फिर नयी सुबह तो आयेगी
दिसंबर की शीत लहर और एक वायरस ने चीन के वुहान शहर को अपने आलिंगन में ले लिया और फिर उसका आगोश कसता गया,बढ़ता गया।सुना गया कि वुहान की प्रयोग शाला में किसी छीना झपटी में यह वायरस लाखों लाख की संख्या में ज़मीन पर गिरा तो आदमी के ऊपर चढ़ने लगा।आश्चर्य तब हुआ जब वह अपने ही प्रतिवेशी नगर और देश को छोड़ कर सात समन्दर पार अमेरिका में जा कूदा। गुणाकार होकर लोगों पर अपना जाल फैलाने लगा। ठीक उसी कालक्रम में उसने कुछ चीनी आदमियों का चोला पहन कर इटली मे भी लोगों से गले मिल मिल कर छूरी भोंकनी शुरू कर दी। इसी तरह इंग्लैंड, स्पेन, फ्रांस आदि लगभग सारी दुनिया को इस कोरोना राक्षस ने अपनी चपेट में ले लिया।
फिर एक दिन इस असुर ने हमारे देश में भी दस्तक दी, हांलांकि हम पहले से ही चौकन्ने थे,फिर चौकसी ओर बढ़ गई। हवाई पत्तनों पर यात्रियों का बारीकी से निरीक्षण होने लगा,एक विशेष मुद्रा अंकित कर एकान्त वास (क्वॉरनटाइन ) का निर्देश दिया जाने लगा।धीरे धीरे यह मायावी सारे देश में पसरता चला गया विशेष कर दिल्ली, मुम्बई, पूना, बंगाल, तेलंगाना, आदि में तो अपना ताण्डव रूप लेकर उतरा। मन्दिर,मस्जिद, गुरुद्वारे बन्द किये जाने लगें।सभी डॉक्टर ,नर्स अस्पतालों का पूरा स्टाफ युद्ध स्तर पर तैनात होकर इसके साथ की जाने वाली जंग में उतर गया।परास्त भी किया जाने लगा । अस्पतालों में सभी चिकित्सक और सेवा कर्मी जो हफ्तों अपने परिवार से भी नहीं मिल रहे थे,उनकी कर्मठता और समर्पण देखने से लग रहा था स्वयं देवी देवता यहां अवतरित हो गये। इस वायरस की भीषण विभीषिका का अनुमान लगाकर एक दिन हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने देश को सम्बोधित किया।आग्रह किया एक दिन स्वयं का स्वयं पर अंकुश रखने का जनता कर्फ्यू के रूप में और उसी दिन संध्या पांच बजे करतल ध्वनि, शंखनाद,मन्दिर की घंटी अथवा थाली से ध्वनि स्फुटन के माध्यम से अस्पतालों मे कोरोना जंग के योद्धाओं के प्रति अपना आभार व्यक्त करने का। कदाचित इस स्फोट से यह असुर भी भयभीत होकर लुप्त हो जाये।सभी देशवासियों ने बहुत ही निष्ठा से जनता कर्फ्यू धारण किया और आस्था से विभिन्न विधाओं में ध्वनि स्फुटित कर अस्पतालों में कोरोना को हराने के लिए कृत-संकल्प योद्धाओं के प्रति आभार व्यंजित किया।
पांच दिन बाद फिर आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र के नाम पुनः सम्बोधन मे हमें जीवन रक्षा के मंत्रों से अभिमंत्रित किया कि हमें बाहर नहीं निकलना है, दूसरों से आवश्यक दैहिक दूरी बनाए रखनी है,इस असुर की प्रकृति देखते हुए अपने हाथ हर दो घंटे में बीस सेकंड तक साबुन से धोने हैं।नाक मुंह को ढक कर ही बाहर निकलना है अर्थात् माक्स पहन कर ही निकलना है ,वह चाहे यान्त्रिक रूप से तैयार किया गया हो या अपने दुपट्टे, गमछे अथवा स्कार्फ से ।इसके साथ ही गम्भीर आज्ञा लॉकडाउन 14 अप्रैल तक।गृहकारागार में बन्दी होकर रहने का आदेश।यह जीवाणु अधिक विस्तारित न हो,हम बच रहें, सुरक्षित रहें।निश्चित शैली के अन्तर्गत जीने का आग्रह मोदी जी ने किया और अधिकांशतः सबने पालन भी किया। अधिकांशतः इसलिए कि कुछ ऐसी जमात के लोग भी थे जो कोरोना प्रदाता के रूप में सक्रिय होने की तैयारी में संलग्न थे।जब उन्हें पहचान लिया गया और अस्पतालों में इलाज के लिये भेजा गया तो उन्होंने नर्स डाक्टर जो इनके जीवन रक्षक बने हुए थे इन्हीं को अपना शिकार बनाने के प्रयास में थूका ,पत्थरों का वार किया और भी अनेक कुत्सित गर्हित कृत्य किये किन्तु धन्य हैं हमारे ये योद्धा जिन्होंने अपमान का घूंट पी पीकर भी इन्हें बचाया।प्रशासन की सख्ती पर ये कुछ नियंत्रित हुए।
