आपदा में अवसर
मुद्दे की राजनीति अच्छी लगती है| हर मुद्दे पर राजनीति अच्छी नहीं लगती| इधर एक भयंकर रवायत चल पड़ी है| अति सम्वेदनशील विषयों को अखाड़े में खींच लाना और उसी पर कुकुरकाट मचाना| कोरोना को अन्य देश के नागरिक भयंकर आपदा के रूप में देख रहे हैं| आम आदमी से लेकर सरकार तक एक-दूसरे का सहयोग कर रहे हैं| अमीर गरीबों की समस्या समझ रहे हैं और गरीब अपने को लेकर पश्चाताप नहीं कर रहे हैं| हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं हो रहा है| हर कोई इस आपदा को एक ‘अवसर’ के रूप में देख रहा है और जो पूरे जीवन कुछ नहीं कर सका वह ‘आत्मनिर्भर’ बनने की प्रक्रिया में सबसे मजबूत दावेदार स्वयं को देख रहा है|
यहाँ दो शब्द का प्रयोग किया गया| एक-अवसर, दूसरा-आत्मनिर्भर| भारत के प्रधानमंत्री ने इस शब्द का प्रयोग इस अर्थ में किया कि हाय-तौबा मचाने से अच्छा है कि कुछ कार्य किया जाए| चीन आदि देशों से जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ निकल रही हैं उन्हें भारत में वापस बुलाया जाए| इससे एक तो रोजगार को व्यापकता दी जा सकेगी दूसरे जिन क्षेत्रों में उद्योगों का अभाव है वहां उद्योगजगत का निर्माण हो सकें| कोशिश यह भी थी कि विभिन्न क्षेत्रों में कर्ज देकर ‘जन-सक्रियता’ को सकारात्मक रूप दिया जाए| महानगरों आदि से जिस तरह से लोग अपने गांवों की तरफ रुख किये थे, यह अच्छा अवसर होगा उनके लिए| वे लोगों से कर्ज मांगने से अच्छा कुछ धन-लाभ कर सकेंगे|
हमारे यहाँ बुद्धिजीवियों ने इसका ठीक उल्टा अर्थ लिया| जिस बात की परिकल्पना प्रधानमंत्री से लेकर आम आदमी तक ने न की थी, बैठे ठाले का धंधा करने वालों ने उसे वही रूप दे दिया| ‘अवसर’ और ‘आत्मनिर्भर’ इन दो शब्दों को इतना विस्तार मिला कि हर कोई लाभ-लोभ के लालच में पड़ गया| कवियों ने खूब कविताएँ लिखी| विश्लेषकों ने समाचार पत्रों के पृष्ठ-के-पृष्ठ पाट दिए| न्यूज चैनलों लाशों पर ऐसी खबरें चलाईं कि आज भी बहुत से दृश्य आँखों के सामने नाच रहे हैं| मृत्यु के आंकड़े जिस तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं, जिस तरीके से पैदल चल रहे मजदूरों पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं, ऐसा लगता है जैसे अब यही सब समस्याओं को खत्म कर देंगे| इस भयानक त्रासदी के समय में भी भारत बनाम पाकिस्तान का मुद्दा चला रखे हैं| निश्चित तौर पर यह सभी आत्मनिर्भर बनते हुए महामारी के जलजले में ‘अवसर’ का लाभ उठा रहे हैं|
