पहले बात करते हैं लॉकडाउन से पहले की। जब जिंदगी इतनी भागदौड़ से भरी थी, कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। किसी के पास सांस लेने तक की फुर्सत नहीं थी, एक दूसरे के लिए समय का नितांत ही अभाव था। सिर्फ पैसा और पैसा कमाने की होड़। फिर भी किसी को खुश कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था, कोई किसी से किसी भी तरह से संतुष्ट नहीं हो पा रहा था। सभी को खुद को छोड़कर बाकी सबों में सिर्फ और सिर्फ कमियां ही कमियां नजर आ रही थी, लिहाजा कोई भीतर से खुद भी खुशी का अनुभव नहीं कर पा रहा था, असंतुष्टि ही असंतुष्टि का साम्राज्य फैला हुआ था। ऐसी कांप्लेक्स स्थिति में प्रत्येक परिवार का कोई न कोई सदस्य अवसाद ग्रसित था। बड़ों की बात तो दूर, बच्चों तक को हम अवसाद से बचा नहीं पा रहे थे। प्रतियोगिता के होड़ में उनको अनजाने ही शामिल कर देना, ऊपर से उनपर बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक क्षमता जाने बगैर उन्हें अभिभावकों एवं शिक्षकों द्वारा तथाकथित उचित, अनुचित, ख्वाहिशों, अपेक्षाओं के बोझ से लाद दिया जाना, सभी कारण बन रहे थे, बरगद जैसे विशालकाय वृक्ष को गमले में डाल उसके बौनापन में हर गमलों में प्रतियोगी भावनाएँ डाल उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ करने से रोकने का, वो खुद को ही भूले जा रहे थे, अपना सर्वश्रेष्ठ करने के बनिस्पत वो “इससे” और “उससे” बेहतर करने की, जद्दोजहद में अपनी जिंदगी राख के टीलों में झोंक रहे थे।

उधर, समाज के निचले तबके की महिलाएं अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ में कहीं मजदूर, कामगार, कामवाली की जिंदगी बिता रही थी, सुबह दोपहर शाम हर रोज एक मशीन सी जिंदगी के नाम। अब जो बात करें मध्यमवर्गीय परिवार के महिलाओं की तो वो भी थक ही चुकीं थी, बस गृहस्थी की तुला में स्वयं को और परिवार की चाहतों, ख्वाहिशों, सपनों, अरमानों का संतुलन बिठाते-बिठाते। हर एक को, हर हाल में, हर किसी को खुश करना, खुश रखना ही उनके जीने का पहला और आखरी उद्देश्य होता। और इसमें भी वो पिसती ही जा रही थीं। ऊपर से कुछ महिलाएं नौकरीपेशा होने की दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए घर एवं कार्यक्षेत्र के दायित्व एवं अपेक्षाओं के साथ स्वयं का तालमेल बिठाने के जी तोड़ प्रयास में पहचान बनाने के प्रयास में स्वयं से ही खुद की दूरी नापती, दिनोंदिन मानसिक रूप से टूटती जा रही थी, पर इस अथक, अटूट प्रयास के पथ पर, दोराहे पर, कोई उनके साथ कहाँ खड़ा था, वह सदैव खुद को अकेला और टूटता हुआ ही पा रहीं थीं।
उधर दूसरी ओर पुरुषों के मामले कुछ कम हैरान करने वाले नहीं थे, रात दिन के मेहनत के बावजूद उनसे जुड़ी उनके परिवार की अपेक्षाओं को वो कहीं से भी पूरा करने में असमर्थ होते दिख रहे थे। हर तरह चिढ़न, कुढ़न, मानसिक तनाव के शिकार पुरुष, डायबिटीज, हृदय रोगों से पीड़ित और मन के दुख को मन में दबाऐ फिरते, अपने और अपनों से दूर रिश्तों को फिर से सहेजने के दबाव और दर्द को जेहन में दबाए और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात बुर्जुगों की, जो इन सब से वर्षो से अलग-थलग होते जा रहे थे, उनका दर्द सुनने और समझने के लिए न लोगों और परिवार के पास समय बचा था ना भागमभाग के अति माहौल में, एहसास ही शेष था और जब समस्याओं का बाढ़ रुपी जल जब अपनी सीमा रेखा को पार कर रिश्तों की मर्यादाओं को डुबोने लग जाता था तो पति-पत्नी के मामले में तलाक और वयस्क नागरिकों और घर के बुजुर्गों के मामले में वृद्धाश्रम तो था ही जिंदाबाद । जहां बुजुर्ग दंपत्तियों को या फिर घर के एकल बुजुर्ग को अकेलापन झेलने, आपसी मन मुटाव का विष पीने और रिश्तों पर चढ़ी स्वार्थ की परत को चखने हेतु मजबूर कर छोड़ आया जाता था। और ये सारी मानसिक जटिलताऐं वर्षों से हमारे हालात की साक्षी बनी थीं । हम इन्हीं सब मानसिक जटिलताओं के बीच सालों से जीते चले आ रहे थे, इन्हीं को अपनी नियति मान बैठे थे। हर किसी को हर किसी से सिर्फ शिकायतें हीं थीं।पर बावजूद इसके इसी में जीना और इसी में मरने के अलावा किसी के पास कोई पुख्ता चारा नहीं था। इन्हीं सदियों से चली आ रही रिश्तों की मानसिक आंधियों की धूलों के चक्रवाती गुबारों के बीच, कोरोना रूपी परजीवी अपना विशिष्ट तांडव दिखाने आज हम सबों के समक्ष अपनी संपूर्ण नकारात्मक शक्ति एवं पराकाष्ठा के पार की परीक्षाओं के साथ अपने समूचे साजो सामान, अस्त्र शस्त्रों और सेना के साथ हमारे धैर्य, आत्मबल, आत्मशक्ति, जिजीविषा, जीवटता, परमात्मशक्ति, सहनशक्ति एवं जीने की इच्छाशक्ति को परखने के लिए मौजूद है।