लॉकडाउन जीवनरक्षा का आपदा कालीन सर्वोपरी उपाय था किन्तु जीवन रक्षा के लिये भोजन भी तो अनिवार्य है और प्रतिदिन कमाने और खाने वालों की संख्या यहां अधिक है। इनमें से सब्जी वाले ,फल वाले और राशन विक्रेताओं को राहत मिली । प्रत्येक जनपद अथवा मोहल्ले के लिए स्थान तय किया गया ।प्रात:छ:बजे से दस बजे तक निश्चित दूरी पर सब्जियों और फलों की दुकानें सज गई सभी विक्रेताओं के लिये माक्स और दस्ताने अनिवार्य कर दिये गये।सब्जी या फल लेने वालों को किसी वस्तु पर हाथ नहीं लगाना है,यह भी नियम बना।इन कम पढ़े लिखे सब्जी वालों ,फल वालों में स्वयं को सुरक्षित रखने के प्रति अद्भुत जागृति के दर्शन हुए।सभी ने मुंह पर माक्स और हाथ में दस्ताने धारण किये हुए थे। आशातीत इनकी जागरूकता। मैं ने देखा जब एक सम्भ्रान्त महिला अपने हाथों से छांट कर सब्जी लेने आगे बढ़ी तो सब्जी वाले ने अत्यन्त शिष्टता से निवेदन किया “मां आपको जैसी चाहिए बता दीजिए पर आप हाथ मत लगाइए”। उसने उस सभ्यता को भी चेता दिया।सब कुछ सुव्यवस्थित रूप से संचालित हो रहा है।
किन्तु गोलगप्पे वाले,चाय की दुकान वाले ,बालू गिट्टी ढोने वाले और भी वे सब जो डेली वेजेज पर काम करते हैं,बिना रोज़ कमाये नाव खेनी मुश्किल।पर जब एक मार्ग बंद होता है तो अन्य मार्ग खुल जाते हैं।बस यहां भी यही सूत्र कामयाब हुआ। ऐसे लोगों के लिए मन्दिरों में भण्डारे खुल गये, गुरुद्वारों में दोनों वक्त लंगर चलने लगे और बहुत सारी स्वयं सेवी संस्थाओं के तत्वावधान मे भोजन दिया जाने लगा। व्यक्तिगत रूप से भी सेवा की जाने लगी।अधिकांश ने अपने सेवकों की सहायता की वे जैसे उनके उत्तरदायित्व हो गये। इसके ऊपर सरकार की कर्मठता और संरक्षण तो नि:शब्द। आलोचनाकारों के तीक्ष्ण प्रहारों को सहते हुए भी प्रति व्यक्ति को दस किलो चावल एक किलो दाल तथा अन्य सामान दिया जाने लगा।बस यहीं कुछ अतिरिक्त व्यवस्था वरेण्या थी।जिन लोगों को आवंटित वस्तुएं आवश्यकता से अधिक हो रही थी उन्हें अन्य किसी ज़रूरतमन्द को दे देना था। यही स्थिति राशन बांटने वालों में से कुछ एक की रही। बहरहाल कतिपय राज्यों में लापरवाही के अतिरिक्त सभी राज्यों में लॉकडाउन के नियमों का पालन हो रहा था। उन राज्यों के सिंहासनों की स्वार्थी महत्त्वाकांक्षाओं ने अनेक दुखद प्रकरणों का सृजन किया।रक्षा कवच मन्त्रों की अनदेखी ने इस कोरोना वायरस को सहजता से पनपने दिया। परिणाम स्वरूप भोले भाले श्रमिकों में अपनी अपनी राज्यसरकारों से आस्था उठ गई।वे अपनी विवशताओं की गठरी सिर पर रख उत्तरदायित्वों का हाथ थामे पैदल ही बढ़ चले अपने गांव की ओर, इससे बेखबर कि गांव में भी उनकी गुज़र बसर कैसे होगी फिर भी अपना गांव ,वो मिट्टी जिसे छोड़ कर दूसरे राज्यों के बड़े बड़े शहरों में रोजी रोटी के लिए गए थे अब बहुत याद आ रहा था।वापसी कहिए या कि इस पलायन प्रहसनों में मज़दूरों के साथ अप्रत्याशित हादसे भी हुए जिनमे अनेकों के जीवन दीप ही बुझ गये। यहां अवश्य ही अपने अपने अहं के कारण राज्य सरकारों में संवाद का अभाव रहा,कुछ राजनीतिक सियासत करने वाले उपद्रवियों के द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित अफवाहों ने मजदूरों को दिग्भ्रमित किया,साथ ही कहीं न कहीं श्रमिकों की अनावश्यक ज़िद और ना समझी भी रही। मुंबई के स्टेशन पर अचानक भयंकर भीड़ होना,रेल की पटरी पर सो जाना या फिर सामान के ट्रक पर चोरी छिपे चढ़ जाना ये सारी हरकतें न होती तो बहुत हद तक कुछ हादसों से बचा जा सकता था।