अवसर और आत्मनिर्भर इन दो शब्दों का फायदा राजनीतिक दलों ने खूब उठाया| केजरीवाल ने तो पहले ही चाल चल दिया था| दिल्ली के गरीब निवासियों को घर छोड़ने के नाम पर पिछले दिनों जो कुछ हुआ उसे दुनिया ने देखा| इधर टी.वी. पर आकर हर सम्भव मदद की हिदायतें दी जा रही थीं और उधर लॉकडाउन असफल करने की रणनीति बनाई जा रही थी| मजदूर भटकने लगे| लोग आरोप-प्रत्यारोप में जुटे| जो दंगल हुआ वह आज तक न तो हम भूल रहें है और न ही तो मजदूरों को भूलेगा|
विपक्ष-पक्ष के बीच जो कुछ हुआ वह भी जगजाहिर है| पीएम केयर फंड को लेकर शंका-आशंका तक व्यक्त की गयी| आम आदमी यह समझने में अभी तक असफल है कि वह पीएम केयर फंड में दान क्यों करे? जो कर रहे थे उन्हें विधिवत यह कह कर कि सब घोटाले की नीति है, उन्हें रोका गया| ठीक तो नहीं हुआ यह| हाँ राजनीतिक दाँव-पेच में कितना नीचे गिरा जा सकता है, यह हम सब जरूर देख लिए|
इस कोरोना समय को अवसर में बदलने का एक नजरिया और देखिये| राहुल बनाम मोदी, कांग्रेस बनाम भाजपा का जो खेल शुरू हुआ वह इधर मुख्य ट्रेंड में है| मजदूर अपने घरों की तरफ जा रहे हैं| उधर वे रास्ते में भटक रहे हैं और परेशान हैं, इधर कितने लोग तो भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत तय करके बैठ गए हैं| राहुल की ताजपोशी और मोदी की विदाई का सारा इंतजाम भी कर लिए हैं| ये इंतजाम कितने हास्यास्पद हैं, कहने की जरूरत नहीं समझ रहा हूँ|
मेरी समझ में इधर के दिनों में उत्तर प्रदेश में राहुल और प्रियंका की सक्रियता ने इसी अवसर की तलाश को प्रमुखता दी है| एक हजार बसों को चलाने और उस पर सरकार की आपत्तियों को लेकर नूरा-कुश्ती करने वाली बातें बहुत हद राजनीतिक षड़यंत्र की गोटियाँ प्रतीत होती हैं जिन्हें साजिशन बिछाया गया है| आखिर राजस्थान और पंजाब की बसों को उत्तर प्रदेश के बॉर्डर पर लाने की जरूरत क्या थी? पंजाब और राजस्थान में भी तो मजदूर फंसे थे, उन्हें लाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? यह प्रयास होता तो निश्चित तौर पर सराहनीय प्रयास कहा जा सकता था| ऐसा नहीं किया गया क्योंकि मसला मजदूरों को सहायता पहुंचाना नहीं, राजनीतिक लाभ लेना था|
हमें यह सोचने में संकोच नहीं होना चाहिए कि मजदूरों के भूख और प्यास पर वोटों की बिसात बिछाई जा रही है| इस बिसात में ‘अवसर’ की जो तुच्छता है वह हमें हतप्रभ करती है| कितने लोगों द्वारा तो क्रांति की भी आशंकाएं जताई जा रही हैं| यह भी कि, बेहद गंभीर समय में इस तरह की आशाएं पालना कहाँ तक उचित है? कांग्रेस और भाजपा तब रहेंगे जब लोग रहेंगे? लोग मर रहे हैं और आप राजनीतिक मंथन में जुटे हैं? आखिर यह कहाँ की समझदारी है? कहाँ की नीति है? ऐसा तो हमारा देश नहीं था कभी? जब ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि ऐसा हमारा देश कब नहीं था?