अब जो मौजूद है तो अपनी उपस्थिति भी बखूबी दर्ज करा रहा है। जनमानस अस्त-व्यस्त, त्रस्त, पस्त और बीमारी की अराजकता समस्त। घर-घर समाज समाज देश प्रदेश दुनिया का कोना कोना कोरोना से हतप्रभ। निस्तब्ध, जनमानस की रुग्न करुण चित्कार, पुकार, ब्रह्मांड के कण कण में गुंजायमान होकर समाता जा रहा है। कोटि-कोटि आत्माओं का दारूण दर्द अपने संपूर्ण आवेग में धरती अंबर को थर्रा कर कुछ बताना चाह रहा है। मानव को मानव से हर प्रकार शारीरिक, सामाजिक, भौतिक दूरी बनाकर रखनी पड़ रही है।

नौनिहालों के भविष्य पर सवाल खड़े हो रहे हैं, पहले से ही बीमार लोग चिंता में घुलकर, और भी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार हो रहे हैं। चारों ओर एक अनजाने भय का वातावरण व्याप्त है। क्या होगा? क्या होगा कल, परसों, अगले महीने, छः महीने, साल भर बाद, अगले साल? आखिर अब क्या होगा? हर मौन मास्क के नीचे एक ही सवाल कौंध रहा । अब उनका क्या होगा? उनके बच्चों का क्या होगा? आने वाले जिंदगी का निर्णय वो करेंगे या कोरोना?
आपात परिस्थितियों में भयावह परिस्थितियों को नियंत्रित करने हेतु भारत सरकार को लॉक डाउन जैसे अहम फैसले लेने पड़े। जिसमें जनता का भरपूर समर्थन एवं समझ भरा सहयोग भी मिला।