खैर कुछ राज्य सरकारों की सूझबूझ से इन्हें व्यवस्थित किया जा रहा है।यहां यह इंगित करना भी अनिवार्य है कि जिन ठेकेदारों की इन मजदूरों के प्रति जवाबदेही थी वे पल्ला झाड़ कर चल दिये।वस्तुत: मजदूरों के भोजन और आवास के साथ साथ अपने गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था करना भी उनकी ज़िम्मेदारी थी।अब तो बसों और रेलों से इन्हें अपनी अपनी ठांव पहुंचाया जा रहा है किन्तु अनेक चैनल पर देखें गये निन्दनीय दृश्यों के दोषी श्रमिक भी हैं। हमारे भारत में तो अन्न को देवता माना ही गया,
सम्पूर्ण विश्व में भी भोजन सर्वदा सम्मानित ही है किन्तु भोजन को फेंक कर उन्होंने भी गर्हित कार्य किया। हांलांकि इस कृत्य में भी कोई सियासी मानसिकता अवश्य प्रेरक रही होगी।
लॉकडाउन जहां कुछ परेशानियों से ग्रस्त रहा ,कठिनताओं का पुलिंदा रहा ,वहां व्यक्ति और समष्टि दोनों के लिए एक अवसर भी बना। मनुष्यों ने आत्मविश्लेषण किया, कलाकार लॉकडाउन में फेस बुक में लाइव आकर अपनी अपनी कला के माध्यम से लॉकडाउन को सहज,सरल और आनन्द प्रद तो बना ही रहे हैं वर्तमान परिस्थितियों में अपनी चेतना को सतत प्रवाह मयी रखने का प्रेरणा उत्स भी बन रहे हैं।कहते हैं न “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है” आज सभी छोटे बड़े,नन्हे मुन्ने अपनी अपनी कार्यशाला ऑनलाइन खोले हुए हैं।उस गति और सुविधा से ना सही पर दुनिया चल रही है।चर्चायें अपने अपने घरों से संचालित हो रही हैं।गोष्ठियां अपने आवासों से जीवन्त हो रही हैं। सबसे अहं कथ्य भी और तथ्य भी यह कि हमारी प्रकृति से मित्रता हो गई।हरे हरे पत्रों में हंसते फूल,बड़े बड़े उन्नत द्रुमों पर विलुप्त चिरिया भी चहकती है तो हमें प्रकृति के प्रति की गई अवहेलना कचोटने लगती है और तब ज़ूम के माध्यम से मिल कर गाते हैं “क्षमा करो इस बार”। आशा है फिर से हम प्रकृति का सम्मान करेंगे और सरहुल जैसे प्राकृतिक उत्सव हमारी दैनन्दिनी को भव्य बनायेंगे।कुछ ही दिन पूर्व हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में बताया था कि लॉकडाउन की इस अवधि ने देश को कितना आत्मनिर्भर बना दिया ।पी पी ई किट्स वेंटिलेटर आदि सब कुछ देश में अधिकाधिक निर्मित हो रहे हैं। इस काल खण्ड में यह भाव भी विकसित हुआ कि हम अब स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करेंगे। आदरणीय मोदी जी ने बहुत अच्छा नारा दिया कि हमें “ग्लोबल,लोकल और वोकल” बनना है ।
ऐसी परिस्थिति में जबकि पूरा विश्व कोरोना से लड़ रहा है,कुछ पड़ोसी मुल्क अपने देश की महामारी जन्य आपदा की अनदेखी कर सीमा क्षेत्रों पर आतंकी छलनायें कर रहा है किन्तु भारतीय सेना की संकल्प शक्ति और निष्ठा जन्य प्रहारों से पुन: विफल हो रहे हैं।यह बहुआयामी संकट की घड़ी है किन्तु भारत तो वह देश है जिसको बचपन की घुट्टी में ही पिला दिया जाता है “वीर तुम बढ़े चलो ,धीर तुम बढ़े चलो या चन्दन हैं इस देश की माटी,तपो भूमि हर ग्राम है,हर बाला देवी की प्रतिमा बच्चा बच्चा राम है” इसी तरह अनेक वीरगाथाओं की लोरियां हमें आत्मनिर्भर और कृत संकल्प बनाती रही हैं।कर्मणा वाचा मनसा प्रत्येक भारतीय के मन में जब आशा के असंख्य और अनन्य दीप जले हैं तो अमावस का तमस क्या बिगाड़ लेगा। “सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं “।नया विहान तो हंसेगा ही।बस तब तक हमें अपने प्रयत्नों के घृत में अपने संकल्प की वर्तिका
भिगोये रखनी है।फिर वो नयी सुबह तो आयेगी ही, नया सूरज उगेगा और नये प्राण भरेंगें जीवन में।
डॉ रागिनी भूषण
वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद
जमशेदपुर, झारखंड