राजनीति के बियाबान में सम्वेदनाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ किया जाएगा, किसने जाना था| मजदूरों के दुःख-सुख से जिन्हें कभी कुछ लेना-देना नहीं था वे भी इधर जार-जार हुए जा रहे हैं| केन्द्र सरकार तो एक हद तक स्पष्ट है लेकिन राज्य सरकारों द्वारा अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं किया जा रहा है| यदि किया ही जाता तो ये कोरोना समय उनके लिए मुसीबत न बनती| वे भी एकांत समय का फायदा उठाते हुए सृजनशील रहते और समृद्ध होते|
यह ऐसा कठिन समय साबित हुआ कि उद्योगपतियों ने भी मजदूरों को कुछ नहीं समझा| जिन मजदूरों ने अपने जीवन का सुख-चैन दाँव पर रखकर महानगरों को संवारा उसी महानगर ने दूध में पड़ी मच्छी की तरह उन्हें निकालकर फेंक दिया| अब जब वे घर की तरफ रवाना हो गए हैं तो उनकी सहानुभूति पाने के लिए राजनीति की जा रही हा| कितनी विडंबना है जिनसे सहानुभूति दिखाने का समय है उनसे इकठ्ठा किया जा रहा है| यही भारतीय अवसरवाद का सबसे घटिया प्रारूप है|
पुलिस की सक्रियता ने कोरोना के प्रभाव को कम किया और लॉकडाउन को सफल बनाने में भूमिका निभाई| हमारे यहाँ इसे भी राजनीति से जोड़ा गया| पुलिस को हत्यारा तक कहा गया| इस अर्थ में कि लोगों की सहानुभूति मिल सके| एक खास वर्ग और समुदाय के लोगों ने पुलिस के साथ जो हरकत किये वह बहुत कुछ कहता है| जब उन पर कार्यवाही की बात की गयी तो मामला हिन्दू-मुस्लिम से जोड़ कर देखा गया और निम्न से निम्नतर राजनीति की मिशाल प्रस्तुत की गयी| इन स्थितियों को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि यह समय निश्चित ही हमारे लिए कठिन समय है| देश में जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं वह और भी चिंताजनक है|
जरूरी तो यह था कि हर हाल में आपदा से लड़ना था| जो जिस हद तक सक्षम था उस हद तक प्रयास कर सकता था| भाजपा, कांग्रेस, आप, सपा, बसपा सभी पार्टियों द्वारा एक मिशाल तो प्रस्तुत किया ही जा सकता था| आम दिनों में अलग-अलग रहने वाले जानवर भी संकट के समय एक-दूसरे अंग-संग रहना पसंद करते हैं| रहने की कोशिश करते हैं| हम इस संकट के समय में भी सत्ता हथियाने की बात करते रहे| आम आदमी सड़कों पर उतर कर मरते रहे|
मीडिया तो चलिए अपना रवैया नहीं बदल सकती लेकिन क्या पढ़े–लिखे बुद्धिजीवी ऐसा नहीं कर सकते थे? हताश और निराश जनता के लिए यदि सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को भी पहुचाने का कार्य किया गया होता तो कोरोना का जो कहर आज देश पर आपदा बनकर बरस रहा है, वह न होता| स्थितियां कंट्रोल में होतीं| अब संख्या गिना जा रहा है| शहरों को छोड़कर गाँव वेबस और लाचार नजर आ रहे हैं| जिन ग्राम प्रधानों को सक्रियता के साथ अपने गांवों का देखभाल करना था वे सभी चादर तान कर सो रहे हैं| विधायक और सांसद स्वयं को क्वारनटाइन किये हुए हैं| दर से बेदर हुए लोग किसके पास जाएं अपनी समस्याएँ लेकर? यह समझ उनको नहीं आ रहा है| यह समझ आए कहाँ से? हम सब अब इस प्रश्न को लेकर ढो रहे हैं|
फिलहाल सभी अपने ‘अवसर’ की तलाश में हैं| सभी आत्मनिर्भर बनने की भूमिका में मानवीय भूमिका को तिलांजलि दे रहे हैं| निश्चित रूप से यह हम सबके लिए एक सुनहरा अवसर हो सकता था मनुष्यता को ऊंचा उठाने के लिए लेकिन उसमें व्यक्तिगत हित और निज स्वार्थ को कोई फायदा न होता, इसलिए उचित नहीं समझा गया| यह उचित न समझा जाना ही हमारे मनुष्य होने में संदेह पैदा करता है| हमारे सारे प्रयास सभ्य होने और दिखने के संदेहास्पद हो गए हैं|
अनिल कुमार पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक,
लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी
फगवाड़ा, पंजाब