पर ऊपरी तौर पर ये कुछ हद तक तो सहयोगी रहा परंतु अंदरूनी एवं मानसिक तौर पर ये लॉकडाउन दिलों दिमाग पर अपने दूरगामी प्रभाव छोड़ने में काफी हद तक सफल हो रहा है। रोज-रोज वायरस, लॉकडाउन, अर्थव्यवस्था की खबरें लोग सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं और लगातार सिर्फ और सिर्फ इसी पर चर्चा भी कर रहे हैं। जिससे लोगों के अंतर्मन में नकारात्मकता एवं डर की कभी न साफ होने वाली मैली चादर की परत बढ़ती जा रही है। लोगों का कहना है शुरू में तो उन्हें अच्छा लगा कि पूरे परिवार के साथ रह पाएंगे, कोरोना वायरस का ज्यादा डर भी नहीं था, पर अब ये डर उनपर हावी हो गया है। परिवार, घर और दोस्तों से दूर कहीं अटके पड़े लोग अपने हालात से अकेले ही निपट रहे हैं और चारदीवारों में बंद सिर्फ और सिर्फ अपने अनिश्चित भविष्य के बारे में सोच सोचकर अपनी शांति और संतुलन खोने के कगार पर हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर रिसर्च करने वाले मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि चूँकि लोगों के लिए पूरा माहौल बदल गया है अचानक से स्कूल, ऑफिस बिजनेस बंद हो गए, बाहर जाना मना है और दिनभर कोरोना वायरस की खबरें देखना है, इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ना तो स्वाभाविक है।
और इस तरह लोगों को परेशान करने वाली तीनों वजहें हैं:-

1. कोरोना वायरस से संक्रमित होने का डर
2. नौकरी और कारोबार को लकर अनिश्चिता
3. लॉकडाउन के फलस्वरूप अकेलापन
अब सबसे पहले यह जानना आवश्यक होगा की स्ट्रेस बढ़ने का हमारे शरीर पर क्या असर पड़ता होगा। क्योंकि इस महामारी से जो स्ट्रेस व्याप्त है वो डिस्ट्रेस बन चुका है लोगों को आगे का रास्ता नहीं दिख रहा। घबराहट अपने चरम पर है, उर्जाहीनता, अनिश्चितता और उलझन की अति हो गयी है।

इस तरह के तनाव का असर शरीर, दिमाग, भावनाओं और व्यवहार पर गहरा पड़ रहा है।
A. शरीर पर असर :- सिरदर्द, इम्यूनिटी कम होना, थकान, ब्लड प्रेशर में उतार-चढ़ाव।
B. भावनात्मक असर :- चिंता, गुस्सा, डर, चिड़चिड़ापन, उदासी और उलझनों की शिकायतें।
C. दिमाग पर असर :- बार-बार बुरे ख्याल आना, जैसे मेरी नौकरी चली जाएगी, मेरा और मेरे बच्चों का क्या होगा? परिवार का पालन पोषण कैसे होगा? कौन करेगा? मुझे बीमारी हो गई तो क्या होगा? सही और गलत के निर्णय में दुविधा, ध्यान केंद्रित करने में असक्षम।
D. व्यवहार पर असर :- वाह्य चीजों पर निर्भरता, उनका जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करने का अभ्यास हो जाना। नशा का सेवन करने लगना। कोई व्यक्ति ज्यादा चीखने चिल्लाने लगता है और कोई चुप्पी साध लेता है।

मनोचिकित्सकों की मानें तो :-
स्ट्रेस दूर करने के निम्न उपाय लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं:-
● सबसे पहले आपका यह समझना आवश्यक है कि आपके लिए आपके अपनों के स्वास्थ्य के लिए आपको शांत रहना सबसे पहले बेहद जरूरी है, और इसके लिए हमें स्वयं को मानसिक रूप से बेहद मजबूत बनाना होगा। मजबूर नहीं समझना होगा। हमें यह मानना होगा कि हम सक्षम हैं, शक्तिशाली हैं, समर्थ हैं। थोड़ा धैर्य के साथ इंतजार करने से सब कुछ पहले से भी बेहतर हो सकता है।
● प्रार्थना पर पूरा भरोसा रखना होगा इससे आत्मिक और मानसिक शक्ति बढ़ती है जिसकी संकट की घड़ी में नितांत ही आवश्यकता है।
● रिश्तों के मामलों में तो बेहद ही सावधानी बरतनी होगी। छोटी बातों को कतई बडा न बनाएं, एक दूसरे के मन को टटोलें। आपस में सम्मान की भावना बनाए रखना होगा। साथ ही नकारात्मक घटनाओं एवं बातों पर कम से कम चर्चा करने से ही सब जल्दी अच्छा होगा।
● हमें जो भी अच्छा लगे और इससे किसी का नुकसान ना हो और वह कर्म हमें एक बेहतर इंसान बनाए तो उसे अवश्य करना चाहिए। सुबह सुबह सूरज की रोशनी हमारे तन मन पर नकारात्मकता के प्रभाव को दूर करने में काफी सहायक होती है। बागवानी करना, छत पर टहलना, चांद को निहारना, डायरी लिखना, अपनी किसी पुराने शौक को पुनर्जीवित करना, हम में नई ऊर्जा एवं जोश भर सकता है।
● आगे यह भी अति महत्वपूर्ण की एक स्वस्थ दिनचर्या का पालन अवश्य करना चाहिए।
● अपने करीबी लोगों के साथ अपनी भावनाओं को अवश्य साझा करना चाहिए।
● परिवार के लोगों के साथ रहते हुए भी अपने लिए कुछ समय अवश्य निकालना होगा और कोशिश करनी होगी कि हर मसले पर किसी पॉजिटिव नतीजे पर पहुंचा जाए।
● वो कहा जाता है ना कि ग्लास अगर आधा खाली है तो आधा भरा भी है तो क्यों न इस लॉक डाउन के आधे भरे पक्ष पर ध्यान दिया जाए यानि इसमें भी कुछ रचनात्मक या अच्छा और उनका भला करने के विषय में शुरुआत करने से भी इस समय का सदुपयोग संभव है।
● कोशिश यह करनी होगी की खबरों को जानने, समझने और उससे कुछ सीखने मात्र तक ही रखा जाएगा न कि जागते, सोते, उठते, बैठते, खाते-पीते, उन्हें सांसो में समा लिया जाए।
मनोचिकित्सकों काम मानना है कि घरों में मत भिन्नता और मन भिन्नता होने पर पहले जिस तरह से कहीं ना कहीं चीजें और हालात, जब सदस्यों के क्षणिक रूप से दूर होने पर, ध्यान बंट जाने से फिर भी कंट्रोल में आ जाती थी, अब चूंकि बहस या झगड़े के बाद सब सामने ही रह रहे हैं तो ऐसा होना संभव नहीं हो पा रहा और आपसी तनाव और कटुता बढ़ रही है। रिसर्च में यह बात भी सामने आई है कि लॉकडाउन के दौरान उन लोगों की समस्या खासकर के बढ़ती गई है जो पहले से ही किसी ना किसी मानसिक समस्या से पीड़ित थे। ऐसा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्योसाइंस की रिपोर्ट से यह बात सामने आई है।

स्वास्थ्य मंत्रालय ने दिया है टिप्स :- मंत्रालय की वेबसाइट पर वीडियो के जरिए बताया गया कि तनाव से बचने के लिए स्टूडेंट्स और माता-पिता क्या करें :-
1. दुनिया भर में करोना वायरस को लेकर जो स्थितियाँ हैं उससे बच्चों के दिमाग में बहुत कुछ चल रहा है। एकदम से उनकी रूटीन भी बदल गई है, स्कूल बंद है और बाहर खेल भी नहीं सकते।
2. ऐसे में उन्हें उनके बायोलॉजिकल शेड्यूल के अनुसार चलने दे, जबरदस्ती उन पर नया शेड्यूल और काम तय न करें, जैसे सुबह जल्दी उठो, योगा करो, ऑनलाइन क्लास लेकर कुछ नया सीखो, उन्हें बदली हुई परिस्थितियों में एडजस्ट होने का समय दें। मनोचिकित्सक डॉक्टर चावड़ा का कहना है कि लॉकडाउन में मानसिक स्वस्थ्य को दर किनारा ना करें:-
● सकारात्मक सोच कि यह दिन भी गुजर जाएंगे।
मनोचिकित्सकों एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात की ओर आगाह किया है जो कि बेहद दुखद है कि घरेलू हिंसा के मामलों में द्रुत गति से वृद्धि आई है इन दिनों जिसके बारे में उनका कहना है कि ऐसे मामलों में इन्हें शुरू में ही बढ़ने से रोके। कोई हाथ चलाए तो तुरंत करें विरोध अन्यथा यह बढ़ता जाएगा।

दूसरी तरफ ऐसे माहौल में सकारात्मक बने रहने के लिए ये विचार पैदा करना होगा कि अक्सर हम समस्या को जितना बड़ा मान बैठते हैं इतनी बड़ी वह होती नहीं है। लॉकडाउन के बाद नौकरी, अर्थव्यवस्था, व्यापार जैसी परेशानियों को लेकर अवसाद में ना आए।
आर्थिक मुद्दों पर मजबूत बने रहने के लिए अपने खर्चों में कमी लाएं, खर्च करने से पहले दस बार अवश्य सोचें।
जहां तक बच्चों की बात हैं उनसे सकारात्मक बातचीत की जाए। बड़े, बच्चों के आसपास निराशा से बचें, उन्हें आशावादी बनाएं और वास्तविक रूप से रहे भी। बच्चों को वर्चुअल ग्रुप के जरिए उनके दोस्तों से जोड़ें रखा जाना चाहिए। पर उनके मोबाइल एक्टिविटी को सुपरवाइज करना भी आवश्यक है। उनके साथ इंडोर गेम्स भी खेला जा सकता है। उनसे छोटे-मोटे कामों में मदद लेने से उन्हें अपनी महत्ता का एहसास भी होगा।
फिर भी अगर बच्चे किसी परेशानी में है तो उन्हें दवाएं नहीं, खुद पहल करें और जरूरत पड़ने पर विशेषज्ञों की मदद अवश्य लें।
● अब बुजुर्गों की बात ना की जाए तो यह बहुत ही बड़ी नाइंसाफी होगी।
● आज के दौर में कोरोना की वजह से आपात स्थिति है। अमेरिका और चीन जैसे महाशक्तियों ने इस वायरस के सामने घुटने टेक दिए हैं। सभ्यता संस्कृतियाँ ठिठकी खड़ी है। मानवीयता अपने कठिनतम संकट के दौर से गुजर रही है। समाज के एक वर्ग के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है। पूरी दुनिया वैश्विक मंदी की ओर बढ़ रही है। लोग आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में बुजुर्गों की मनोदशा पर इसका बेहद ही नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। वो अकेलापन के शिकार हो रहे हैं। घरों में कैद होने से उनकी मनोदशा बिगड़ रही है। ऐसे हालात में हमें हिम्मत ना हारते हुए उनकी शारीरिक के साथ-साथ मानसिक लाठी भी बननी होगी। उनका विशेष ध्यान रखना हमारा सामाजिक और पारिवारिक दायित्व के साथ ही नैतिक भी है। उनके जीवन में खालीपन को अपने व्यवहार, विचार में बदलाव लाकर भरना होगा। उनसे बातचीत करते रहना होगा। दोस्ताना व्यवहार और इज्जत देकर उनके दिल के करीब रहना होगा। यह मानना होगा कि आज हम जो कुछ भी है उन्हीं की बदौलत है। अतः हमारा परम दायित्व है जिन्होंने हमें हमारा आज दिया है उनके आज के लिए हम भी समर्पित हों ताकि वो संतुष्ट रहें। तो उनकी मनोस्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्हें बच्चों से जोड़ कर रखना चाहिए इससे दोनों के मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। वृद्धावस्था में मानसिक स्थिति कमजोर होने के कारण उनसे गलती होना स्वाभाविक है जिसे बिल्कुल नजरअंदाज किया जाना चाहिए। उनके रहने का स्थान, उनके कपड़ों की सफाई का खास ख्याल रखा जाना चाहिए। उन्हें बाई के सहारे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। उन्हें जुबान से अपशब्द का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए। उनसे हिम्मत की बातें की जानी चाहिए। खाने पीने की चीजें उन्हें पहले दी जानी चाहिए ताकि उन्हें अपने होने का एहसास हो। इस तरह हम उन्हें खुश रखने की कोशिश तो कर सकते हैं न!
अब अंत में बात जरा एक बार फिर से स्वयं पर आकर रुक जाती है। स्वयं के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान रखे बिना हम किसी भी कीमत पर परिवार के हर एक सदस्यों का ध्यान नहीं रख सकते। इसके लिए इतना तो अवश्य ही जान लीजिए चुंकि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है और पुनः एक स्वस्थ मन ही तन को और वातावरण को स्वस्थ रख सकता है अतः तन का ध्यान रखना तो नितांत भी जरूरी है। जिसके लिए योग और प्राणायाम और सात्विक भोजन से बढ़कर कोई विकल्प हो ही नहीं सकता है।
साथ ही बात करते हैं मानसिक स्वास्थ्य की, तो मेडिटेशन और ध्यान लगाने से मन की शांति और मन के स्वास्थ्य पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
ध्यान से ब्रह्मांड की अनंत ऊर्जा हमारे मन, मस्तिष्क के एक एक शिराओं, तंत्रिकाओं, कोशिकाओं में जब समा जाती हैं तो हमारा मस्तिष्क बहुत ही अच्छे और प्रसन्न रहने वाले हार्मोन्स स्त्रावित करता है जिसके फलस्वरूप हमें भीतर से बेहद ही अच्छा महसूस होता है।
ध्यान मस्तिष्क के आंतरिक रूप को स्वच्छ बनाता है, पोषण प्रदान करता है। जब भी हम व्यग्र, अस्थिर और भावनात्मक रूप से परेशान होते हैं, तब ध्यान हमें शांत करता है ।लाकडाउन के दौरान जो मानसिक व्यग्रता से पीड़ित हैं, ध्यान करने से उन्हें मन की शांति की अनुभूति होगी। भावनात्मक रूप से हम स्थिर महसूस कर पाएंगे। हमारे विचारों में फिर से रचनात्मकता आएगी। इस समय की परेशानियाँ ध्यान करने से हमें छोटी महसूस होंगी और हम उनका सामना करने के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर पाएंगे।

ध्यान के दौरान हमारे मन मस्तिष्क से सूक्ष्म सकारात्मक तरंगें समस्त ब्रह्मांड के अणु अणु में समाकर पूरे विश्व को शांति एवं शक्ति का दान देतीं हैं और पुनः वो वापस लौटकर हमारे ही पास तो आती है, जिससे हमारे पास प्रेम शांति का खजाना कभी खाली नहीं होता। आइये दोस्तों, लाकडाउन के दौरान हो रहे मानसिक तनाव को कम करने के लिए अपने मन के बागीचे में चंद मोटिवेटिव विचारों के बीज बोते हैं.. आईए निम्न विचारों से मन को पोषित करें..

“” गहरी सांस लेते हुए एवं धीरे-धीरे गहरी सांस छोडने का अभ्यास करते हुए अपने शरीर के एक एक अंग को धीला छोड़ें, हमें हल्केपन का अह्सास होगा। जब शरीर के भान से परे अपने आप को एक अविनाशी ऊर्जा, अजर अमर आत्मा के रूप में देखेंगे तो पाएंगे कि यह क्षणिक नश्वर शरीर तो वस्त्र मात्र है। गहराई से विचारों के समुद्र में गोते लगाइए कि इस शरीर और शरीर से जुड़ी वातावरण की तमाम चीजें और परिस्थितियां बाहर हैं और अस्थायी हैं… आज जो कुछ भी हमें कष्ट दे रहा है, वो वैसा ही उसी रूप में कल कदापि नहीं रहेगा,
पर हम अनंत पथ के राही, अविनाशी आत्माएं हैं “जो यहां इस नाटयमंच पर उस सर्वोच्च परमपिता रूपी निर्देशक के निर्देशानुसार अभिनय कर रहे हैं”। जो कुछ भी हो रहा है, उसी में जरूर ईश्वर द्वारा प्रदत्त कुछ न कुछ भलाई छुपी हो सकती है।हे परमपिता, कठिन से कठिनतम परिस्थितियों में छुपी भलाई को देखने की दिव्य दृष्टि हमें प्रदान करना। कदम कदम पर हमारे साथ तुम चल रहे हो, तुम ही हमारे साथी खुदा दोस्त हो” ”
इन्हीं अलौकिक विचारों के अभ्यास के साथ, सबों को मेरी बहुत बहुत शुभकामनाएं, मंगलकामनाएं ।।।

बालिका सेनगुप्ता
लेखिका, अधिवक्ता और मोटिवेशनल काउन्सिलर
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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